टेलीविज़न ने उन्हें स्टार बनाया था. कामयाबी दी थी और अब वही उन्हें मार रहा है. पिछले कुछ घंटों से टीवी स्क्रीन पर बार-बार उन्हें मारा जा रहा है. इसे लिखने के वक़्त तक वो लोग इसी काम में लगे थे. उनकी ज़िंदगी, काम, संबंधों और यहां तक कि सुसाइड करने के उनके तरीके पर चर्चा चल रही थी. एक-एक चीज़ की चीरफाड़ हो रही थी.
कोई यह बताने की कोशिश कर रहा था कि पिता से उनके रिश्ते अच्छे नहीं थे. कुछ ये बता रहे थे कि हो सकता है कि वह ड्रग्स लेते हों. वो उनके शरीर पर मिले निशान के बारे में भी बातें कर रहे थे. उन जख्मों को बातें करते हुए वे कह रहे थे कि फांसी लगाने में उन्हें कितनी तकलीफ हुई होगी. कोई कह रहा था कि ईश्वर खुदकुशी करने की इजाज़त नहीं देता. ट्रोल्स के लिए तो यह बढ़िया मसाला था. वे इसे एक मुस्लिम एक्ट्रेस के साथ उनके कथित संबंधों का नतीजा बता रहे थे. उनके हिसाब से यह ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ जैसा था.
एक सेलेब्रिटी डायरेक्टर और टॉक शो होस्ट ने पोस्ट लिख कर उनके जाने पर दुख जताया. उन्हें अफसोस हो रहा था कि वह उसकी मदद क्यों नहीं कर सके. लेकिन उन लोगों ने उसका इस बात के लिए मखौल उड़ाया कि वो उतने ‘सेक्सी’ क्यों नहीं दिख रहे थे.
दिवंगत शख़्स की प्राइवेसी के हक पर सवाल क्यों नहीं उठता?
उनके साथी सेलेब्रिटीज़ ने दिवंगत एक्टर की तस्वीरें पोस्ट की थीं. अपनी-अपनी श्रद्धांजलियों के साथ.
श्रद्धांजलि देने वालों की तादाद कुछ ज्यादा ही थी. कुछ लोगों ने एक्टर की तस्वीरें पोस्ट कर लिखा कि उनकी तरह वे भी डिप्रेशन से जूझ रहे थे. उनके भी काम पर असर पड़ा था. ऐसा लग रहा था कि यहां हर कोई एक दूसरे का सहारा बना हुआ है. कई हैशटेग चल रहे थे. इस त्रासदी पर ज्यादा से ज्यादा व्यू, लाइक और कमेंट तो आने ही थे. लेकिन इन सबके बीच एक सवाल पैदा होता है. आख़िर हमने सार्वजनिक तौर पर अपनी स्टोरी के लिए, श्रद्धांजलि देने और इस घटना को लेकर अपनी धारणाओं और ऐसी तमाम चीजों के बारे में बताने के लिए उनकी तस्वीरों के इस्तेमाल का अधिकार कैसे हासिल कर लिया? जो अब इस दुनिया में नहीं है उसकी प्राइवेसी के हक का क्या? उनके शव की तस्वीरें न्यूज चैनलों और व्हॉट्सग्रुप पर इस तरह वायरल क्यों हो रही हैं?
क्या भारत में कोई ऐसा कानून है, जो इस दुनिया को छोड़ चुके लोगों की निजता के अधिकार की रक्षा करता हो. क्या इस तरह की रिपोर्टिंग और तस्वीरों को शेयर करने का सवाल पत्रकारिता की नैतिकता से जुड़ा नहीं है? क्या यह किसी की गरिमा से जुड़ा सवाल नहीं है?
खुदकुशी को हमारा मीडिया कुछ इस तरह कवर करता है
वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.
ड्रामा क्वीन
समाप्त
टीवी चैनलों की मेहरबानी से अब तक सबने जान लिया है कि दिवंगत अभिनेता का घर कैसा दिखता है. ‘ताकतवर’ टीवी चैनल हमें वहां तक पहुंचा चुके हैं. उनकी पहुंच हर जगह है. हमने उस सोफ़े को भी देख लिया है, जिस पर बैठकर दिवंगत अभिनेता के पिता रो रहे थे. हमने शोक की उस घड़ियों को इसलिए देखा क्योंकि न्यूज चैनलों की महत्वाकांक्षाओं में हमें वहां तक ले जाना शामिल था, जहां तक दिवंगत शख़्स के परिवार के प्रति लेश मात्र की संवेदना और सम्मान रखने वाला कोई भी व्यक्ति शायद ही जाना चाहेगा.
दिवंगत अभिनेता का घर कोई सार्वजनिक जगह नहीं है. निश्चित रूप से मीडिया ने अपराध किया है. बगैर इजाज़त के कहीं भी घुसने से लेकर इसने तमाम नैतिकताएं लांघी हैं. मीडिया के लोग अमूमन ऐसा करते ही हैं और इस तरह इसने आत्महत्या जैसी त्रासदी को सामान्य बना दिया है.
हमने यह मान लिया है कि हमें सबकुछ देखना है. बेटे की मौत पर शोक से सूजी पिता की आंखें. बेडरूम की तस्वीरें, जहां अभिनेता ने अपनी जान ली. सब कुछ. कमरा, कमरे का बिस्तर और वो रस्सी तक, जिसका उन्होंने इस्तेमाल किया था.
मुझे 2018 का वो दिन अभी भी याद है.
एक लोकप्रिय न्यूज चैनल ने अपनी स्टोरी की हेडलाइन लगाई थी- ‘मौत का बाथटब’.
मुझे याद है कि एक रिपोर्टर अभिनेत्री श्रीदेवी की मौत की वजह का पता करने के लिए माइक लेकर एक बाथटब में उतर गया था. किनारे पर वाइन का एक प्याला भी रख दिया किया था. और इस तरह उनकी मौत का वह सीन री-क्रिएट किया गया था. वह सनसनीखेज रिपोर्टिंग, रिपोर्टर के विशेषणों, राय और अटकलबाजियों से भरी हुई थी, जिसमें न तो तथ्यों की प्रति कोई सम्मान था और न ही दिवंगत की निजता और गरिमा का कोई ध्यान.
दौलत, शोहरत और शख़्सियत की वजह से समाज में महत्वपूर्ण लगने वाले लोगों की ज़िंदगी में ताक-झांक की हद तक सनक कोई नई बात नहीं है. ऐसे मामलों में हम तुरंत एक्सपर्ट बन जाते हैं. लेकिन किसी गुज़रे हुए शख्स की ज़िंदगी के बारे में लिखने के वक्त हमें पूरी गरिमा के साथ यह काम करना चाहिए. अपने लिए भी और उस शख़्स के लिए भी. यह बेहद संजीदगी का मामला होना चाहिए क्योंकि जो इस दुनिया से चला गया वह वापस आकर अटकलबाजियों का खंडन नहीं कर सकेगा.
मौत के मामले में तथ्य और भी पवित्र हो जाते हैं.
श्रीदेवी के बारे में जो खबरें थीं, उनमें कहा गया था कि 54 साल की अभिनेत्री दुबई के एक होटल के बाथटब में फिसल गई थीं और उसमें डूबने से उनकी मौत हो गई थी. परिवार में हो रही एक शादी में शामिल होने के लिए दुबई आई हुईं श्रीदेवी इस होटल में ठहरी हुई थीं. लेकिन फोरेंसिक रिपोर्ट आने के पहले ही अटकलबाजियों और आरोपों का सिलसिला शुरू हो गया. इस बीच मैं उनके ‘शरीर’ के बारे में मिल रही नई-नई जानकारियों से गुजरता रही. इस बारे में लगातार खबरें आ रही थीं. मेरे सामने खुद को हमेशा युवा रखने के लिए करवाई गई उनकी सर्जरी के बारे में जानकारियां आ रही थीं. इसके लिए कैलिफोर्निया के कई चक्कर लगाने की कहानियां पता चल रही थीं. उन्होंने अपनी नाक ठीक कराने के लिए क्या किया, अपने होठ तराशने के लिए क्या करवाया. वह किन तनावों से गुजर रही थीं. एक-एक चीज का तफ़सील से ब्योरा मिल रहा था.e
मुझे याद है कि उन लोगों ने उनकी और उनके पति की पहली पत्नी की मौत के बीच भी ग्रहों का कनेक्शन ढूंढ लिया था. इसके मुताबिक़ बोनी कपूर की पहली पत्नी की मौत अपने बेटे की पहली फिल्म के रिलीज होने से पहले हो गई थी और श्रीदेवी भी अपनी बड़ी बेटी की पहली फिल्म को रिलीज होते नहीं देख सकीं. उनकी मौत पर एक लेखक ने लिखा, क्या इन दोनों के बीच कोई संबंध है?
राष्ट्रीय टीवी चैनलों पर श्रीदेवी की ज़िंदगी और उनकी मौत से जुड़े हालातों के बारे में तमाम तरह की अटकलबाजियां चल रही थीं. एक पत्रकार ने तो हद कर दी. उसने बाथटब में लेटकर बताया कि श्रीदेवी किस तरह डूबी होंगी. इस बात पर भी बहस चली कि उन्होंने वोदका पी थी या वाइन. वो यह पता करने में भी लगे रहे कि श्रीदेवी अपनी बेटियों के लिए कितना पैसा छोड़ गई हैं.
क्या सुशांत सिंह राजपूत के शव, उनकी निजी ज़िंदगी के बारे में सूचनाओं की बारिश और मिनट-दर-मिनट अपडेट से कोई राष्ट्रीय हित जुड़ा हुआ है?
निश्चित तौर एक सार्वजनिक व्यक्तित्व होने के नाते वह बड़ी तादाद में लोगों की श्रद्धांजलि हासिल करने के हकदार थे. लेकिन उनकी ज़िंदगी की जिस तरह से चीर-फाड़ हो रही है वो नहीं होनी चाहिए. उनकी मौत लोगों के लिए कोई मौका नहीं है. सच्चाई तो यह है कि यह दुखद, त्रासद आत्महत्या का मामला है. लेकिन हमने तथ्यों को काफी पहले पीछे छोड़ दिया है. हम मीडिया के लोगों ने यही किया है. ज्यादातर लोग तथ्यों को अब दरकिनार करने लगे हैं.
तथ्य यही है कि अभी भी इस मामले की जांच चल रही है. हालांकि पुलिस ने कहा है कि सुशांत सिंह राजपूत ने खुदकुशी की है. पत्रकारिता में एक शब्द का इस्तेमाल होता है और वह है ‘कथित’. फिर भी हम उन लोगों के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं जो इस एक्टर को जानते थे.
अपनी स्टोरी को चटपटा बनाने के लिए हम दिवंगत एक्टर को जानने वाले लोगों से सूचनाएं उगलवाने की हरचंद कोशिश में लगे हैं. हम बाकियों से अच्छी स्टोरी निकालना चाहते हैं ताकि गर्व से अपनी छाती चौड़ी कर हिट्स और नंबर का बखान कर सकें.
पुलिस के रिकार्ड पर कुछ कहने से पहले ही मीडिया के ज्यादातर हिस्से ने यह एलान कर दिया कि अभिनेता ने आत्महत्या की.
चाहे इरादतन हो या गैर इरादतन, ‘खुदकुशी कर ली, इस शब्द में एक तथ्य की अनदेखी की जाती है. वह यह कि अगर किसी ने अपनी ज़िंदगी ले ली है तो इसके पीछे एक वजह है और वह, यह कि उसकी बीमारी का इलाज नहीं हो सका.
सुसाइड अवेयरनेस वॉयस ऑफ एजुकेशन के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर डैन रीडनबर्ग ने ‘हफिंग्टन पोस्ट’ में एक लेख में लिखा ‘आत्महत्या कर ली’ जैसे शब्द बोल कर हम उन लोगों से और भेदभाव ही करते हैं, जो एक बीमारी से अपनी लड़ाई हार चुके हैं. यह मानसिक बीमारी के साथ जोड़ दिए गए सामाजिक धब्बे को और बढ़ावा देने जैसा ही है.
कई मीडिया संगठनों और स्वास्थ्य संगठनों ने जो रिपोर्टिंग गाइडलाइंस बनाई हैं उसमें ‘खुदकुशी कर ली’ जैसे शब्द को नुकसानदेह माना गया है, क्योंकि इससे पूरा भार उस शख़्स पर डाल दिया जाता है, जिसने अपनी जान ली है. इससे उस बीमारी से ज़ोर हट जाता है, जिसका इलाज न हो पाने की वजह से यह हादसा हुआ है. ऐसा करना अपराध करने जैसा लगता है.
इसे सनसनीखेज़ और इस पूरी प्रक्रिया को समान्य बना कर आप हालात को बिगाड़ देते हैं. खुदकुशी की जगह और इसके तरीके बता कर आप हर घंटे अपडेट होने वाली अपनी स्टोरी को सनसनीखेज बना डालते हैं. इस तरह से आप लोगों की जिंदगी में ताक-झांक को ही बढ़ावा देते हैं.
मीडियाकर्मियों समेत कई लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखा कि आत्महत्या करना कायरता है. यह क़ानून के ख़िलाफ़ है. लेकिन 2018 में आत्महत्या की कोशिश को अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया था. उन लोगों ने अपनी जानकारी तक अपडेट नहीं की थी.
मानसिक बीमारी से जुड़ा कानून कहता है, “भारतीय दंड संहिता की धारा 309 में चाहे जो कुछ भी लिखा हो, यह माना जाएगा कि आत्महत्या की कोशिश करने वाला व्यक्ति भारी तनाव में है ( कुछ और कारणों के अपवाद को छोड़ कर) और इसके लिए उसके ख़िलाफ़ मुकदमा चला कर उसे दंडित नहीं किया जाएगा”.
2017 के कानून ने 1987 के मानसिक स्वास्थ्य कानून की जगह ले ली है.
इस कानून में मानसिक बीमारी को साफ़ तौर पर परिभाषित किया गया है. इस कानून में कहा गया है, “मानसिक बीमारी से जूझ रहे हर शख्स को पूरी गरिमा से रहने का अधिकार है. जेंडर, सेक्स, सेक्स अभिरुचियों, धर्म, संस्कृति, जाति, सामाजिक और राजनीतिक विश्वास, वर्ग या अपंगता समेत किसी भी दूसरे आधार पर उसके साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता.” यह कानून स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े प्रावधानों के संदर्भ में मानसिक बीमारी को भी शारीरिक बीमारियों के समकक्ष लाने की कोशिश करता है.
सुशांत सिंह की ज़िंदगी पर पीत पत्रकारिता
सुशांत सिंह राजपूत और उनकी तरह आत्महत्या कर चुके कई लोगों के बारे में जैसी रिपोर्टिंग हमें दिखी है वह सीधे तौर पर पीत पत्रकारिता (येलो जर्नलिज्म ) है. ऐसी पत्रकारिता जिसमें बगैर ढंग से रिसर्च किए हुई या बगैर रिसर्च के ही तथ्यों से परे खबरें परोसी जा रही हैं. खबरें चौंकाने वाली हेडलाइन लगा कर दिखाई या पढ़ाई जा रही हैं ताकि ये बड़ी तादाद में बिक सकें. इसके लिए अतिश्योक्ति की जा रही है. उन्हें स्कैंडल को तरह बढ़ावा दिया जा रहा है और सनसनी पैदा की जा रही है.
महामारी और सुसाइड की रोकथाम से जुड़े विशेषज्ञों ने कई बार यह कहा है कि एक जैसे माहौल (इसके लिए कलस्टर शब्द का इस्तेमाल किया गया है, जहां देखा-देखी आत्महत्या का चलन बढ़ता है) में होने वाली आत्महत्याओं के लिए कुछ हद तक मीडिया कवरेज को दोषी ठहराया जाना चाहिए. क्लोये रेचेल ने नवंबर 2019 में journalistresource.org में लिखा ” रिसर्च बताते हैं कि सलेब्रिटीज़ की आत्महत्याओं की रिपोर्टिंग और आत्महत्याओं में इज़ाफ़े के बीच संबंध रहे हैं. इसे कथित तौर पर ‘कॉपी कैट’ ( नकल) या इस तरह की प्रवृति के फैलने की प्रवृति कह सकते हैं.
मानसिक स्वास्थ्य के पैरोकारों का कहना है कि ऐसे मामलों में सोच-समझ कर रिपोर्टिंग होनी चाहिए. आत्महत्या को रोकने वाली प्रवृति और मानसिक बीमारी से जुड़े सामाजिक कलंक को खत्म के लिए हो रहे काम को तवज्जो मिलनी चाहिए. यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि सलेब्रिटी की मौतों को ग्लैमर बना कर पेश न किया जाए. ऐसी रिपोर्टिंग खुदकुशी की प्रवृति को फैलने से रोक सकती है. यह मानसिक बीमारी से जूझ रहे लोगों को जरूरी संसाधन हासिल करने में मददगार साबित हो सकती है.
आत्महत्याओं की रिपोर्टिंग कैसी हो?
आत्महत्याओं को किस तरह कवर किया जाए, इसके लिए दिशा-निर्देशों की कमी नहीं है. लेकिन यह न्यूज़ रूम के नज़रिए पर निर्भर करता है कि यह इन्हें किस तरह से देखता है. वह इसे कवर करने में इन दिशा-निर्देशों का पालन करता है या नहीं, इस पर काफी कुछ निर्भर करता है.
आत्महत्याओं को लेकर जो मौजूदा कारगर (प्रभावी) चलन है उसमें इन्हें दूसरी वजहों से नहीं जोड़ा जाता. लेकिन सुशांत सिंह राजपूत के मामले में हम ऐसा होता नहीं देखते. उनके मामले में बॉलीवुड में उनकी कामयाबी या नाकामयाबी पर चर्चा हो रही है. कई दूसरी चीजों के अलावा उनके प्रेम संबंधों की चर्चा हो रही है. प्राइम टाइम के न्यूज़ शो में न्यूज़ रूम के अंदर ‘आख़िर क्यों’ पर बहस हो रही है.
इस वक्त सुसाइड की रिपोर्टिंग और इससे जुड़ी पत्रकारिता के जो प्रभावी चलन हैं, उनमें आत्महत्याओं को मानसिक स्वास्थ्य की दिक्कतों से जोड़ कर देखा जा रहा है. साथ ही ये भी बताते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए मौजूद संसाधनों तक कैसे पहुंचा जा सकता है. पत्रकारों के लिए Reportingonsuicide.org ऐसी जगह हो सकती है, जहां आत्महत्याओं के मामले में रिपोर्टिंग के तरीकों पर गौर किया जा सकता है. यहां बताए गए निर्देशों से खुदकुशी के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले तरीकों के बारे में पैदा हो रही रुग्ण उत्सुकता को रोकने में मदद मिल सकती है. यहां से सुसाइड को सही संदर्भ में रिपोर्ट करने की दृष्टि मिल सकती है. यह आपको आत्महत्याओं को फिल्मों या सोप-ओपेरा के नजरिये से देखने से बचा सकती है.
पत्रकारिता का एक पुराना नियम है. इसके मुताबिक सुसाइड कवर नहीं किए जाते हैं. लेकिन सलेब्रिटी की आत्महत्याएं और सार्वजनिक जगहों पर की जाने वाली खुदकुशी इस नियम के दायरे में नहीं आतीं. निश्चित तौर पर भारतीय मीडिया ने दायरे से बाहर के इस चलन को अपनाने में कोई गुरेज नहीं किया है. खुद को सनसनी के हवाले कर देने वाले भारतीय मीडिया में यह खूब होता है.
टेलीविजन में जिस तरह इनका कवरेज होता है वह बताता है यह कितना बुरा हो सकता है. आत्महत्याएं त्रासद घटनाएं होती हैं तमाशा नहीं. हम यह मानते हैं कि एक पत्रकार के तौर पर हम सभी अपनी स्टोरी को एक भावुक स्पर्श देकर समेटना चाहते हैं. कई बार कहानी कहने के अंदाज में निखार लाने के लिए माहौल का ब्योरा देते हैं. ये दूसरी तरह की कहानियों में असर तो पैदा करती हैं लेकिन इस तरह के ब्योरे सुसाइड कलस्टर को बढ़ावा दे सकते हैं. जैसे कि यह बताना कि डिजाइनर केट स्पेड ने खुदकुशी के वक्त किस रंग का स्कार्फ पहना था.
सुसाइड की ख़बरों पर मीडिया जो असर डालता है उससे समाज की सोच प्रभावित होती है. लोगों को लग सकता है कि परेशान लोग खुदकुशी के जरिये अपनी परेशानियों का अंत कर सकते हैं. मानसिक तौर पर अस्वस्थ व्यक्ति उन लोगों की नकल कर सकते हैं, जिनकी कहानियां मीडिया बताता है.
सुशांत सिंह राजपूत के मामले में मीडिया एक ‘असफल व्यक्ति’ की बात करता दिखता है, क्योंकि एक हेडलाइन में उनकी फिल्मों के ‘हिट’ रेट की ओर भी इशारा किया गया है.
ऐसी स्टोरी एक अलग तरह की पहचान की ओर ले जाती है, जहां लोग खुद को एक खास तरह की स्टोरी से जोड़ने लगते हैं. सुशांत सिंह राजपूत के मामले में अब मीडिया उनके व्यक्तित्व के उन पहलुओं के बारे में भी बात कर रहा है, जिन पर उनके जिंदा रहते शायद ही बात हुई होगी. मरने के बाद उन्हें तवज्जो दी जा रही है. उनकी आखिरी जीत जैसी कहानी कही जा रही है. एक शानदार कहानी. मौत के जरिये मुक्ति की कहानी.
जब कोई सेलेब्रिटी पहले की गई आत्महत्याओं के बारे में मीडिया में पढ़ कर या सुन कर सुसाइड (copycate suicide ) करता है तो आम व्यक्ति की सुसाइड की तुलना में इसका ज्यादा असर होता है. यह ऐसा दौर है जब लोग आत्मप्रदर्शन की ओर बढ़े चले जा रहे हैं. ऐसे वक्त में इस तरह की स्टोरी को कवर करने में ज्यादा जिम्मेदारी से काम करने की जरूरत है. यह वह दौर है जब हम पर सोशल डिस्टेंसिंग का चलन अपनाने का दबाव है. एक ऐसी महामारी से बचने के लिए एकांत में रहने की सलाह दी जा रही है, जिसने करोड़ों लोगों को बेरोजगार कर दिया है. तलाक के मामले बढ़ा दिए हैं और और बीमारी से हुई मौतों के बारे में टीवी पर आने वाली खबरों ने एक उदासी का माहौल बना दिया है. हम एक ऐसे वक्त में रह रहे हैं जो आत्महत्या के लिए उकसाने वाला माहौल बना रहा है.
लोग खुद को आत्महत्या के कगार पर पा रहे हैं. लोग खुद को छोड़ दिए हुए महसूस कर रहे हैं. रिसर्चर्स मानसिक बीमारियां के मामलों में इजाफे की चेतावनी दे रहे हैं. इसलिए मीडिया की ओर से दिखाई जाने वाली सुसाइड की इन कहानियों को देख कर आत्महत्याओं के मामले बढ़ सकते हैं. लोग यह सोच सकते हैं अगर पैसा, कामयाबी और शोहरत होने के बावजूद वह (सुशांत सिंह राजपूत) ऐसा कदम उठा सकते हैं तो मैं क्यों नहीं. अगर बॉलीवुड से बाहर से आकर घर-घर में पहचान बनाने वाला शख्स अपनी जिंदगी को नहीं बचा सका तो मैं क्यों अपनी जिंदगी बचाऊं.
सुसाइड को कवर करने के लिए मीडिया को सुझाए निर्देशों में यह बताया गया है कि इसकी कितनी कवरेज होनी चाहिए. इसमें कहा गया है कि सुसाइड करने का तरीका न बताया जाए. सनसनी फैलाने से परहेज किया जाए और मरने वाले व्यक्ति की एक सकारात्मक छवि पेश की जाए.
मरने वालों को आदर के साथ याद करके, मानसिक बीमारी के खिलाफ उसके संघर्ष के प्रति सम्मान दिखाते हुए और सुसाइड के बारे में खुली बातचीत और विमर्श के ज़रिये हम इस बारे में जागरुकता फैला सकते हैं. ऐसा करके हम दिवंगत शख्स के प्रति सहृदयता दिखा सकते हैं. लेकिन अक्सर ऐसे मामले में हम लांछन लगाते हैं और अपनी धारणाएं व्यक्त करने लगते हैं. यहां तक कि हम दिवंगत व्यक्ति का अपमान करने से भी नहीं चूकते. श्रीदेवी के मामले में क्या हुआ था? मीडिया ने पति से उनके संबंधों पर फोकस करना शुरू कर दिया था. उनके शराब पीने की आदत और कॉस्मेटिक पर सर्जरियों पर बातें होने लगी थीं.
तीन साल पहले मेरे पिता मेरे लिए एक टीवी सेट खरीद लाए थे. दीवार पर टंगा यह टीवी अब भी बंद पड़ा है. दिवंगत के प्रति सम्मान जताने का मेरा यही तरीका है.