सुप्रीम कोर्ट ने 49 वर्ष पहले सड़क बनाने के लिए ली गई जमीन का मुआवजा देने का आदेश देते हुए हिमाचल प्रदेश सरकार की देरी के आधार पर मुकदमा खारिज करने की दलील ठुकराते हुए कहा है कि न्याय करने के लिए कोई समय सीमा नहीं हो सकती। ऐसी स्थिति में राज्य चूक और देरी की ढाल के पीछे नहीं छुप सकता। कोर्ट ने कहा कि किसी को उसकी निजी संपत्ति से कानून का पालन किए बगैर जबरन हटाना उसके मानवाधिकार और संविधान के अनुच्छेद 300ए में मिले अधिकारों का उल्लंघन है।
कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि सड़क बनाने के लिए याचिकाकर्ता की ली गई जमीन को अधिग्रहित जमीन मानते हुए चार महीने के भीतर उचित मुआवजा दिया जाए। यह आदेश जस्टिस एस.रवीन्द्र भट व जस्टिस पीएस नरसिम्हा की पीठ ने जमीन का मुआवजा मांगने वाली सुख दत्त रात्रा की अपील स्वीकार करते हुए सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के उस आदेश को रद कर दिया जिसमें मुआवजे की मांग याचिका खारिज कर दी गई थी और याचिकाकर्ता को मुआवजे के लिए सिविल सूट दाखिल करने की छूट दी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट का आदेश खारिज करते हुए कहा कि हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकारों की अनदेखी की जिसके कारण उसे सुप्रीम कोर्ट आना पड़ा और संपत्ति से बेदखल होने के दशकों बाद उसे राहत मिली। सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि वह मुआवजे के अलावा याचिकाकर्ता को 50 हजार रुपये मुकदमा खर्च भी देगी। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 136 में मिली शक्तियों और अनुच्छेद 142 में मिले विशेष अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए यह आदेश दिया है।
इस मामले में याचिकाकर्ता सुख दत्त रात्रा और भगत राम की जमीन हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले की पच्छाद तहसील में मौजल सारोल बाशे में थी। जिसे हिमाचल प्रदेश सरकार ने 1972-73 में नाराग फागला रोड बनाने के लिए ले लिया था। लेकिन इस जमीन के लिए सरकार ने न तो भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया अपनाई और न ही मुआवजा दिया। कुछ पड़ोसियों की ओर से की गई याचिका पर हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को जमीन के अधिग्रहण का नोटिस निकालने और मुआवजा देने का आदेश दिया।
आस पड़ोस के लोगों के हक में हाई कोर्ट से मुआवजा मिलने का फैसला आने के बाद याचिकाकर्ता सुख दत्त रात्रा ने भी 2011 में हाईकोर्ट मे याचिका दाखिल कर जमीन का मुआवजा दिलाने की मांग की। उसी की तरह के अन्य मामलों में हाई कोर्ट के आदेशों का हवाला भी दिया। लेकिन हाई कोर्ट ने उसकी याचिका यह कहते हुए निपटा दी कि उसे कानून के मुताबिक इसके लिए सिविल सूट दाखिल करना चाहिए। हाई कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान हिमाचल प्रदेश सरकार ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता पहले तो 38 साल की देरी से हाईकोर्ट पहुंचे और हाईकोर्ट का फैसला आने के करीब छह वर्ष की देरी से इस कोर्ट में अपील दाखिल की। सरकार का यह भी कहना था कि नाराग फाग्ला रोड का निर्माण याचिकाकर्ता के अनुरोध पर ही हुआ था जो कनेक्टिविटी चाहते थे और इसके लिए उन्होंने मौखिक सहमति भी दी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की सारी दलीलें खारिज करते हुए कहा कि संपत्ति भले ही अब मौलिक अधिकार न हो लेकिन जब याचिकाकर्ता की जमीन ली गई थी तब यह मौलिक अधिकार था। इसके अलावा किसी को कानूनी प्रक्रिया के अलावा संपत्ति से नहीं हटाए जा सकने का संवैधानिक अधिकार अभी भी संविधान के अनुच्छेद 300-ए में शामिल है। कोर्ट ने कहा कि यह तय कानूनी सिद्धांत है कि किसी को भी कानूनी प्रक्रिया के बगैर उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता।