फ़ैक्ट चेकिंग वेबसाइट ऑल्ट न्यूज़ के पत्रकार मोहम्मद ज़ुबैर को सोमवार देर रात दिल्ली पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया.
उन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 153 A ओर 295 के तहत गिरफ़्तार किया गया है.
दिल्ली पुलिस ने एक बयान जारी कर कहा है कि सोशल मीडिया मॉनिटरिंग के दौरान एक ट्विटर हैंडल से मिली जानकारी के बाद मोहम्मद ज़ुबैर के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया था.
उस ट्विटर हैंडल ने मोहम्मद ज़ुबैर के एक ट्वीट पर लिखा था कि एक ख़ास धर्म के अपमान के इरादे से उन्होंने तस्वीर पोस्ट की थी. उनके ख़िलाफ़ एक्शन होना चाहिए.
ग़ौरतलब है कि जून में एक इसी से मिलती जुलती एक एफ़आईआर बीजेपी की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के ख़िलाफ़ भी हुई थी, जब उन्होंने पैग़ंबर मोहम्मद के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक टिप्पणी की थी. उस एफ़आईआर में भी आईपीसी की धाराओं 153 A, 295, 505 के तहत मामला दर्ज किया गया था.
अहम बात ये है कि दोनों मामले में एफ़आईआर दर्ज़ भी दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल की आईएफएसओ यूनिट ने की है.
ऐसे में क़ानून के कई जानकार सवाल पूछ रहे हैं कि जब दोनों की एफ़आईआर में एक ही धाराएँ लगी है, तो एक व्यक्ति सलाखों के पीछे और एक सलाखों के बाहर क्यों?
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आईपीसी की दोनों धाराओं को समझने के लिए बीबीसी ने बात की जानी मानी वरिष्ठ वकील और लेखक नित्या रामाकृष्णन से. उन्होंने दोनों धाराओं को आसान भाषा में ऐसे समझाया.
धारा 153 A क्या है?
आईपीसी की धारा 153 A के बारे में समझाते हुए उन्होंने कहा :
“दो अलग-अलग समुदायों के बीच धर्म, जाति, जन्मस्थान, भाषा आदि के आधार पर नफ़रत फैलाने के उद्देश्य से किए गए किसी भी चीज़ (बोल कर या लिखित में या सांकेतिक तौर पर) पर ये धारा लगाई जा सकती है. इसके तहत 3 साल से लेकर 5 साल की सज़ा का प्रावधान है. ये ग़ैर जमानती अपराध की श्रेणी में आता है.
धारा 295 क्या है?
वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.
ड्रामा क्वीन
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आईपीसी की धारा 295 के बारे में नित्या कहती हैं, “किसी धर्म से जुड़े उपासना स्थल को क्षति पहुँचाने, अपमान करने या अपवित्र करने के उद्देश्य से कोई भी क़दम उठाया गया हो तो उस मामले में ये धारा लगाई जा सकती है.
इसमें अधिकतम दो साल की सज़ा है. इसमें जमानत का प्रावधान है.
हालांकि नित्या यहाँ एक और अहम बात जोड़ती हैं.
वो कहतीं हैं, “आईपीसी की कौन सी धारा जमानती है या ग़ैर जमानती है, इसके अलावा एक और कैटेगरी है जिसका ख़्याल रखना चाहिए. अगर किसी मामले में सात साल से कम की सज़ा हो तो गिरफ़्तारी नहीं होनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने अर्नेश कुमार जजमेंट में ये बात कही है. पिछले दो-तीन फैसलों में इसे दोहराया भी है. सर्वोच्च न्यायलय ने ये भी कहा है कि अगर किसी ऐसे मामले में गिरफ़्तारी होती भी है तो वजहें ठोस होनी चाहिए और लिखना चाहिए कि गिरफ़्तारी क्यों हो रही है. साथ ही जिस व्यक्ति के ख़िलाफ़ आरोप है उसको एक नोटिस भी देना चाहिए ताकि वो पूछताछ के लिए बुलाया जा सके और वो जाँच में सहयोग कर सके.”
ऐसे में ये जान लेना ज़रूरी है कि मोहम्मद ज़ुबैर का मामला क्या है और नूपुर शर्मा का मामला क्या है? दोनों में समानताएँ और अंतर क्या है?
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मोहम्मद ज़ुबैर पर आरोप
दिल्ली पुलिस के मुताबिक़ 2018 में मोहम्मद ज़ुबैर ने एक फोटो ट्वीट किया था जिसमें हनीमून होटल का नाम बदल कर एक हिंदू देवता का नाम लिख दिया था.
एक ट्विटर यूज़र ने उस ट्वीट को शेयर करते हुए लिखा कि इससे हिंदू देवता का अपमान हुआ है.
मोहम्मद ज़ुबैर ने अपने ट्वीट में उस फोटो को 2014 से पहले और बाद के शासन काल से जोड़ते हुए एक तरह से तंज कसा था.
वैसे जिस फोटो को मोहम्मद ज़ुबैर ने ट्वीट किया था वो एक हिंदी फिल्म का सीन भी है.
नित्या कहती हैं, “मोहम्मद जु़बैर ने जो ट्वीट किया है, हो सकता है कि वो किसी व्यक्ति विशेष को अच्छा ना लगे, लेकिन धारा 153 A लगाने के लिए और भी बातें साबित करनी होगी, जैसे इसके पीछे का उद्देश्य क्या ऐसा है कि दो समुदायों के बीच शत्रुता पैदा कर सके या आपसी सौहार्द ख़राब हो. केवल किसी व्यक्ति विशेष को किसी कि कोई बात अच्छी नहीं लगी, उस आधार पर 153 A नहीं लगाया जा सकता. ठीक उसी तरह से धारा 295 लगाने पर ये साबित करना होगा कि किस उपासना स्थल को क्षति पहुँचाने का काम किया है. “
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नूपुर शर्मा पर आरोप
बीजेपी की पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने 26 मई को एक टीवी कार्यक्रम में पैग़ंबर मोहम्मद के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक टिप्पणी की.
सोशल मीडिया पर नूपुर शर्मा का काफ़ी विरोध किया गया, उन्हें धमकियां दी गयीं. कानपुर में दो पक्षों के बीच सांप्रदायिक हिंसा हुई जिसमें कई लोगों को गिरफ़्तार किया गया है.
एक दर्जन से अधिक मुस्लिम देशों ने इस मुद्दे पर विरोध दर्ज कराया, क़तर और ईरान ने भारतीय राजदूत को तलब किया. क़तर ने इस मुद्दे पर भारत से माफ़ी मांगने की मांग की.
बीजेपी ने नूपुर शर्मा को पार्टी से निलंबित किया और नवीन जिंदल को पार्टी से निष्कासित किया. दिल्ली पुलिस ने नूपुर शर्मा को मिलती धमकियों के तहत उन्हें सुरक्षा व्यवस्था दी. दिल्ली पुलिस ने नूपुर शर्मा के ख़िलाफ़ आईपीसी की धाराओं 153, 295, 505 के तहत मामला दर्ज किया.
लेकिन नूपुर शर्मा को अब तक गिरफ़्तार नहीं किया गया.
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धाराएं एक, तो कार्रवाई अलग क्यों? दिल्ली पुलिस का जवाब
आख़िर दोनों मामले में धाराएं एक सी हैं और एक मामले में गिरफ़्तारी हुई है और नूपुर शर्मा में नहीं ऐसा क्यों ?
इस सवाल पर नित्या कहती हैं, “ये सवाल दिल्ली पुलिस से मैं भी पूछना चाहती हूँ. ये सवाल आपको पुलिस से पूछना चाहिए.”
बीबीसी ने दिल्ली पुलिस के डीसीपी आईएफ़एसओ केपीएस मलहोत्रा से उनका पक्ष जानने के लिए कई बार फोन किया. उन्ही की यूनिट ने दोनों मामले दर्ज़ किए हैं. लेकिन उन्होंने समय देकर भी बीबीसी से बात नहीं की.
हालांकि समाचार एजेंसी एएनआई को दिए इंटरव्यू में उन्होंने इसी से मिलते जुलते सवाल पर कहा, ” साल 2020 में भी मोहम्मद ज़ुबैर पर एक केस रजिस्टर हुआ था. आज 2022 है. उसमें एक्शन नहीं हुआ. तो ये कहना कि किसी एक व्यक्ति पर केस हुआ उसमें एक्शन नहीं हुआ और इसमें हुआ – ये ग़लत है. ये सवाल तब तो नहीं आया जब 2020 वाले मामले में जो हमने पाया उसी के मुताबिक़ कोर्ट में स्टेटस रिपोर्ट दिया. ये पिक एंड चूज़ नहीं हैं, जो इनवेस्टिगेशन में सामने आ रहा है, उस पर एक्शन हो रहा है.”
हालांकि एक सच्चाई ये भी है कि 2020 वाले मामले में मोहम्मद ज़ुबैर को हाईकोर्ट ने गिरफ़्तारी से सुरक्षा दे रखी है.
डीसीपी केपीएस मलहोत्रा ने ये भी कहा कि आपत्तिजनक ट्वीट की वजह से ट्विटर पर नफ़रत भरे बयानों का तूफ़ान खड़ा हुआ जो कि सांप्रदायिक सौहार्द के लिए हानिकारक है. इस मामले में डिवाइस और इरादा अहम था. मोहम्मद ज़ुबैर इन दोनों मुद्दों पर बचते नज़र आए. फोन को फॉर्मेट कर दिया गया था. यही वजह गिरफ़्तारी का आधार बनी.
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मोहम्मद ज़ुबैर की गिरफ़्तारी प्रक्रिया पर उठते सवाल
मोहम्मद ज़ुबैर और नूपुर शर्मा मामले में एक और तार भी जुड़ता है.
नूपुर शर्मा ने टीवी चैनल पर बयान 26 मई को दिया था. मामले ने तूल मोहम्मद ज़ुबैर के ट्वीट के बाद पकड़ा.
2018 के जिस ट्वीट पर उन्हें 2022 में गिरफ़्तार किया गया है वो एफ़आईआर भी 20 जून 2022 को दर्ज़ की गई है. यानी नूपुर शर्मा प्रकरण के बाद.
मोहम्मद ज़ुबैर को किसी दूसरे मामले में पूछताछ के लिए बुलाया गया था और गिरफ़्तारी किसी और मामले में की गई है.
मोहम्मद ज़ुबैर की गिरफ़्तारी की पूरी प्रक्रिया पर भी ऑल्ट न्यूज़ के संस्थापक ने ट्वीट कर सवाल भी उठाए हैं.
उन्होंने लिखा है, “2020 के एक मामले में दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने सोमवार को मोहम्मद ज़ुबैर को पूछताछ के लिए बुलाया था. इस मामले में हाई कोर्ट ने उन्हें गिरफ़्तारी से उन्हें सुरक्षा दे रखी थी. लेकिन सोमवार शाम 06.45 बजे हमे बताया गया कि उन्हें एक दूसरे एफ़आईआर के बारे में गिरफ़्तार किया गया है. क़ानूनी प्रावधानों के अनुसार उन्हें जिन धाराओं के तहत गिरफ़्तार किया गया है उसके अनुसार एफ़आईआर की कॉपी हमें देना अनिवार्य होता है. लेकिन बार बार गुज़ारिश करने के बाद भी हमें एफ़आईआर की कॉपी नहीं दी गई.”
क्या ज़ुबैर की गिरफ़्तारी में प्रक्रिया का उल्लंघन किया गया है? इस सवाल के जवाब में नैल्सार यूनिवर्सिटी ऑफ़ लॉ के वाइस चांसलर डॉक्टर फ़ैजान मुस्तफ़ा कहते हैं, “ज़ुबैर के मामले में पुलिस ने शायद पहले नोटिस नहीं दिया. इस वजह से सवाल उठ रहे हैं. अगर एफ़आईआर में केवल 153 A और 295 धारा ही लगी है तो पुलिस पहले नोटिस भेजती तो बेहतर होता. पुलिस को गिरफ़्तारी से भी बचना चाहिए. सात साल से कम सज़ा वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट का ऐसा पहले का फैसला है. जब तक इस बात की आशंका नहीं हो कि सबूतों से छेड़छाड़ हो सकती है या अभियुक्त फरार हो सकता है, गिरफ़्तारी से बचना चाहिए था.”
एफ़आईआर की कॉपी नहीं दिए जाने के आरोप पर फ़ैजान मुस्तफा कहते हैं, “अगर पुलिस को लगता है कि एफ़आईआर अपलोड करने से अभियुक्त पर और ख़तरा हो सकता है तो ऐसे में पुलिस द्वारा एफ़आईआर अपलोड ना करना बेहतर फ़ैसला है. लेकिन चाहे अभियुक्त हों या उनके वकील, एफ़आईआर की कॉपी उन्हें देना ज़रूरी है, नहीं तो अभियुक्त और उनके वकील अपना पक्ष किस आधार पर तैयार करेंगे.”
एक सवाल ये भी उठ रहा है कि 2018 के ट्वीट पर कार्रवाई 2022 में क्यों हो रही है? फ़ैजान मुस्तफ़ा कहते हैं, ” क्रिमिनल लॉ में क्राइम जब नोटिस में आए, तब ही उस मामले में कार्रवाई की जा सकती है.”
दिल्ली पुलिस के डीसीपी आईएफ़एसओ केपीएस मलहोत्रा ने भी कहा कि वर्चुअल दुनिया में जब भी मामला एम्पलिफाई होता है ( तूल पकड़ता है) तो कार्रवाई की जाती है. इस बीच इस तरह के मामले बढ़ रहे हैं.