शोले रिलीज़ होने के कुछ दिनों बाद से ही मिनर्वा थियेटर से ताड़देव ब्रिज तक दर्शकों की लाइनें लगने लगी थीं. मिनर्वा के पास के बस स्ट़ॉप को ‘शोले स्टॉप’ कहा जाने लगा था. मिनर्वा के मैनेजर सुशील मेहरा रोज़ सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक इतने व्यस्त रहते थे कि उन्होंने अपने परिवार को सिनेमा हॉल के अंदर बने दो कमरों के अपार्टमेंट में बुला लिया था क्योंकि रोज़ घर जाने का कोई तुक नहीं था.
लोगों की दीवानगी का आलम ये था कि पंजाब से दिल्ली के प्लाज़ा सिनेमा के लिए दर्शकों से खचाखच भरी बसें चलती थीं जिनपर लिखा होता था ‘शोले स्पेशल.’ शोले पर किताब ‘शोले द मेकिंग ऑफ़ द क्लासिक’ लिखने वाली अनुपमा चोपड़ा लिखती हैं, ’15 रुपए का बालकनी टिकट 200 रुपए में बिक रहा था.
भारतीय फ़िल्मों के इतिहास में ये पहली बार हुआ था कि कोई टिकट 100 रुपए से अधिक में बिक रहा था. एक सप्ताह मुंबई में इतनी बारिश हुई कि मिनर्वा थियेटर में पानी भर गया. लॉबी में चार फ़ुट तक पानी जमा हो गया तब भी लोग अपने जूते हाथ में लेकर और अपनी पैंट ऊपर चढ़ा कर पानी में छप छप करते हुए थियेटर तक पहुंच रहे थे. डायलॉग तो ख़ैर लोगों को याद थे ही, लोगों ने फ़िल्म के साउंड एफ़ेक्ट तक याद कर रखे थे.’
कहानी मशहूर थी कि किस तरह दिल्ली के प्लाज़ा सिनेमा में टिकट ब्लैक करने वाले एक शख़्स ने पाँच महीनों तक शोले के टिकट 150 रुपे में ब्लैक में बेच कर सीलमपुर में अपने लिए एक छोटा घर बनवा लिया था और उसे शोले के पोस्टरों से सजाया था.
मुग़ल-ए-आज़म को सिर्फ़ के आसिफ़ ही बना सकते थे
फ़ॉर्मूला फ़िल्म क्लासिक फ़िल्म में तब्दील हुई
शोले मुंबई के मिनर्वा थियेटर में पाँच सालों तक चली थी. 240वें हफ़्ते में भी वो फ़िल्म हाउज़ फ़ुल चल रही थी. इस फ़िल्म ने कई लोगों की ज़िदगियाँ बदल दीं. रिलीज़ होने के 47 साल बाद भी इसे ब़ॉक्स ऑफ़िस में सफलता का मापदंड माना जाता है.
इस फ़िल्म के छोटे छोटे कलाकार सूरमा भोपाली, जेलर, कालिया और साँभा हमेशा के लिए अमर हो गए. यहाँ तक घोड़ी धन्नो को भी लोगों ने भुलाया नहीं. शेखर कपूर ने इस फ़िल्म पर टिप्पणी करते हुए एक दिलचस्प जुमला कहा था, ‘भारतीय फ़िल्म के इतिहास को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है, ‘शोले बीसी और शोले एडी. इस फ़िल्म ने एक बी ग्रेड कथानक को एक बड़े बजट की भव्य फ़िल्म में बदल दिया था.
इस फ़िल्म ने भारतीय फ़िल्म उद्योग को इस बात की भी सीख दी थी कि किस तरह एक फ़ॉर्मूला फ़िल्म को क्लासिक फ़िल्म में तब्दील किया जा सकता है.’ विज्ञापन की दुनिया की मशहूर हस्ती पीयुश पाँडे ने इस फ़िल्म को इस देश में बनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म करार दिया था.
फ़िल्म का हर डायलॉग लोगों को याद हो गया
वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.
ड्रामा क्वीन
समाप्त
शोले के प्रशंसक इस फ़िल्म को पचास, साठ और सत्तर बार देखने का दावा करते थे.
लोगों को गब्बर के हथियार डीलर तक नाम याद हो गया था जो पर्दे पर मात्र 30 सेकेंडों के लिए आता है. लोग गब्बर के पिता को भी नहीं भूले थे जबकि उसके बारे में फ़िल्म में सिर्फ़ एक वाक्य है जब अदालत में गब्बर के खिलाफ़ फ़ैसला सुनाते हुए कहा जाता है ‘गब्बर सिंह, वल्द हरि सिंह.’
शोले में छोटा सा रोल करने वाले मैकमोहन ने एक इंटरव्यू मे बताया था, ‘एक बार न्यूयॉर्क हवाईअड्डे के पहलवान से दिखने वाले इमिग्रेशन ऑफ़िसर ने मुझे बिना कोई सवाल पूछे जाने दिया था क्योंकि उसने शोले देखी थी और वो साँबा को पहचानता था.’
पटना में लोगों ने अपने ऑटोरिक्शा को ‘धन्नो’ नाम दे रखा था. कई फ़ाइव स्टार होटलों के बार में ड्रिक्स के नाम ‘गब्बर’ रख दिए गए थे. भारत भर में कालेज की कैन्टीनों में जब किसी लड़के और लड़की को रोमाँस लड़ाते देखा जाता था तो ये फ़िकरा अक्सर सुनने को मिलता था, ‘बहुत याराना लगता है.’
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गब्बर सिंह का चरित्र असली ज़िदगी से लिया गया था
सलीम जावेद ने चार लाइनों में इस फ़िल्म का कॉन्सेप्ट नोट लिखा था जिसे 15 दिनों के अंदर एक तीन घंटे की फ़िल्म में तब्दील करने की ज़िम्मेदारी रमेश सिप्पी ने उन्हें सौंपी थी. इन तीनों पर हॉलिवुड की फ़िल्मों ‘बच कैसिडी’, ‘द मैग्निफ़िसेंट सेवेन’ और जापानी निर्देशक अकीरा कुरुसावा की ‘सेवेन समुराई’ फ़िल्म का ख़ासा असर था.
गब्बर सिंह का नाम एक वास्तविक डकैत के नाम से लिया गया था. सलीम के पिता जो कि इंदौर में डीआईजी थे अक्सर एक ख़तरनाक डकैत की कहानी सुनाया करते थे जिसने पचास के दशक में ग्वालियर के आसपास के गाँवों में आतंक मचा रखा था. उसकी ख़ासियत ये ती कि वो पुलिसवालों को पकड़ कर उनके नाक और कान काट लिया करता था.
एक कहानी ये भी प्रचलित थी कि गब्बर को ख़ाकी रंग से इतनी नफ़रत थी कि उसने एक बार एक पोस्टमैन को पकड़ कर उसका चेहरा बिगाड़ दिया था, जबकि वो सफ़ाई देता रह गया था कि वो पुलिसवाला नहीं है. सूरमा भोपाली वो चरित्र था जिसे जावेद अख़्तर अपने भोपाल के दिनों से जानते थे.
वीरू और जय भी सलीम के कालेज के दिनों के दोस्तों के नाम थे. सिक्के वाले दृश्य का प्रेरणास्रोत ‘गार्डेन ऑफ़ इविल’ फ़िल्म थी. लेकिन सलीम और जावेद हूबहू नकल करने में विश्वास नहीं करते थे. उनका हुनर था मूल फ़िल्म के दृश्य को इससे भी प्रभावशाली ढ़ंग से दोबारा लिखना.
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सिप्पी ने कई लोगों की राय के ख़िलाफ़ अमिताभ को लिया
हेमा मालिनी ताँगेवाली को रोल करने के लिए बहुत उत्साहित नहीं थीं. फ़िल्म में सिर्फ़ साढ़े पाँच दृश्यों की उनकी भूमिका उनके उस समय के क़द को देखते हुए बहुत कम थी. जब हेमा ने इसका विरोध किया तो रमेश सिप्पी ने उन्हें समझाया, ‘ये संजीव और गब्बर की फ़िल्म है. लेकिन तुम्हारा रोल बहुत दिलचस्प है.’
सवाल ये भी उठा कि जय के दोस्त का रोल कौन करेगा. सारे वितरक चाहते थे कि ये रोल शत्रुघन सिन्हा को मिले, लेकिन सलीम जावेद शुरू से अमिताभ बच्चन को ही लेने के पक्ष में थे. वो शायद भारत में अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने अमिताभ की सुपर फ़्लॉप फ़िल्म रास्ते का पत्थर तीन बार देखी थी और वो पूरी तरह से इस बात पर यकीन कर चुके थे कि अमिताभ में बहुत संभावनाएं हैं.
उधर बाद में अपनी आवाज़ के लिए मशहूर हुए अमिताभ बच्चन को ऑल इंडिया रेडियो ने स्वर परीक्षा में फ़ेल कर दिया था और अपनी शुरू की एक फ़िल्म रेशमा और शेरा में उन्होंने एक गूँगे व्यक्ति की भूमिका निभाई थी. लेकिन प्रकाश मेहरा को ज़ंजीर में अमिताभ को लेने के लिए राज़ी कर चुके सलीम जावेद का अमिताभ बच्चन में विश्वास अडिग था.
उधर रमेश सिप्पी ने भी अमिताभ की बॉम्बे टु गोवा और आनंद फ़िल्में देखी थीं और उनसे प्रभावित हुए थे. अमिताभ ने धर्मेंद्र से भी कहा था कि वो इस रोल के लिए रमेश सिप्पी से उनकी सिफ़ारिश कर दें.
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गब्बर के रोल के लिए डैनी पहली पसंद थे
ठाकुर के रोल के सबसे बड़े दावेदार थे प्राण. लेकिन रमेश सिप्पी ने तय किया कि संजीव कुमार उनसे बेहतर विकल्प हैं.
जया भादुड़ी को विधवा का जो रोल मिला था वो भी कागज़ पर बहुत ज़्यादा नहीं था. फ़ुटेज में वो रोल हेमा मालिनी से भी छोटा था.
लेकिन रमेश का तर्क था कि उस समय जया के अलावा कोई भी आँखों से उतना अच्छा अभिनय नहीं कर सकता था. जया इस रोल के प्रति बहुत उत्साहित नहीं थीं. लेकिन उस समय अमिताभ बच्चन के साथ उनकी नज़दीकियाँ बढ़ रही थीं.
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अमिताभ ने उन्हें ये कह कर फ़िल्म करने के लिए मना लिया कि इससे उन्हें और नज़दीक आने का मौका मिलेगा. डाकू के रोल के लिए रमेश की पहली पसंद डैनी डेंगज़ोग्पा थे. लेकिन जावेद इस चुनाव से बहुत ख़ुश नहीं थे. डैनी ने उसी समय फ़िरोज़ ख़ाँ की फ़िल्म धर्मात्मा साइन कर ली जो फ़्राँसिस फ़ोरड कपोला की क्लासिक ‘गॉडफ़ादर’ पर आधारित थी. डैनी दोनों फ़िल्में करना चाहते थे.
रमेश सिप्पी ने गब्बर के रोल के लिए अमजद ख़ाँ को चुना
उन्होंने अपने सचिव मदन अरोड़ा पर इसका हल निकालने की ज़िम्मेदारी छोड़ी. मदन ने फ़िरोज़ से अपनी शूटिंग आगे बढ़ा देने का अनुरोध किया जिसे फ़िरोज़ ख़ाँ ने माना नहीं. मदन , फ़िरोज़ और रमेश ने इस पर बहुत माथापच्ची की लेकिन इसका समाधान नहीं निकल पाया. बल्कि इस चक्कर में फ़िरोज़ डैनी से नाराज़ हो गए.
तब डैनी ने फ़ैसला किया कि वो गब्बर के रोल को ना कह देंगे. यहाँ से अमजद ख़ाँ की एंट्री हुई. सिप्पी ने उस समय के लोकप्रिय खलनायकों रणजीत और प्रेम चोपड़ा के बारे में सोचा लेकिन वो उस रोल के लायक नहीं समझे गए. एक समय उन्होंने प्रेमनाथ को भी वो रोल देने के बारे में सोचा लेकिन तब तक वो बहुत मोटे हो चुके थे और ये भी कहा जाने लगा था कि वो अब बहुत मूडी हो गए हैं, इसलिए उन्हें भी ड्रॉप कर दिया गया.
अमजद का ट्रैक रिकार्ड इतना अच्छा नहीं था लेकिन थियेटर में उनकी ख़ासी ख्याति बन चुकी थी. उनसे दाढ़ी बढ़ाकर आने के लिए कहा गया. रोल में गहराई से जाने के लिए उन्होंने जया भादुड़ी के पिता तरुण भादुरी द्वारा चंबल के डाकुओं पर लिखी किताब ‘अभिशप्त चंबल’ पढ़ी.
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हर अभिनेता दूसरे अभिनेता का रोल करना चाहता था
स्क्रिप्ट को कागज़ पर उतारना जावेद का काम था लेकिन उनकी राइटिंग इतनी ख़राब थी कि उसको पढ़ा ही नहीं जा सकता था. वो उर्दू में लिखते थे जिसका हिंदी अनुवाद करते थे उनके असिस्टेंट ख़लिश. इसके बाद उनके एक दूसरे असिस्टेंट अमरजीत उसका एक लाइन में अंग्रेज़ी में साराँश लिखा करते थे.
गब्बर की भाषा अवधी मिश्रित खड़ी बोली थी. उसके शब्दों के चुनाव में रूखापन था.
लेखक ये बताना चाहते थे कि गब्बर के सिर पर 50000 रुपए का ईनाम था लेकिन गब्बर की अकड़ इतनी थी कि उसने अपने एक चमचे के ज़रिए ये तथ्य दर्शकों तक पहुंचाया. गब्बर का डायलॉग था, ‘अरे ओ सांभा कितना ईनाम रखे है सरकार हम पर ?’ ‘पूरे पचास हज़ार.’ ‘सुना, पूरे पचास हज़ार.’
अनुपमा चोपड़ा लिखती हैं कि ‘गब्बर का रोल इतना ताक़तवर था कि जब अमिताभ ने स्क्रिप्ट सुनी तो वो गब्बर का रोल करना चाहते थे. संजीव कुमार की भी यही राय थी.
स्क्रिप्ट ने इतना अच्छा रूप लिया कि हर अभिनेता दूसरे अभिनेता का रोल करना चाहता था. धर्मेंद्र ठाकुर के रोल से इतने प्रभावित हुए कि वो ये रोल खुद करना चाहते थे.
असरानी को जेलर के रोल के लिए चुना गया. जावेद ने उन्हें इस रोल की बारीकियाँ समझाईं. सलीम जावेद ने इस फ़िल्म में डाकुओं की पूरी इमेज ही बदल कर रख दी.
इससे पहले फ़िल्मों के डाकू माँ भवानी की पूजा करते थे, धोती और बड़ी बड़ी पगड़ियाँ पहनते थे और माथे पर चार इंच का टीका लगाते थे. सलीम जावेद ने गब्बर को सेना की वर्दी पहने हुए दिखाया. वीरू और जय गंदी जींस पहने हुए दिखाई दिए.’
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दक्षिण में हुई शोले की शूटिंग
रमेश सिप्पी को चंबल के बीहड़ नहीं पसंद थे. उन्हें एक ऐसी जगह की तलाश थी जहाँ ठाकुर के घर से पूरा गाँव दिखाई दे. रमेश ने इसकी ज़िम्मेदारी आर्ट डायरेक्टर राम येडेकर पर छोड़ी. इससे पहले किसी भी डाकुओं पर आधारित फ़िल्म की शूटिंग दक्षिण में नहीं की गई थी. लोकेशन की तलाश में येडेकर अपनी कार से दक्षिण के लिए निकले. बहुत मशक्कत के बाद उन्होंने बंगलौर से एक घंटे की दूरी पर शोले की शूटिंग के लिए रामनगरम का चुनाव किया.
संगीत निर्देशक के रूप में रमेश सिप्मी ने आर डी बर्मन को चुना. पंचम ने पहले गानों की धुन बनाई. उसके बाद आनंद बख़्शी ने फ़िल्म के गीत लिखे. इस फ़िल्म के सभी बड़े कलाकारों को बंगलौर के अशोका होटल में ठहराया गया था. हर स्टार को एक सुइट और कार दी गई थी. कुछ सालों पहले ही ‘बॉम्बे टू गोवा’ की शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन को दो स्टार होटल में ठहराया गया था. शूटिंग की लोकेशन होटल से एक घंटे दूर थी. सबसे पहले सुबह छह बजे रमेश और सिनेमेटोग्राफ़र दिवेचा शूटिंग के लिए रवाना होते थे. करीब 150 लोग रोज़ बंगलौर से रामनगरम जाया करते थे. चूँकि संजीव कुमार देर से सो कर उठते थे इसलिए उनकी शूटिंग शाम को रखी जाती थी. पिक्टर के सेट पर करीब रोज़ करीब 200 लोगों का खाना बनाया जाता था.
शोले की रिकार्ड कमाई
पाँच सालों तक मिनर्वा थियेटर में लगातार चलने के बाद शोले इसलिए हटाई गई क्योंकि रमेश सिप्पी की अगली फ़िल्म शान रिलीज़ के लिए तैयार थी.
लेकिन 1975 के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में शोले की पूरी तरह से अनदेखी की गई. उसे सिर्फ़ बेस्ट एडिंटिंग का एक पुरस्कार मिला. उस साल अधिक्तर पुरस्कार दीवार को मिले.
लेकिन बॉक्स ऑफ़िस पर शोले का कोई मुक़ाबला नहीं था. शोले ने जहाँ पहली बार रिलीज़ होने पर 35 करोड़ रुपए कमाए. दूसरे नंबर पर रही फ़िल्म जय संतोषी माँ ने करीब 6 करोड़ रुपए कमाए. शोले का ब़ॉक्स ऑफ़िस रिकार्ड अगले 19 सालों तक नहीं टूटा जब 1994 में ‘हम आपके हैं कौन’ ने शोले से ज़्यादा पैसे कमाए. जी पी सिप्पी ने एक इंटरव्यू में बताया कि पूरी दुनिया में शोले को देखने वालों की संख्या भारत की कुल जनसंख्या से अधिक थी.
फ़िल्म में छोटा रोल करने वाले विजू खोटे उसके बाद से 2019 में अपनी मौत तक अपने स्क्रीन नाम ‘कालिया’ से ही पुकारे गए. जब सड़क पर लोग उन्हें पहचान कर ज़ोर से ‘कालिया’ चिल्लाते थे तो उनके बेटे को बहुत बुरा लगता था. तब खोटे ने अपने बेटे को बताया था कि इस नाम की वजह से ही हम अपनी रोटी खा रहे हैं. सांभा का रोल करने वाले मैक्मोहन ने बाद में याद किया, ‘मेरी तो पहचान ही चली गई. अभी भी जब लोग मेरा आटोग्राफ़ लेते हैं और जब मैं अपना नाम मैक्मोहन लिखता हूँ तो वो मेरी तरफ़ आश्चर्य से देखते हैं. वो समझते हैं कि मेरा असली नाम साँभा ही है.’ जब शोले ने डायमंड जुबिली मनाई तो रमेश सिप्पी ने अपने सिनेमेटोग्राफ़र द्वारका दिवेचा को एक फ़ियेट कार भेट की. फ़िल्म के मुख्य कलाकारों को सोने के ब्रेसलेट दिए गए जिसमें एक हीरा जड़ा हुआ था.