बेशक ही इंसान चांद व मंगल ग्रह पर घर बनाने का सपना देख रहा हो। मगर हिमाचल प्रदेश (Himachal Pardesh) में एक तबका ऐसे भी है, जो 2 गज जमीन के लिए तरसता है। ये कहानी “सिरमौर में “गुज्जर समुदाय” की है, जो 21 वीं सदी में भी खानाबदोशी (nomads) का जीवन जी रहे हैं। आधुनिकता की चकाचौंध से दूर अपने मवेशियों के साथ जंगल-जंगल घूम कर जीवन यापन करने वाले “सिरमौर गुज्जर समुदाय” के लोग मैदानी इलाकों से पहाड़ी क्षेत्रों के छः माह के प्रवास पर पहुंच चुके हैं। हालांकि समुदाय का एक वर्ग मुख्यधारा में भी शामिल हो चुका है, लेकिन आबादी का एक हिस्सा पुश्तैनी तौर तरीकों से ही जीवन यापन कर रहा है।
सिरमौर के संगड़ाह, राजगढ़ व शिलाई के जंगलों में सर्दियों से अप्रैल मई महीने में समुदाय अपनी भैंस, गाय, बकरी व भारवाहक बैल आदि मवेशियों (Cattle) के साथ गर्मियां बिताने पहुंचते हैं। चूड़धार की पहाड़ियों पर बर्फ का दौर जारी होने की वजह से कुछ दिन ये समुदाय मध्यम ऊंचाई वाले इलाकों में ही रहेगा। बारिश के चलते खुले आसमान के नीचे रातें बिताने में दिक्कत भी आ सकती है। सितंबर माह में ऊपरी हिस्सों मे हिमपात शुरू होने पर गुज्जर समुदाय मैदानी इलाकों का रुख करना शुरू कर देता हैं। गंतव्य तक पहुंचने में इन्हे एक माह का समय लग जाता है। इनके मवेशियों के सड़क से निकलने के दौरान वाहन चालकों को कईं बार जाम की समस्या से जूझना पड़ता है।
सिरमौरी साहित्यकारों व इतिहासकारों के अनुसार “सिरमौरी गुज्जर” छठी शताब्दी (6th century) में मध्य एशिया से आई “हूण जनजाति” के वंशज हैं। समुदाय का सोशल मीडिया, सियासत, औपचारिक शिक्षा, एंड्रॉयड फोन आदि से दूर- दूर तक का नाता नहीं है, हालांकि नई पीढ़ी के कुछ लोग धीरे-धीरे आधुनिक परिस्थितियों के मुताबिक खुद को बदल रहे हैं।
पिछले कुछ अरसे से गुज्जर समुदाय के कुछ लोग केवल बातचीत करने के लिए मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने लगे हैं। इनके कुछ बच्चे स्कूल भी जाने लगे हैं। खास बात ये है कि समुदाय को जंगलो में मिलने वाली जड़ी बूटियों (Herbs) का खासा ज्ञान होता है इससे न केवल खुद का इलाज करते है, बल्कि मवेशियों को भी ठीक करते है। शोधकर्ता इस पर रिसर्च भी करते रहे हैं।
गुज्जर समुदाय के अधिकतर परिवारों के पास अपनी जमीन व घर नहीं है। हालांकि कुछ परिवारों को सरकार द्वारा पट्टे पर जमीन उपलब्ध करवाई गई है। काफी परिवार नौकरी, कारोबार व खेती का धंधा कर अपने लिए घर व जमीन की व्यवस्था कर चुके हैं। घुमंतू लोगों की जनसंख्या महज 2,000 के करीब बताई जाती है। कुछ दशक पहले तक अनाज के बदले दूध देने वाले उक्त समुदाय के लोग अब अपने मवेशियों का दूध, खोया व घी ( khoya and ghee) आदि दूध बेच कर जीवन यापन करते हैं। जिला में यह एकमात्र घुमंतू समुदाय (nomadic community) है, मुस्लिम धर्म से संबंधित इस जनजाति के पास जंगल में रोजा नमाज व पूजा-पाठ का समय नहीं रहता है।
जंगलों में परिवार के साथ जिंदगी बिताने के दौरान न केवल समुदाय के लोगों न केवल प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है, बल्कि कई बार जंगली जानवरों, स्थानीय लोगों, वाहन चालकों व नियमों की अवहेलना पर वन विभाग (forest department) के कर्मचारियों (Employee) की बेरुखी का भी सामना करना पड़ता है। मैदानी इलाकों पांवटा साहिब व नाहन से इन्हें चूड़धार तक पहुंचने में उन्हें करीब एक माह का वक्त लग जाता है।
पहाड़ों का ग्रीष्मकालीन प्रवास (summer vacation) पूरा होने के बाद उक्त घुमंतू समुदाय अपने मवेशियों के साथ मैदानी इलाकों के अगले छह माह के प्रवास पर निकल जाएगा। इसी तरह इनका पूरा जीवन बीत जाता है। गत वर्ष गिरिपार की करीब 1 लाख 60 हजार की स्वर्ण आबादी को अनुसूचित जनजाति दिए जाने को केंद्रीय कैबिनेट की मंजूरी के खिलाफ समुदाय भी नाराज हो गया था।