रतन टाटा वो शख्सियत हैं जिन्होंने कारोबारी और अपना सामाज के प्रति जिम्मदारियों को एक साथ बखूबी निभाया है. भले ही वो Tata Group को आसमान की बुलंदियों पर पहुंचाने के बाद रिटायर हो चुके हैं, लेकिन आज भी टाटा ग्रुप उनके नाम के बिना अधूरा है. भारत सरकार ने उनकी उपलब्धियों को देखते हुए 2008 में उन्हें दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण और 2000 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया.
रतन टाटा की गिनती आज देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों में होती है. विरासत में जरूर टाटा का नाम मिला था मगर यहां तक पहुंचने का सफर बिलकुल भी आसान नहीं रहा. बचपन में पारिवारिक समस्याओं से जूझने वाले रतन टाटा के लिए उनकी दादी बड़ा सहारा बनीं.
दादी की सिखाई कई बातें रतन टाटा की जिंदगी में काम आईं और ये बात वो खुद कहते हैं. मगर दादी की एक सीख ऐसी थी जिसने रतन टाटा की पूरी जिंदगी ही बदल दी. दादी के वो शब्द जो रतन टाटा के मन में छप गए ‘ह्यूमंस ऑफ बॉम्बे’ से बातचीत में टाटा कहते हैं:
“यूं तो मेरा बचपन खुशगवार था मगर जैसे-जैसे मैं और मेरा भाई बड़े हुए, हमें रैगिंग और निजी मुश्किलों का सामना करना पड़ा… अपने पेरेंट्स के तलाक की वजह से… जो उन दिनों आज की तरह आम बात नहीं थी. लेकिन मेरी दादी ने हमें हर तरह से पाला. जब मेरी मां की दूसरी शादी हुई तो स्कूल में लड़कों ने हमारे बारे में काफी कुछ उलटा-सीधा कहना शुरू कर दिया था. लेकिन हमारी दादी ने हमें हर कीमत पर मर्यादा बनाए रखने को कहा, वो बात आज तक मेरे साथ है.”
ताउम्र काम आई दादी की वो सीख टाटा आगे कहते हैं, “दादी की बात मानकर हमने उन परिस्थितियों से मुंह मोड़ लिया जिनमें हम शायद लड़ जाते. मुझे आज भी याद है, दूसरे विश्व युद्ध के बाद, वह मुझे और मेरे भाई को गर्मी की छुट्टियों में लंदन ले गई थीं. वहां मैंने काफी सारे जीवन मूल्य सीखे. वह हमसे कहतीं, ‘ये मत कहो’ या ‘उस बारे में चुप रहो’ और वहीं से हमारे दिमाग में ‘सबसे ऊपर मर्यादा’ की बात घर कर गई. वह हमेशा हमारे लिए मौजूद थीं.”