इतिहास गवाह है कि दुनियाभर के लोगों पर श्वेत व्यक्तियों ने असंख्य ज़ुल्म ढाए. गुलामी की जंज़ीरों के निशान आज भी मौजूद हैं. अमेरिका में गुलामी के दौर के बारे में हम सब परिचित हैं. Fitchburg State University के एक लेख के अनुसार, 1525 से 1866 के बीच 1,25,00,000 करोड़ अफ़्रीकियों को अगवा कर अमेरिका भेजा गया. अमेरिका तक का सफ़र 1,07,00,000 ही झेल पाए. हालांकि अफ़्रीका से अगवा कर अमेरिका लाए गए लोगों की संख्या इससे कही ज़्यादा भी हो सकती है. अश्वेतों को रंग के आधार पर पहचानना आसान था और उन्हें छुड़ाकर घर भेजना भी कठिन था. यूरोप के कुछ लोग बाइबल का हवाला देकर भी अश्वेतों को गुलाम बनाते थे.
अश्वेतों को लेकर इतिहास में भी काफ़ी फ़ेर बदल किया गया है. उन्हें हिंसक, जंगली, हबशी का तमगा दिया जाता है. अमेरिका में गुलामी के खिलाफ़ बहुत से अश्वेतों ने अपने-अपने स्तर पर विद्रोह किया. अश्वेत छिप-छिपकर लिखना-पढ़ना सीखते, किताबें लिखकर विरोध भी किए लेकिन उन्हें बेड़ियों से आज़ादी मिलते-मिलते बहुत वक्त लग गया. कुछ लोगों का ये भी मानना है कि घर पर रखे जाने वाले गुलाम अश्वेतों की हालत, खेतों मे काम करने वालों से बेहतर थी. Vox के एक लेख के अनुसार ये एक मिथक है. अश्वेत महिलाओं का बलात्कार इतनी आम बात थी कि 16.7 प्रतिशत अफ़्रीकी अमेरिकी लोगों के पूर्वज यूरोप में मिलते हैं. अमेरिका में गुलामी को तो गैरकानूनी घोषित कर दिया गया लेकिन अश्वेतों की हालत आज भी बेहतर नहीं है.
अश्वेत बच्चों के बनाते थे मगरमच्छ का चारा
African Archives नामक ट्विटर अकाउंट ने श्वेतों के अत्याचार पर एक हैरतअंगेज़ खुलासा किया. 1800-1900 के बीच मगरमच्छ का शिकार बेहद लाभदायक बिज़नेस था. मगरमच्छ के चमड़े से जूते, बैग, बेल्ट जैसी चीज़ें बनाई जाती थी. ग़ौरतलब है कि श्वेत शिकारी, मगरमच्छ पकड़ते समय ज़ख़्मी होते और कई बार तो अपना हाथ तक गंवा देते. अश्वेतों ने इस समस्या का बेहद क्रूर समाधान निकाला.
छोटे अश्वेत बच्चों को बतौर चारा इस्तेमाल किया जाने लगा
कुछ लोगों का कहना है कि फ़्लोरिडा और लुइज़ियाना और अन्य दक्षिणी अमेरिकी राज्यों के लोग ऐसा करते थे. श्वेत व्यक्ति कई बार अश्वेतों के बच्चे दिन में चुरा ले जाते. बच्चों को पकड़ कर उस तालाब के पास ले जाया जाता जहां मगरमच्छ हों. तालाब के किनारे रात में बच्चों को बांध दिया जाता.
कुछ ही मिनटों में मगरमच्छ उन पर टूट पड़ता. मगरमच्छ अपने पंजे बच्चों में घुसेड़ देता. ये हैवानियत से भरी हरकते पोस्टकार्ड, शीट म्यूज़िक आदि पर चिपकाई जाती. एक कैंडी बनाने वाले ने एक अफ़्रीकी बच्चे और उस पर हमला करते मगरमच्छ की तस्वीर अपने डब्बे पर चिपकाई थी.
अश्वेतों ने की थी क्रूरता की सारी हदें पार
जब भी अश्वेतों की क्रूरता के बारे में पढ़ते हैं, यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि मानव इतनी हैवानियत कैसे दिखा सकता है. श्वेत आज भी इससे इंकार करते हैं, स्वभाविक है. हकीकत यही है कि अश्वेतों को गोरे हमेशा खुद से ओछा ही समझते आए हैं, ये उनकी मानसिकता में अंदर तक घर कर चुका है. अश्वेतों की हालत दक्षिणी अमेरिका में बहुत ज़्यादा खराब थी.
Trove ऑनलाइन लाइब्रेरी से एक अखबार की क्लिपिंग मिली. इसमें तारीख लिखी थी 17 मार्च, 1888. इस लेख के मुताबिक, इस दौर में लोग अश्वेत व्यक्तियों की त्वचा से बने जूते पहनते थे. The New York Times के एक लेख के अनुसार, एक यूनिवर्सिटी छात्र ने अपने प्रोफ़ेसर को बताया कि उसके घर पर एक पर्स है जो अश्वेत व्यक्ति की त्वचा से बना है.
And Scape के एक लेख के अनुसार, 3 जून, 1908 को न्यू यॉर्क ज़ूलॉजिकल गार्डन्स के जू़कीपर ने दो अश्वेत बच्चों को 25 मगरमच्छों के बाड़े में भेजा. यहां चारों तरफ़ से लोग देख रहे थे, आनंद उठा रहे थे और मासूम बच्चे मगरमच्छों से अपनी जान बचा रहे थे. उस शख़्स को और ये मौत का खूनी खेल देखने वाले को कोई सज़ा नहीं मिली. इन बच्चों को Pickaninny कहा जाता था.
सिर्फ़ मगरमच्छों के शिकार के लिए ही नहीं. चिड़ियाघर के अंदर लोगों के मनोरंजन के लिए भी अश्वेत बच्चों की बलि चढ़ा दी जाती थी. आज भी बहुत से लोग मानते हैं कि ये पोस्टकार्ड, पोस्टर आदि झूठे हैं, ‘मज़ाकिया’ हैं लेकिन सच मानिए तो ये सच्चाई की सतह भी नहीं है.