फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी- “इतिहास, मजहब और आदमी”

उस दिन दीवाली थी- लक्ष्मी के शुभागमन का एकमात्र दिन. सुबह उठते ही मनमोहन, मां से लड़कर “कैम्प” में चला गया था. आस-पास गांवों में जोरों से हैजा और मलेरिया फैला हुआ था.

भूख और रोग का संयुक्त मोर्चा. प्रत्येक गांव से रोज आठ-दस लाशें उठ जाती थीं. बहुत ‘लिखा-पढ़ी’ खुशामद और लड़-झगड़कर, मनमोहन एक “मेडिकल कैम्प” ला सका था. वह स्वयं डॉक्टरों के साथ, सुबह से शाम तक गांवों में घूम-धूमकर दवा और पथ्य बांटता फिरता था.

दोपहर को वह घर लौटा.

नौकर-नौकरानियों के साथ, मां सफाई के काम में लगी हुई थी. केले के पौधे गाड़े जा रहे थे, कन्दीलें बनाई जा रही थीं, रंगीन कागजों की झंड़ियां सजाई जा रही थीं. और इन सजावटों को खड़ी देख रही थी, गांव के दर्जनों नग्न-रुग्ण भूखे लड़के- लड़कियों की भीड़. वृद्ध नौकर रामटहल बार-बार उन लोगों को अकारण ही डॉट बता देता था और प्रत्येक डॉट पर यह एक कदम पीछे हट जाती थी.

मनमोहन बरामदे में पड़ी हुई एक कुर्सी पर धम्म से जा बैठा.

हवा में चूने और वार्निश की गन्ध घुल-मिल गई थी. बगल के एक कमरे में मां नौकरों से डटकर काम ले रही थी और साथ-साथ बड़बड़ा रही थी- “तुम क्रिस्तान हो जाओ, घर में मुर्गे-मुर्गियां पकवाओ, मुसलमानों के साथ खाओ, मैं कुछ नहीं बोलती. तुम देवी-देवताओं की खिल्ली उड़ाते हो, मैं नहीं रोकती. लेकिन जब तुम मेरे धरम-करम में अड़ंगा डालोगे, मां लक्ष्मी की पूजा नहीं करने दोगे-तो इसे मैं कैसे बर्दाश्त करूं! बाप का धरम था, तुम्हें पढ़ाया-लिखाया, तुम्हारे लिए जमीन-जायदाद छोड़कर बेचारे सिधार गए. पढ़-लिखकर पंडित हुए, नहीं कमाते हो तो हर्ज नहीं, लेकिन बाप की इज्जत, घर की मर्यादा को तो कम-से-कम निभाओ. सो नहीं, बैठे-बिठाए आवारों के साथ हल्ला, धरम छोड़कर अधरम की बातें और किसान-मजदूर राज्य… हो चुका किसान-मजदूर राज्य!”

मनमोहन बरामदे से सबकुछ सुन रहा था. उसने देखा कि मां का क्रोध अब तक भी शान्त नहीं हुआ है. वह उठा और अपने कमरे में दाखिल हुआ. वह थोड़ा लेटना चाहता था किन्तु कमरे में आकर उसने देखा कि पलंग पर एक अपरिचित वृद्ध आधिपत्य जमाए बैठा है. वह उसकी ओर गौर से देखकर एक कुर्सी पर बैठ गया.

वृद्ध ने तपाक से फर्श पर खैनी थूकते हुए, सड़ी हुई दन्त-पंक्तियां निकालकर कहा, “अहा हा! बबुआजी, मां लक्ष्मी कल्याण करें. प्रातःकाल से कहां रहे बबुआ जी!”

मनमोहन ने अन्यमनस्क होकर मिनमिना दिया–“जरा गांवों में घूम रहा था.”

“अहा हा!” वृद्ध पुनः थूकता हुआ बोला-“ठीक है, ठीक है, परोपकार तो महा धर्म है बबुआजी! किन्तु देवी-देवताओं का अनादर, मां लक्ष्मी का अपमान आदि तो सर्वथा धर्म-विरुद्ध आचरण है. अंग्रेजी पठन-पाठन का…”

“आप ?…आप कौन हैं?”-मनमोहन ने टोका.

अहा, हा! अपने कुल-पुरोहित पंडित दिनमनि पाठक को नहीं पहचानते बबुआजी?

“आप ही पुरोहित दिनमनि पाठक हैं?” मनमोहन ने भौं सिकोड़ते हुए पूछा. पंडितजी पुनः एक बार धूककर, जोर-जोर से हंसने लगे. मनमोहन को सिर्फ दो घंटे पहले की बात याद आ गई. महा कंगाल चेथरु मंडल रो-रोकर कह रहा था कि पंडित दिनमनि ने उसे लूट लिया. उसके एकलौते जवान बेटे के श्राद्ध में 5 रुपए दक्षिणा तो लिया ही, जबर्दस्ती एक गाय भी खोलकर ले गया. स्त्री के श्राद्ध में अंगूठे का निशान लेकर जी नहीं भरा तो छप्पर पर से कोहड़े, शाक-भाजी भी नोपाकर ले गया.

मनमोहन ने सहसा पूछ लिया-“पंडितजी, क्या आप कह सकते हैं, मां ने जो यह नई जमीन ली है उसके खरीदने में आपका कितना हाथ है?”

“बबुआजी! मैंने ही तो सबकुछ किया”-वृद्ध मनमोहन के भावों को नहीं समझ सका. वह प्रसन्‍न होकर कहता गया-“विधवा तो जमीन बेचने के लिए राजी ही नहीं हो रही थी. बस मैंने धरम की वह लकड़ी फेरी कि सारी अकड़ जाती रही.”

और कैलाशपति के विरुद्ध झूठी गवाही भी आपने ही दी थी?

अरे क्या पूछते हो बबुआजी! तुम्हें तो सब मालूम है. नहीं रहे मालिक मेरे, वरना सारी लक्ष्मीपुर की जमींदारी अपनी होकर रहती. मैं तो सेवक हूं, बहूजी की आज्ञा पर…

और आप ग्राम हिन्दू-सभा के सभापति भी हैं?

अहा हा! तुम तो सब जानते हो बबुआजी. मालिक ने मुझे जो कुछ भी बनाया, वह हूं. अब तुम जमींदारी का भार तो संभालो

अहा हा! मां दुर्ग!

“अब आप जा सकते हैं.”-मनमोहन की त्योरियां बदल गईं. वृद्ध कुछ बोलना ही चाहता था कि मनमोहन ने कहा-“अब फिर दर्शन देने का कष्ट नहीं कीजिएगा.”

वृद्ध ने अपनी गंदी झोली उठाई और राह पकड़ी.

फर्श पर मक्खियां भिनभिना रही थीं. उसकी सफाई के लिए मनमोहन ने नौकर को आवाज दी. अचानक मां ने कमरे में प्रवेश किया. क्रोध से वह जल-सी रही थी. उसके नथुने फूले हुए थे और वह जोर-जोर से साँस ले रही थी. बोली-“अब मुझे क्या कहते हो, कहो? मां लक्ष्मी का अपमान करके जी नहीं भरा तो बेचारे ब्राह्मण को गालियां देकर निकाल बाहर किया. अब मुझे गला घोंटकर मार डालो तो स्वर्ग में तुम्हारे पिता को शान्ति मिले. हे भगवान, मेरे ही कोख से ऐसे अधरमी को जन्म लेना था.”

वह रो पड़ी. मनमोहन पत्थर की तरह बैठा रहा.

मां आंचल से आंख पोंछती हुई चली गई. मनमोहन -जरा लेटना चाहता था लेकिन पलंग की ओर निगाह उठाकर वह बैठा रहा. कुछ देर के बाद वह उठा और टेबिल पर कोई किताब ढूंढ़ने लगा.

उस दिन भंडारघर की सफाई के सिलसिले में धननू की मां ने एक अलभ्य पुस्तक का जीर्णोद्धार किया था और बड़े उत्साह से मनमोहन के टेबिल पर रख गई थी. टेबिल पर तीन-चार मोटी-मोटी किताबें, जिनके नाम सुनहले अक्षरों में लिखे हुए, चार-पांच छोटी और पतली, जिनके “गेट-अप” इतने अच्छे थे कि बरबस पढ़ने को जी मचल पड़े. अंग्रेजी और हिंदी की कुछ मासिक पत्रिकाएं और रंगीन पत्थरों के नीचे दबी हुई रंग-बिरंगी चिट्ठयों के बीच वह गन्दी और पुरानी किताब आंखों में खटकी. मनमोहन ने उसे उठाकर देखा- “भारतवर्ष का इतिहास! वह किंचित मुस्कुराया और उसे एक ओर फेंक दिया, फिर कुछ सोचकर उसे उठा लाया और आरामकुर्सी पर लेट गया.

आज मनमोहन एम.ए. है. विश्वविद्यालय ने, जिस वर्ष उसे इतिहास में प्रथम श्रेणी एम.ए. घोषित किया उसी वर्ष भारत सरकार ने उसे शान्ति का शत्रु कहकर नजरबन्द भी बना लिया था.

वह मुस्कुराता हुआ पन्‍ना उलटता रहा. स्थान-स्थान पर पंक्तियां ‘अंडर-लाइन’ की हुई थीं, परीक्षा में पूछे जाने की सम्भावना प्रकट की गई थी…पानीपत की लड़ाई…ताजमहल की तस्वीर, औरंगजेब, छत्रपति शिवाजी…बहादुरशाह…अंग्रेजी शासनकाल…

वह रुक गया, राबर्ट क्लाइव की बगल में लिखा हुआ था Most Important… क्लाइव बड़ा बदमाश था.

वह स्कूल की खिड़कियों और बेंचों को तोड़-फोड़ डालता था.

मनमोहन को याद आया कि सूरज प्रसाद को भी मास्टर साहब राबर्ट क्लाइव कहते थे. बड़ा शैतान था सूरज भी, स्कूल भर में सबसे बदमाश!…यह सब दिन वैसा ही रहा. 1942 के आन्दोलन में उसे फांसी हो गई. आह! सूरज नहीं रहा. कितना बड़ा संगठनकर्ता था वह, कितना निडर! आंधी और तूफानों में भी हंसनेवाला! सुना कि फांसी के दिन वह रोया था. क्‍या वह रोया होगा?…शारदा बिना मां-बाप की बच्ची भूखों मर गई…देश के कितने सूरज अस्त हो गए, कितनी शारदा भूख से बिलख-बिलखकर मर गई होंगी.

पन्‍ना उलटा-सिराजुद्दौला. सिराजुद्दौला सिर्फ 20 वर्ष की उम्र में नवाब हुए. मनमोहन ने अपनी उम्र को जोड़ा 25 वर्ष. एक बार मनमोहन ने सिराजुद्दौला पर कविता लिखी थी- “प्यारे सिराज! प्यारे सिराज! ज्योत्स्ना को वह कविता बड़ी अच्छी लगती थी. वह बार-बार यही कविता सुनना चाहती थी. ज्योत्स्ना कम्यूनिस्ट पार्टी में काम करती है, अब सुना है, 1942 आन्दोलन के समय वह रेडियो पर ‘जन संगीत’ गाया करती-ट्रामों में आग लगानेवाले गुंडे हैं, बदमाश हैं, और क्रान्ति नहीं है, यह क्रान्ति नहीं है…दुश्मन है द्वार पर… मनमोहन ने किताब पर दृष्टि गड़ाई…इस अमानुषिक बध को ब्लेकहोल की घटना कहते हैं.

वह मुस्कुराया. बहुत देर तक मुस्कुराता रहा. अचानक रामटहल आकर खड़ा हो गया.

क्या है?

पूजा शुरू हो गई.

तब?

आप नहीं चलिएगा?

नहीं.

रामटहल चला गया.

मनमोहन पुनः किताब के पन्‍नों में वापस हो गया. लार्ड कार्नवालिस…जमींदारी प्रथा का जन्म…जमींदारी प्रथा आज मिट रही है.

आज भी वे सचेष्ट हैं.

उन्होंने राष्ट्र सेवक दल नामक एक संस्था भी कायम की है. मुस्लिम नेशनल गार्ड और यह राष्ट्र सेवक दल मुस्लिम और हिन्दू पूंजीपतियों की डूबती हुई नैया को बचा सकेगा?…इस गांव में भी तो काली टोपी लगाए शाम को कुछ लड़के लाठी घुमाया करते थे. आज गांव में महामारी फैली हुई है. कहां हैं वे?…कहां हैं थापटजी?

उसने पन्ने पर निगाह गड़ाकर पूछा, “भूखे, बीमार मुल्क में धर्म के नाम पर लड़ाइयां होती हैं अथवा रोटी के लिए? रोटी के लिए नोवाखाली और बिहार के गांवों ने कितनी बार सम्मिलित कोशिश की?…क्या ‘कालीवर्दी का’ राज होकर ही रहेगा?”

दीवाली की सन्ध्या न जाने कब उतर गई. कमरे के अन्धकार में बैठा मनमोहन अपने-आपसे पूछ रहा था-है हिम्मत? इन बिगड़ते हुए इतिहास के पन्नों को फाड़कर जलाना होगा.

असंख्य दीपों की टोली झिलमिला उठी, केले के पौधों में पिरोई हुई मोमबत्तियां जलने लगीं-गलने लगीं. पटाखे, फुलझड़ी, आतिशबाजी! आंगन में एक साथ, घड़ियाल-शंख और घंटी घनघना उठी. आरती हो रही है. बड़े घर की दीवाली देखने के लिए, प्रसाद लेने के लिए गांव-भर की जनता टूट पड़ी. भूखी, बीमार-नग्न जनता. क्या प्रसाद से भूख मिट सकती है

श्रीलक्ष्मी मैया की जय…! जयध्वनि के साथ पूजा शेष हुई. प्रसाद वितरण कोलाहल!

मनमोहन के कानों के पास गूंज रहा था- श्रीलक्ष्मी मैया की जय? उसने शब्दों को तोड़ना शुरू किया-

श्रीलक्ष्मी मैया की जय !

व्यक्तिगत सम्पत्ति की जय!

लूट, बेईमानी, शोषण की जय!

पाकिस्तान की जय!

लड़ाई की जय!

फासिज्म की जय!

और यह God Save The king इस प्रार्थना के बावजूद भी सम्राट मर जाता है तो “गॉड सेव दि किंग” का मतलब हुआ…ईश्वर, गुलामी, गरीबी, भूख, मौत, जुल्म, दंगे, लूट, कत्लेआम-सभी को कायम रखें.

वह बरामदे पर आकर खड़ा हो गया. गांव के कुछ रोगमुक्त नौजवान, सामने के मैदान में ‘मशाल’ लीला मना रहे थे. हाथ में बड़े-बड़े जलते हुए मशाल लेकर वे दौड़ पड़े थे. शोरगुल मचा रहे थे. दीवाली की यह शेष विधि उसे बड़ी अच्छी लगी. घोर अन्धकार में लपलपाते हुए मशाल-लाल-लाल!

धीरे-धीरे मशालों की संख्या बढ़ती गई, शोरगुल में तेजी आती गई. मनमोहन मुस्कुरा पड़ा. उसके पांव आप ही आगे बढ़ने लगे. उसने उलटकर एक बार दीपों की ओर देखा-कतार में सजे-सजाए हजारों दीप जगमग-जगमग कर रहे थे. जगमग-जगमग- श्रृंगार रस की कविता-सी, रुनझुन-जैसे खुमारी से ऊंघती हुई महफिल में वेश्या नाच रही हो.

उसने मशालों की ओर देखा-एक तांडव-नृत्य-सा, मुक्त घर-सा. उसने अपने नसों में गर्म खून का अनुभव किया.

मनमोहन चल पड़ा रोगग्रस्त गांवों की ओर, और उसके घर से एक मील दूर थे वे गांव-जहां गिध, गीदड़-कुत्ते महीनों से त्योहार मना रहे थे. उन गांवों के बीच सघन आम के बाग में मेडिकल कैम्प था. दूर से ही रोशनी दिखाई पड़ती है. उसने गांव में प्रवेश किया.

गांव का यह प्रवेश भाग शान्त था, शान्त यानी-इस अंचल की आबादी, एकदम खत्म हो चुकी थी.

गांव के मध्य भाग में कुछ कुत्ते आपस में मिलकर डरावनी आवाज में रो रहे थे. वह सिहर पड़ा, किन्तु चलता गया. एक अंधेरी और गन्दी गली में वह ठिठक पड़ा- सफेद छाया भागकर अंधेरे में जल्दी-जल्दी छिप गई. पहले तो वह डरा, लेकिन तुरन्त ही संभल गया. उसने पहचान लिया. डॉ. सिन्हा और मिस चटर्जी-मेडिकल स्टुडेंट. उसने चलते-चलते सोचा-दोनों एक ही बात है, अस्थिपंजरों के गांव में फुलझड़ियां जलाकर दीवाली मनाना और लाशों पर खड़ा होकर प्रेमालिंगन करना, दोनों एक ही बात है.

वह गांव के मध्य भाग में आ गया. शुरू में ही हमीद मियां का घर था. गांव-भर का चचा हमीद. हमीद के आंगन में जाकर उसने पुकारा-“रुकिया! रुकिया!”

“हाय रे! अरे बाप! आओ भैया!”-एक झोंपड़ी से कांपती आवाज आई.

“अरे! तू भी पड़ गई क्या? हमीद चाचा कैसे हैं और चाची!” सिर झुकाकर अन्दर चला गया. रुकिया जमीन पर चीथड़ों में लिपटी हुई कांप रही थी. मनमोहन ने जलती हुई कुप्पी उठाई और दूसरी झोंपड़ी में जाकर देखा-हमीद की लाश ऐंठ गई थी और पास ही बुढ़िया भी मुंह फाड़े पड़ी थी. वह एक लम्बी सांस छोड़कर लौट आया जमीन पर कुप्पी रखकर बोला-“घबराओ मत रुकिया. मैं यहीं हूं. डॉक्टर आए थे!”

“भाई जी! बहुत जोरों की सर्दी…जाड़ा!”

मनमोहन जमीन पर बैठ गया और सोचने लगा कि वह क्या करे! उसने झोंपड़ी में एक बार निगाह दौड़ाई-चारों ओर गन्दगी फैली हुई थी. कपड़ों के नाम पर दो-चार चीथड़े इधर-उधर फेंके हुए थे. तीन-चार मिट्टी के पुराने बर्तन-सर्दी, सिल, नमी और बदबू!

“भैया! मुझे दबा रक्खो, मेरी हड़िडयां अलग हो रही हैं.”

मनमोहन ने उसकी पीठ पर अपने को डाल दिया. गन्दे कपड़ों की गन्ध से उसका सिर चक्कर खाने लगा…आह…! कितनी स्वस्थ और तगड़ी लड़की थी वह! मेहनत से कभी भागती नहीं थी. गांव-भर की सेवा की है इसने. कैम्प में आई हुई कॉलेज की लड़कियों को इसने निःस्वार्थ सेवा का सबक सिखा दिया है.

इसकी मांसल बांहें, गठा हुआ शरीर और उसने अपने शरीर को जरा खींचा कि रुकिया कराह उठी-“भाई जी! मैं मर जाऊंगी, मत जाओ. भाई जी!” वह फूट-फूटकर रो पड़ी. मनमोहन ने पुनः उसे दबाया-“डरो मत, मैं कहीं नहीं जाता. मलेरिया है, सुई पड़ते ही अच्छी हो जाएगी.”

वह बैठा रहा. रुकिया कराहती थी, पानी मांगती थी. पानी पीकर कै करती थी. फिर रोने लगती थी. मनमोहन उसकी तीमारदारी कर रहा था…आंगन में जमीन सूंघते हुए एक सियार ने प्रवेश किया. रुकिया की कराह पर उसने डरकर झोंपड़ी की ओर देखा.

उसकी आंखें अंधेरे में चमक उठीं. वह बहुत देर तक देखता रहा. मनमोहन को लगा जैसे सियार आश्चर्यित होकर देख रहा हो, क्योंकि रुकिया ने उसे दोनों हाथों से जकड़ रखा था.