अधिकतर लोग अपनी नाकामियों का ज़िम्मेदार अपनी ज़िंदगी और किस्मत को ठहराते हैं. लोगों की हमेशा शिकायत रहती है कि ज़िंदगी ने उन्हें मौका नहीं दिया, मौका मिला तो किस्मत ने धोखा दे दिया, जबकि सच बात तो ये है कि मौका और धोखा ये दोनों चीजें हम खुद कमाते हैं. ज़िंदगी हमेशा आपकी बेहतरी के लिए एक ना एक रास्ता खुला रखती है.
ठीक उसी तरह जिस तरह दिहाड़ी के 15 रुपये कमाने वाले इस मजदूर ने अपने सपने को सच किया और बन बैठा 1600 करोड़ की कंपनी का मालिक. Ess Dee Aluminium Pvt Ltd के संस्थापक सुदीप दत्ता ने अपने जीवन की शुरुआत एक मजदूर के रूप में की और देखते ही देखते अपनी मेहनत और समझ बूझ से एक बड़ी कंपनी के मालिक बन बैठे.
देखते ही देखते बिगड़ गए हालात
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पश्चिमी बंगाल, दुर्गापुर के एक सामान्य परिवार में जन्में सुदीप दत्ता के पिता एक भारतीय सैनिक थे. उन्होंने 1971 में भारत-पाक जंग में हिस्सा लिया था. इसी जंग में इनके पिता को गोली लगी और वह हमेशा के लिए पैरालाइज्ड हो गए. पिता के अपंग होने के बाद सुदीप के परिवार की जिम्मेदारी उनके बड़े भाई के कंधों पर आ गई. भाग्य ने कुछ ही समय के भीतर सुदीप के घर की स्थिति को जड़ से हिला कर रख दिया. बड़े भाई ने जैसे तैसे घर की जिम्मेदारी संभाल ली. वह खुद कमाते और घर चलाने के साथ साथ सुदीप को भी पढ़ाते. वक्त तो बुरा था लेकिन जैसे तैसे कट रहा था लेकिन स्थिति अभी और खराब होनी थी. सुदीप के बड़े भाई अचानक से बीमार पड़ गए. बीमारी भी ऐसी कि घटने की बजाए रोज रोज बढ़ती रही. घर की स्थिति ऐसी थी कि इनके भाई को उचित इलाज तक ना मिल सका. आखिरकार इस बीमारी ने इनके बड़े भाई को लील ही लिया. नियति ने यहीं दम नहीं लिया, अभी सुदीप के परिवार को किस्मत की एक और मार झेलनी थी. सुदीप के पिता अपने बड़े बेटे की मौत का सदमा झेल नहीं पाए और उनके जाने के कुछ दिन बाद ही उन्होंने अपने प्राण भी त्याग दिए.
आपदा ने दिया एक करोड़पति को जन्म
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बड़े भाई और पिता की जब मौत हुई उस समय सुदीप 16-17 साल के थे. पढ़ाई के नाम पर इनके पास बारहवीं पास का सर्टिफिकेट मात्र था. समस्या ये थी कि परिवार में अभी 4 भाई बहन तथा मां थी जिसकी जिम्मेदारी अब सुदीप को उठानी थी. वक्त की मार ने सुदीप को उम्र से पहले ही बड़ा बना दिया था. जिम्मेदारी तो कंधों पर आ गई थी लेकिन उन्हें ये बिलकुल नहीं पता था कि वह इसे निभाएंगे कैसे. इस बीच उनके मन में वेटर का काम करने या रिक्शा चलाने जैसे खयाल भी आए लेकिन उन्हें क्या पता था कि घर पर आई इस आपदा के बाद किस्मत उनके लिए करोड़पति बनने का रास्ता तैयार कर रही है. यह रास्ता उन्हें तब दिखा जब उनके दोस्तों ने उन्हें अमिताभ बच्चन का उदाहरण देते हुए मुंबई जाने की सलाह दी. चूंकि सुदीप पहले से ही अमिताभ बच्चन की सफलता की कहानी से प्रेरित थे ऊपर से दोस्तों की दी हिम्मत ने उन्हें बल दिया. इसके बाद सुदीप लाखों युवाओं की तरह अपनी किस्मत आजमाने मायानगरी मुंबई के लिए रवाना हुए.
मायानगरी के छलावे ने बना दिया मज़दूर
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सबकी तरह सुदीप भी आंखों में सुनहरे सपने लिए मुंबई पहुंचे थे लेकिन इस मायानगरी के छलावे ने उनके सपने सच करने के बदले उन्हें मज़दूर बना दिया. हालांकि मुंबई के बारे में यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि ये शहर हर इंसान को पहले परखता है और जो इसके इम्तेहान में पास हो जाता, उसे ये शहर इतना देता है कि उससे संभाला नहीं जाता. शायद ये मुंबई सुदीप को भी परख रही थी. 1988 में सुदीप ने अपने कमाने की शुरुआत एक कारखाना मजदूर के रूप में की. 12 लोगों की टीम के साथ वह एक करखाने में सामानों की पैकिंग, लोडिंग और डिलीवरी का काम करते थे. इसके बदले इन्हें दिन के मात्र 15 रुपये के हिसाब से मजदूरी मिलती थी. करोड़ों की संपत्ति बनाने वाले सुदीप को अपने शुरुआती दिनों में एक ऐसे छोटे से कमरे में रहना पड़ता था जहां पहले से ही 20 लोगों का बोरिया बिस्तरा लगा हुआ था. सुदीप का रूम मीरा रोड पर था और इन्हें काम के लिए जोगेश्वरी जाना पड़ता था. इस बीच का फासला 20 किमी था. ट्रांसपोर्ट का खर्चा बच सके इसलिए सुदीप हर रोज रूम से पैदल ही काम पर जाते और आते. इस तरह वह रोज 40 किमी का सफर पैदल तय करते थे.
मालिक को हुए नुकसान ने बदल दी किस्मत
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इस करखाने में पैकिंग का काम करते हुए सुदीप की ज़िंदगी के 2-3 साल गुजर चके थे. इतने वक्त में मुंबई शहर ने सुदीप को हर तरह से परख लिया था और अब समय था सपनों की उड़ान भरने का. सच ही कहते हैं एक का नुकसान दूसरे का फायदा बन जाता है और सुदीप को ये फायदा तब दिखा जब 1991 में कारखाने के मालिक को भारी नुकसान उठाना पड़ा. नौबत ये आ गई कि मालिक ने कारखाने को बंद करने का फैसला कर लिया. पिछले दो तीन साल से सुदीप केवल पसीना बहा कर प्रतिदिन 15 रुपये की देहाड़ी ही नहीं कमा रहे थे बल्कि इसके साथ ही वह इस धंधे की बारीकियों और इसे चलाने की प्रक्रिया को भी समझना रहे थे. यही कारण रहा कि जब उनकी कंपनी के मालिक ने इसे बेचने का मन बनाया तो सुदीप ने इस डूबती हुई कंपनी में अपना फायदा खोज लिया. हालांकि सुदीप आर्थिक रूप से इतने मजबूत नहीं थे कि इस कंपनी को खरीद सकते लेकिन इसके बावजूद वह इस मौके को हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे.
यही वजह रही कि उन्होंने अपनी सारी बचत और अपने दोस्तों से उधार लेकर कुल 16000 रुपये इकट्ठा किए. 16000 रुपयों से किसी कंपनी को खरीदना, ये किसी मजाक जैसा था लेकिन जब इंसान जुनून से भरा हो तब उसे हर तरफ संभवना ही दिखती है. सुदीप जानते थे कि कंपनी के मालिक को कंपनी बंद करने पर कुछ नहीं मिलेगा, ऐसे में अगर उन्हें इसके बदले कुछ रुपये मिल रहे हों तो शायद वह इस डील के बारे में सोच लें. यही सोचकर वह कंपनी खरीदने के मकसद से मालिक के पास पहुंचे. वही हुआ जो सुदीप ने सोचा था, मालिक कंपनी बेचने को तैयार हो गया लेकिन इसके साथ ही उसने एक शर्त रखी और वो शर्त ये थी कि सुदीप अगले दो साल तक उस फैक्ट्री से होने वाला सारा मुनाफा मालिक को देंगे. सुदीप को किसी भी हाल में ये कंपनी चाहिए थी, उन्हें खुद पर इस बात का यकीन कि वह कंपनी से अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं. यही सोच कर सुदीप ने शर्त मान ली और उस कंपनी के मालिक बन गए, जिसमें वह मजदूरी किया करते थे.
राह नहीं थी आसान
यह कहने और सुनने में आसान लगता है कि एक मजदूर ने कंपनी खरीदी और उसका मालिक बन गया जबकि असलियत इससे बहुत अलग होती है. सुदीप भी अभी तक केवल कागजों पर ही कंपनी के मालिक बने थे. इसके अलावा उनकी पारिवारिक समस्याओं तथा कंपनी के नाम पर लिए कर्जे ने उन्हें उलझा दिया था. दूसरी तरफ उन दिनों एल्यूमीनियम पैकेजिंग व्यापार का कठिन दौर चल रहा था. मार्केट में केवल जिंदल लिमिटेड और इंडिया फोइल जैसी बड़ी कंपनियों का ही बोलबाला था. समस्याएं बहुत थीं लेकिन सुदीप हार मानने वालों में से नहीं थे. यहां से वापस लौटने का उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा था. यही वो दौर था जब मार्केट में लचीली पैकेजिंग की मांग बढ़ने लगी. सुदीप ने इस मौके का फायदा उठाया और सबसे अच्छी पैकेजिंग देते हुए धीरे धीरे अपनी मार्केट बनाने लगे. सुदीप ने खूब मेहनत और रिसर्च की, वह अलग अलग कंपनियों में जा कर उनके प्रोडक्ट देखते और उससे अपने प्रोडक्ट की तुलना करते. ये उनकी मेहनत ही थी जिससे उन्हें सन फार्मा, सिपला, और नेस्ले जैसी बड़ी कंपनियों से भी ऑर्डर मिलने लगे.
चला प्रतिस्पर्धा का दौर
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सुदीप सफलता के शिखर तक पहुंचे ही थे कि उन्हें एक जबरदस्त प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा. यही वो समय था जब अनिल अग्रवाल अपनी कंपनी वेदांता के साथ पैकेजिंग व्यापार में उतर गए. वेदांता का कद उन दिनों बहुत बड़ा था. लेकिन सुदीप हमेशा की तरह इस बार भी विचलित नहीं हुए और धैर्य से काम लिया. जितनी कड़ी प्रतिस्पर्धा थी, सुदीप ने उतनी ही ज्यादा मेहनत शुरू कर दी. फिर एक समय ऐसा आया जब उनकी मेहनत के कारण उनके प्रोडक्ट की गुणवत्ता कई गुना बढ़ गई. सुदीप की इस मेहनत का ये नतीजा निकला कि इस प्रतिस्पर्धा में उनकी जीत हुई और वेदांता को हार माननी पड़ी. 2008 में सुदीप द्वारा वेदांता को 130 करोड़ रुपये में खरीद लिया गया तथा पैकेजिंग व्यापार में वेदांता का सफर स्थायी रूप से थम गया.
15 रुपये से 1600 करोड़ के मालिक
सुदीप ने अपनी कंपनी Ess Dee Aluminium का विस्तार कर इसे Ess Dee Aluminum Company Expands Rapidly बना लिया. 1998 से 2000 के बीच सुदीप ने पूरे देश में अपने 12 यूनिट स्थापित किए. एक समय ऐसा आया जब सुदीप की कंपनी भारत की नंबर 1 पैकेजिंग कंपनी बन कर उभरी. इस दौरान इनकी Ess Dee Aluminium कंपनी बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में भी लिस्ट की गई. इन्हें इनकी मेहनत के लिए पैकेजिंग उद्योग के नारायण मूर्ति कह कर बुलाया जाने लगा. उस समय Ess Dee Aluminium कंपनी की मार्केट वैल्यू 1600 करोड़ से भी अधिक थी. बताया जाता है कि सुदीप दत्ता ने गरीब लोगों की मदद के लिए सुदीप दत्ता फाउंडेशन की स्थापना की थी. इसके साथ ही इन्होंने अपने जैसे उन युवाओं की मदद के लिए प्रोजेक्ट हैलपिंग हैंड की शुरुआत भी की थी, जो अपनी आंखों में बड़े सपने लिए मुंबई शहर में आते हैं.
कहानी का दूसरा पहलू
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जिस तरह से सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह सुदीप दत्ता की कहानी के भी दो पहलू हैं. उनकी कहानी केवल उनकी सफलता पर ही खत्म नहीं होती बल्कि इसके अलावा उनके जीवन में और भी बहुत कुछ हुआ जिससे उनकी छवि खराब हुई. कोई समय था जब उनकी कंपनी के मजदूर उन्हें मालिक या साहब नहीं बल्कि दादा कह कर संबोधित लेकिन बाद में उन्हें इन्हीं मजदूरों की तनख्वाह ना देने और पीएफ का पैसा हड़प जाने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया. कुछ गलत फैसलों के कारण सुदीप दत्ता की कंपनी Ess Dee Aluminium दिवालिया घोषित हो गई.
सितंबर 2017 में सुदीप पर 42 लाख रुपये प्रोविंडेंट फंड बकाये का आरोप लगा और उन्हें प्रोविडेंट फंड डिफॉल्ट मामले में गिरफ्तार भी किया गया. हालांकि कंपनी का दावा था कि वह कामरहाटी यूनिट के कर्मचारियों को इसका भुगतान कर चुकी है. इकोनॉमिक टाइम्स की एक पुरानी रिपोर्ट के अनुसार खुद पर लगे इस इल्जाम पर सफाई देते हुए दत्ता ने राज्य के वित्त मंत्री को एक पत्र लिखा था जिसमें उनका कहना था कि उनकी संस्था के कर्मचारियों को तृणमूल कांग्रेस के एक विधायक द्वारा लगातार गुमराह किया जा रहा था, इसी वजह से उनके साथ ऐसा हुआ.
सब कुछ सही चल रहा था लेकिन दत्ता ने कम समय में ही कुछ और बड़ा करने का मन बनाया. इसी के बाद स्थिति बिगड़ने लगी. दरअसल दत्ता ने 2014 में जर्मनी सरकार के साथ 450 करोड़ रुपये का निवेश करने के लिए सहयोग किया. इसके लिए उन्होंने कम समय के लिए कर्ज उठाया लेकिन वह इतने कम समय में लोन उतार नहीं पाए और उनकी कंपनी कर्ज के जाल में फंसती चली गई. जिसके बाद उनकी सभी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट बंद हो गईं. दत्ता अपने परिवार के साथ अब सिंगापुर में रहते हैं.
भले ही सुदीप दत्ता के जीवन के कई पहलू रहे हों लेकिन हमें किसी से भी उनकी अच्छाई सीखनी होती है. दत्ता के विषय में सीखने वाली बात यही है कि कैसे परिस्थितियों से लड़ कर आगे बढ़ा जाए और कैसे अपनी मेहनत और सूझबूझ से किस्मत में लिखी गरीबी को मिटाया जाए. दत्ता ने एक इंटरव्यू के दौरान अपने पुराने वक्त को याद करते हुए कहा था कि जब वह अपने पहले बिजनेस के लिए बैंक से 40000 का लोन लेने गए थे तब बैंक वालों ने उनके साथ अभद्रता से बात की थी लेकिन जब उनके पास पैसे आए तो वही बैंक वाले उनके आसपास मंडराते रहते थे. इस पर दत्ता ने एक बहुत अच्छा कोट कहा था ‘मक्खियां वहीं मंडराती हैं जहां शहद होता है. तब मेरे पास शहद नहीं था लेकिन आज है.