वो दिन दूर नहीं जब नहीं ख़रीद पाएंगे चॉकलेट

चॉकलेट

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2050 के बाद चॉकलेट नहीं मिलेंगे! इस आशंका ने दुनिया भर के चॉकलेट प्रेमियों को चिंता में डाल दिया है. इस बारे में हज़ारों खबरें और लंबे-लंबे लेख छप चुके हैं कि हम चॉकलेट संकट की तरफ बढ़ रहे हैं.

चॉकलेट का ग्लोबल बाज़ार बढ़ता जा रहा है. अनुमान है कि 2025 तक चॉकलेट का बाज़ार 2015 के मुक़ाबले दोगुना हो जाएगा.

चॉकलेट की मांग बढ़ने के पीछे सिर्फ़ स्वाद नहीं है. इसके पीछे कुछ धारणाएं भी हैं. माना जाता है कि चॉकलेट खाने से बुढ़ापा देर से आता है. यह एंटी-ऑक्सीडेंट का काम करता है, तनाव कम करता है और ब्लड प्रेशर को नियंत्रित रखता है. इसके अलावा चॉकलेट के और भी कई फ़ायदे गिनाये जाते हैं.

चॉकलेट सभी को पसंद हैं. लेकिन चॉकलेट के सबसे बड़े दीवाने कहां रहते हैं? दुनिया भर में जितने चॉकलेट का उत्पादन होता है, उसका आधा पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में चट कर लिया जाता है.

स्विट्जरलैंड के लोग चॉकलेट की खुशबू और इसकी मिठास के सबसे बड़े दीवाने हैं. 2017 में यहां प्रति व्यक्ति 8 किलो चॉकलेट की खपत हुई.

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चॉकलेट के नये बाज़ार

चॉकलेट से मुहब्बत के मामले में अब भी विकसित देश ही आगे हैं, लेकिन भविष्य में विकास की संभावनाएं कहीं और हैं.

एक-एक अरब से ज्यादा आबादी वाले देशों- भारत और चीन में चॉकलेट का बड़ा बाज़ार है और यह बढ़ रहा है.

तेज़ी से होता शहरीकरण, उभरता हुआ मध्य वर्ग और उपभोक्ताओं की बदलती पसंद ने इन दोनों देशों में चॉकलेट के लिए भूख बढ़ाई है.

भारत चॉकलेट के सबसे तेज़ी से उभरते बाज़ारों में से एक है. पिछले कई साल से यहां चॉकलेट की मांग लगातार बढ़ रही है.

2016 में भारत में 2 लाख 28 हजार टन चॉकलेट की खपत हुई जो 2011 के मुकाबले 50 फीसदी ज्यादा थी.

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मीठे के प्रति भारतीयों की दीवानगी किसी से छिपी नहीं है. चॉकलेट को स्वाद उनको भा गया है. कुछ लोग इसे सेहत के लिए भी अच्छा समझते हैं.

चीन में 80 के दशक में हुए आर्थिक सुधारों से पहले चॉकलेट एक दुर्लभ चीज़ थी. खपत के मामले में चीन अब भी काफी पीछे है. यहां चॉकलेट की प्रति व्यक्ति सालाना खपत एक किलो से कम है.

चीन में नये कॉफी कल्चर के उभार ने चॉकलेट के बाज़ार को बदल दिया है. संपन्न तबके के लाखों लोग बेहतर गुणवत्ता वाले विदेशी चॉकलेट्स की ऑनलाइन शॉपिंग कर रहे हैं. इस ट्रेंड ने अलीबाबा जैसे रिटेलर को भी अपना बिजनेस मॉडल बदलने पर मजबूर कर दिया है.

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ख़तरे में है चॉकलेट!

चॉकलेट बनाने के लिए जरूरी है कोको. कोको का पेड़ उष्णकटिबंधीय आर्द्र जलवायु में होता है. इसे वर्षा-वन के पेड़ों की छांव की जरूरत होती है. इसलिए इसका कृषि क्षेत्र सीमित है.

कोको का उत्पादन मुख्य रूप से पश्चिमी अफ्रीका में होता है. इसके कुल उत्पादन का आधे से ज्यादा आइवरी कोस्ट और घाना में होता है.

ग्लोबल वॉर्मिंग के असर से कोको का कृषि क्षेत्र सिमटता जा रहा है. इसके लिए जरूरी आर्द्रता और छांव बनाए रखना किसानों के लिए मुश्किल हो रहा है.

जिन भौगोलिक भू-भागों में कोको के लिए अनुकूल जलवायु है, उनमें से कई इलाकों में खेती पर पाबंदी है. इससे कोको का क्षेत्र और सिमट जाता है.

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पौधों को संक्रामक रोग

कोको का दुश्मन सिर्फ मौसम नहीं है. कुछ बीमारियां और कीड़े भी इसे नष्ट कर रहे हैं. एक अनुमान के मुताबिक पौधों को लगने वाली बीमारियों की वजह से हर साल 30 से 40 फीसदी कोको बर्बाद हो जाता है.

आइवरी कोस्ट ने ऐलान किया कि वह एक लाख हेक्टेयर क्षेत्र में लगे कोको के पौधों को नष्ट करेगा, क्योंकि उनमें वायरस लग गए हैं. इन इलाकों में दोबारा पौधे लगाने में कम से कम पांच साल लगेंगे.

कोको में लगने वाला वायरस इसकी शाखाओं को फुला देता है. इससे उपज घट जाती है और फसल भी खराब हो जाती है.

कीमतों में होने वाला उतार-चढ़ाव भी कोको के किसानों पर भारी पड़ रहा है. वे दूसरी फसलों की तरफ रुख कर रहे हैं, जिनकी खेती फ़ायदेमंद है और आसान भी.

इंडोनेशिया दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कोको उत्पादक है. यहां भी 2010 से उत्पादन लगातार गिर रहा है. मौसम अनुकूल नहीं है. कोको के पेड़ पुराने हो रहे हैं. नतीजन, किसान मक्का, रबर और पाम ऑयल की खेती करने लगे हैं.

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कोको से नया प्यार

नये बाज़ारों की बढ़ती मांग और घटते उत्पादन के ख़तरे ने कोको उत्पादक देशों को चौकन्ना कर दिया है.

घाना कोको का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है. यह एशिया, खास तौर पर चीन को एक बड़े मौके के रूप में देखता है. उत्पादन बढ़ाने के लिए घाना ने चीन के एक्जिम बैंक से डेढ़ अरब डॉलर का कर्ज लिया है.

मध्य पूर्व और अफ्रीका भी चॉकलेट उत्पादकों के लिए अहम हो रहा है. संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब में चॉकलेट पर प्रति व्यक्ति खर्च क्षेत्रीय औसत से बहुत ज्यादा है.

इन बाज़ारों के उपभोक्ता चॉकलेट को स्टेटस सिंबल के तौर पर देखते हैं, इसलिए यहां प्रीमियम ब्रांड की मांग बढ़ रही है.

अल्जीरिया इस मामले में सबसे अलग है. यूरोमॉनिटर के मुताबिक अल्जीरिया के लोग चॉकलेट को एनर्जी बूस्टर के तौर पर खाते हैं. युवाओं में इनकी भरपूर खपत है, लेकिन यहां चॉकलेट को तोहफे में देने का चलन कम है.

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चॉकलेट को बचाना संभव है?

चॉकलेट के बड़े उत्पादक इसे बचाने के लिए हाथ मिला रहे हैं. वे रेन फॉरेस्ट अलायंस, यूटीज़ेड और फेयरट्रेड जैसी पहल कर रहे हैं.

अमरीका के सबसे बड़े चॉकलेट निर्माता मार्स रिग्ले कन्फेक्शनरी ने गर्मी में भी उग सकने वाले कोको पौधों के विकास के लिए एक अरब डॉलर का फंड बनाया है.

मॉन्डेलेज़ इंटरनेशनल भी कोको को बचाना चाहता है. किसानों की मदद के लिए 2012 में ‘कोको लाइफ़’ कैंपेन शुरू किया गया था, जिसमें अब मिल्का ब्रांड भी शामिल हो गया है.

कुछ कामयाबी अवश्य मिली है, लेकिन कोको किसानों को गरीबी से निकालने के लिए उतना काफी नहीं हैं.

आइवरी कोस्ट में यूटीज़ेड से प्रमाणित किसान सालाना 84 यूरो से लेकर 134 यूरो तक ज्यादा कमा रहे हैं. यह बिना प्रमाणित किसानों की आमदनी से करीब 16 फीसदी ज्यादा है. लेकिन इतना काफ़ी नहीं है.

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किसानों को प्रमाणित करना भी एक समस्या है. इसका फ़ायदा उठाने के लिए किसानों को को-ऑपरेटिव का मेंबर होना होता है. आइवरी कोस्ट में 30 फीसदी कोको किसान ही को-ऑपरेटिव के सदस्य हैं.

एक और शर्त यह है कि पूरी सप्लाई चेन में कहीं भी बाल मजदूरों का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए. इसे नियंत्रित करना लगभग असंभव है.

अफ्रीका के स्थानीय कोको उत्पादकों की अपनी योजना है. उन्होंने ओपेक जैसी (OPEC) पहल का ऐलान किया है.

कोको उत्पादक कीमत पर अपना नियंत्रण चाहते हैं. इसके लिए वे उत्पादन और बिक्री में बेहतर तालमेल पर जोर दे रहे हैं. इससे कोको किसानों के हितों की रक्षा हो सकेगी, जो अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कीमत में होने वाले उतार-चढ़ाव से बहुत प्रभावित होते हैं.

इन सब उपायों से चॉकलेट के अस्तित्व पर आ रहे संकट को टालने के दावे हो रहे हैं, लेकिन ध्यान रखना होगा कि कोको पर संकट रहेगा तो चॉकलेट भी नहीं बचेगा.

चॉकलेट उत्पादकों का आगे आना और किसानों के लिए मदद का हाथ बढ़ाना उम्मीद जगाता है. लेकिन क्या यह चॉकलेट के भविष्य को बचा पाएगा, यह भविष्य बताएगा.