शैतान सिंह: हाथ चोटिल होने पर पैर से बांध ली थी मशीन गन, 1300 चीनी सैनिकों को साथ लेकर शहीद हुए

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18 नवंबर इतिहास के पन्नों में दर्ज एक ऐतिहासिक तारीख है. इस दिन भारतीय सेना के एक जांबाज़ ने न सिर्फ़ दुश्मन को अपना दम दिखाया, बल्कि लद्दाख पर उसके कब्जे़ के नापाक इरादे को अपने पराक्रम से नेस्तानाबूद कर दिया था. हम बात कर रहे हैं परमवीर विजेता मेजर शैतान सिंह की. वहीं शैतान सिंह, जिन्होंने रेजांगला के युद्ध में भारतीय सेना की एक टुकड़ी का नेतृत्व किया और चीनी सेना के करीब 1300 चीनी सैनिकों को मार गिराया था.

अफ़सोस वह इस जंग में शहादत को प्राप्त हुए. जंग के करीब 3 महीने बाद जब शैतान सिंह का पार्थिव शरीर मिला तो देखकर लोग उन्हें दंग रह गए थे. शहीद होने के बाद भी उन्होंने अपनी बंदूक को मज़बूती से पकड़ रखा था.

मेजर शैतान सिंह का बचपन शौर्यता के किस्से सुनते हुए बीता  

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साल 1924, दिसंबर 1. राजस्थान के जोधपुर ज़िले में लेफ्टिनेंट कर्नल हेम सिंह भाटी के घर एक बच्चे ने जन्म लिया. नाम रखा गया शैतान सिंह. पिता एक सैन्य अधिकारी थे. मसलन बचपन शौर्यता के किस्से सुनते हुए बीता. बड़े हुए तो पिता की तरह भारतीय सेना का हिस्सा बने. 

01 अगस्त, 1949 को वो जोधपुर राज्य बल का हिस्सा बने. यह वो दौर था, जब जोधपुर रियासत भारत का हिस्सा नहीं थी. बाद में जोधपुर का भारत में विलय हुआ, तो शैतान सिंह को कुमाऊं रेजिमेंट में भेज दिया गया. यह शैतान सिंह की काबलियत ही थी कि उन्हें 1962 में मेजर के पद पर पदोन्नत कर दिया गया. मेजर का पद संभालने के कुछ वक्त बाद ही भारत और चीन के बीच युद्ध छिड़ गया.

120 जवानों वाली टुकड़ी की कमान संभाल रहे थे मेजर  

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18 नवंबर, 1962 को लद्दाख की चुशुल घाटी पर करीब 03.30 बजे सुबह दुश्मन ने गोलीबारी शुरू कर दी. मेजर शैतान सिंह को दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब देना था, जोकि आसान नहीं था. दुश्मन हज़ारों की संख्या में थे. जबकि शैतान सिंह 13 कुमाऊं की करीब 120 जवानों वाली एक टुकड़ी की कमान संभाल रहे थे. 

परिस्थितियां बिल्कुल उनके विपरीत थी. दुश्मन की तुलना में न तो उनके पास अच्छी संख्या थी. न ही हथियार. ऐसे में उनकी इच्छाशक्ति ही थी, जिसके बल पर भारतीय टुकड़ी को आगे बढ़ना था. शैतान सिंह ने अपने साथियों में जोश भरते हुए मोर्चा संभालने को कहा. इस तरह भारत की तरफ़ से जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी गई. देखते ही देखते भारतीय सैनिकों ने दुश्मन सैनिकों की लाशें बिछा दी थी. 

इस हमले से बौखला कर दुश्मन ने मोर्टार दागने शुरू कर दिए. भारतीय टुकड़ी पूरी तरह घिर चुकी थी. पीछे हटने के सिवा उनके पास दूसरा कोई चारा नहीं बचा था. मगर मेजर शैतान सिंह को यह मंज़ूर नहीं था. उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक लड़ने का मन बना लिया था. दौड़-दौड़ कर वह अपने साथियों में जोश भर रहे थे. तभी अचानक एक गोली मेजर शैतान सिंह को आकर लगी और वो बुरी तरग से लहू-लुहान हो गए. 

मशीन गन को रस्सी की मदद से पैरों में बांधकर किया मुकाबला   

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साथियों ने उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले जाने की कोशिश की. मगर मेजर ने इंकार कर दिया. साथ ही मशीन गन को रस्सी की मदद से पैरों में बंधवा लिया था, ताकि वह ज़्यादा से ज़्यादा दुश्मन को मार सकें. हालांकि, वह ज़्यादा देर तक ऐसा नहीं कर सके. सुबह होते-होते मेजर समेत टुकड़ी के 114 सैनिक शहीद हो गए. बाकी बचे हुए सैनिकों ने दुश्मन ने बंदी बना लिया था, जिन्हें बाद में छोड़ दिया गया था. 

वर्फ़बारी के कारण मेज़र समेत उनके साथियों के शव एक लंबे समय तक नहीं मिले. युद्ध के करीब तीन माह बाद जब शहीद मेजर शैतान सिंह का शव मिला तो सबकी आंखें खुली की खुली रह गईं. उनके पैरों में अभी भी मशीनगन बंधी हुई थी, जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने अंतिम समय तक किस तरह से दुश्मन का सामना किया होगा.

करीब 1300 से अधिक चीनी सैनिकों को मार गिराया   

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दुर्भाग्य से इस जंग में भारत को हार का सामना करना पड़ा था. मगर मेजर शैतान सिंह और उनकी टीम ने एक बड़ी संख्या में चीनी सैनिकों को मार गिराया था. अनुमान है कि करीब 1300 से अधिक चीनी सैनिकों को भारतीय जवान ने अपनी गोली का निशाना बनाया था. शहादत के बाद जब मेजर शैतान सिंह के पार्थिव शरीर उनके गांव पहुंचा तो सभी की आंखें नम थी. मगर उनका सिर मेजर के पराक्रम के कारण ऊंचा था.

मरणोपरांत अपने साहस के लिए मेजर शैतान सिंह को वीरता के सबसे बड़े सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. मेजर शैतान सिंह के जज़्बे को सलाम. वो हमारी यादों में हमेशा ज़िंदा रहेंगे.