20 अक्टूबर 1962 को भारत और चीन के बीच जंग (India China War) का आगाज हुआ था। दोनों ही देशों के बीच वह पहली जंग थी और इसके बाद से ही रिश्ते तनावपूर्ण बने हुए हैं। हैरानी की बात है कि इस जंग से दो साल पहले चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई भारत यात्रा पर आए थे। जब चीन ने हमला किया तो किसी को समझ नहीं आया कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि पड़ोसी भड़क गया और उसने जंग शुरू दी।
बीजिंग: भारत और चीन के बीच सन् 1962 को हुई जंग के 60 साल पूरे हो चुके हैं।20 अक्टूबर 1962 को ही चीन ने भारत पर हमला किया था। इस जंग के बीच ही दिवाली का त्यौहार पड़ा था। पूरे देश ने दिवाली नहीं मनाई थी और इस तरह से जंग में शहीद हुए भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि दी गई। सन् 1960 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई भारत के दौरे पर आए थे। इतिहासकारों की मानें तो चीन की तरफ से कई बार भारत को धमकाया गया था। जब भारत इन धमकियों से नहीं घबराया तो 1962 में चीन ने हमला कर दिया। आखिर वह कौन सी वजह थी जिसने चीन को इतना बड़ कदम उठाने पर मजबूर कर दिया था।
इतिहास का हिस्सा
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद दरअसल ब्रिटिश काल की उस गलती का हिस्सा है जो नक्शे को बनाते समय की गई थी। जर्नी टू द वेस्ट इस किताब में 16वीं सदी के चीनी साधु जुआनजांग की भारत यात्रा के बारे में लिखा है। वह भारत में बौद्ध सूत्रों की जानकारी हासिल करने के लिए आये थे। किंग वंश के पांचवें सम्राट कियानलोंग ने आगे चलकर इसका खास संस्करण तैयार किया। इसमें उन्होंने बहुत ही अजीब शब्दों के साथ एक विचित्र दुनिया के बारे में एक मानचित्र के जरिए बताया था। इस मानचित्र में भारत को कुएन लुन रेंज के दक्षिण में कहीं स्थित दिखाया गया था। हिमालय में कहीं एक लाइन बनाई थी और किसी को नहीं मालूम था कि यह कहां से शुरू होती और कहां खत्म होती है।
तिब्बत पर कब्जे का लालच
भारत पर जब अंग्रेजों का शासन शुरू हुआ तो यह मामला और पेचीदा हो गया। ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी जिन्हें गर्वनर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने भेजा था, उन्होंने 18वीं सदी में तिब्बत में एक अजीब सी खोज शुरू कर दी थी। उस समय चीन से आने वाले सामानों की मांग में तेजी से इजाफा हो रहा था। ब्रिटिश अधिकारी इससे परेशान हो गए थे।
इतिहासकारों की मानें तो तो प्रतिबंधित व्यापार के चलते ब्रिटिश अधिकारियों के लिए कई मुश्किलें पैदा हो गई थीं। ऐसे में तिब्बत को एक वैकल्पिक रास्ते के तौर पर देखा गया। ल्हासा के मैदानी इलाकों को जोड़ने वाले व्यापार की बड़ी-बड़ी श्रृंखलाएं थीं जो व्यापारियों और बौद्ध भिक्षुओं के साथ ही डाकुओं के लिए भी लंबे समय तक फायदे का सौदा बनी हुई थीं। ईस्ट इंडिया कंपनी यहां पर अपना नियंत्रण चाहती थी।
तिब्बत पर जादू फेल
हेस्टिंग्स को ल्हासा में दाखिल होने की मंजूरी नहीं मिली थी। लेकिन युवा अधिकारी जॉर्ज बोग्ले ने सन् 1774 में एक दूतावास के जरिए राजनयिक संबंधों की स्थापना में सफलता हासिल कर ली थी। सन् 1783 में एक और ईस्ट इंडिया अधिकारी यहां पर पहुंचा था। उसके पास कई तरह के आकर्षक गिफ्ट्स थे। मगर अंग्रेजों की चाल ज्यादा काम नहीं आई और तिब्बत पर उनका कोई प्रभाव नहीं हो सका। 14वीं सदी तक तिब्बत का चीन और मध्य एशिया के साथ काफी जटिल रिश्ते थे।
भारतीय जासूस गए तिब्बत
अंग्रेजों ने इसके बाद भारतीय जासूस शरतचंद्र दास को दिसंबर 1878 में तिब्बत भेजा था। दास ने जो कुछ भी देखा वह काफी परेशान करने वाला था। तिब्बत की स्थानीय अर्थव्यवस्था बिखरती जा रही थी। यहां पर अधिकारी चांदी और खराब सिक्कों के बीच अंतर मिटाने की कोशिशों में लगे थे। अथॉरिटीज अपनी ताकत का गलत प्रयोग कर रही थीं। स्थानीय अपराधियों को चेन में बांधा जाता, उनकी आंखें निकाल ली जाती और जंजीरों में जकड़े हुए ही वो भोजन के लिए भीख मांगते थे।
निर्दयी किंग राजवंश
सन् 1881 के अंत में, दास, ब्रिटिश ऑफिसर कोलमैन मैकाले के साथ तिब्बत लौट आए। एक और ब्रिटिश अधिकारी लॉरेंस वाडेल ने सन् 1905 में कहा था कि अगर यह पता लग गया कि दास एक जासूस थे तो फिर इसके नतीजे काफी भयानक होंगे। तिब्बत के लोग जिन्होंने दास की मदद की थी, उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई। इनके नौकरों के शवों को क्षत-विक्षत कर दिया गया। उनके हाथ और पैर काट दिए गए, और उनकी आंखें फोड़ दी गईं। ब्रिटेन को पता लग चुका था कि किंग राजवंश कितना ताकतवर है और तिब्बत में अंग्रेजों का कोई मददगार नहीं है।
युद्ध की भविष्यवाणी
सन् 1904 में वुड-ड्रैगन वर्ष के लिए तिब्बती धार्मिक कैलेंडर की तरफ से चेतावनी दी गई, ‘लुटेरों, झगड़ों और लड़ाई का एक महान युग आने वाला है।’ यहां के जोखांग मंदिर में पीतल के ड्रैगन के सिर से पानी की बूंदों के टपकने को गंभीर संकेत के तौर पर देखा गया, बावजूद इसके कि ल्हासा में बारिश नहीं हो रही थी। एक पुरोहित ने युद्ध की भविष्यवाणी कर डाली। एंडवेचरर फ्रांसिस यंगहसबैंड की अगुवाई में ब्रिटिश सैनिकों ने उस साल ल्हासा पर कब्जा कर लिया। गोलियों से बचने के लिए तिब्बती सैनिकों ने जादुई ताबीज बांधे हुए थे लेकिन इन्हें भी मार दिया गया था।
ल्हासा पर कब्जा
दलाई लामा के साथ हुई संधि की वजह से अंग्रेजों ने ल्हासा में सैन्य मौजूदगी का अधिकार हासिल कर लिया था। सन् 1910 की गर्मियों से, चीन ने खुद को फिर से स्थापित करना शुरू कर दिया। तिब्बत के खान क्षेत्र में विद्रोह की धमकियों के बाद भी किंग ने अपने सैनिकों को ल्हासा पर कब्जा करने का आदेश दिया। किंग सेना के सैनिकों ने रीमा शहर पर कब्जा कर लिया, और ग्रामीणों को असम के मैदानी इलाकों में एक व्यापक नई सड़क बनाने का आदेश दिया। सियांग नदी के उत्तर में कोंगपो के जंगलों में सैनिकों को देखा गया।
चीन-भारत की वार्ता
सन् 1947 में जब भारत को आजादी मिली तो चीन के साथ सीमाओं को लेकर कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिला। जो पहला आधिकारिक नक्शा जारी किया गया उसमें सिर्फ लद्दाख और हिमाचल प्रदेश को ही बॉर्डर के तौर पर दिखाया गया। इसमें ‘सीमा परिभाषित’ नहीं है, इस शब्द को प्रयोग किया गया था। सन् 1911 में ल्हासा में जो संघर्ष हुआ उसके बाद चीन और भारत के बीच शिमला समझौते पर वार्ता हुई। इसमें तिब्बत और भारत के बीच बॉर्डर को खत्म करने का जिक्र हुआ। चीन, वार्ता से उठकर चला गया था लेकिन दलाई लामा ने इस वार्ता को आगे बढ़ाया। उस समय उन्हें ब्रिटेन तिब्बत की आजादी के गारंटर के तौर पर नजर आ रहा था।
मैकमोहन ने खीचीं लाइन
सन् 1914 में ब्रिटिश अधिकारी हेनरी मैकमोहन ने हिमालय पर एक रेखा खींची जो बर्मा से लेकर भूटान तक 1400 किलोमीटर तक थी। नया बॉर्डर अंग्रेजों की कल्पना के मुताबिक ही था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इस बॉर्डर को भूला दिया गया क्योंकि चीन, ब्रिटेन का साथी था और अमेरिका, जापान के खिलाफ था। सन् 1950 में पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी (PLA) के सैनिक ल्हासा में पहुंचे और भारत की सीमाएं ही बदल गईं। जो नक्शा इस साल जारी किया गया था उसे चार साल बाद वापस ले लिया गया।
तिब्बत पर हमले के बाद साफ हो चुका था कि चीन, भारत के साथ लगी सीमाओं को नहीं मानता है। जब चाऊ एनलाई भारत आए तो उन्होंने सीमाओं पर भारत की समझ पर कुछ नहीं कहा। इसी समय उत्तर प्रदेश के बाराहोती पास में भारतीय सेना की मौजूदगी पर आपत्ति दर्ज कराई गई। कई बार चीन की सेना ने घुसपैठ की और पड़ोसी ने इस पर भी अपना दावा जताया।
नेहरू ने दिया जवाब
सन् 1958 में तो चीन ने हद ही कर दी जब उसने अपने नए आधिकारिक नक्शे में भारत के पूरे नॉर्थ ईस्ट पर अपना अधिकार जता दिया। साथ ही लद्दाख, उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश को भी अपना बताया। एनलाई ने तत्कालीन भारतीय पीएम जवाहर लाल नेहरू से बार-बार सर्वे की मांग की और हर बार नेहरू ने इसे खारिज कर दिया। 14 दिसबंर 1958 को नेहरू ने एनलाई को लिखा, ‘भारत के इन हिस्सों को लेकर कोई भी शंका नहीं होनी चाहिए। मुझे नहीं पता कि किस तरह से सर्वे इन तय सीमाओं को प्रभावित करेंगे।’