प्रजातियों के विलुप्त होने का छठा चरण शुरू… नहीं संभले तो 2200 तक आ सकती है भयानक तबाही!

Mass Extinction of Species News : अगर इंसान नहीं संभला को 2200 तक कई प्रजातियां सिर्फ हमारी कल्पनाओं का हिस्सा बनकर रह जाएंगी। लेकिन अगर वैश्विक स्तर पर समाज कुछ मूलभूत, किंतु संभव बदलावों को स्वीकार कर ले, तो इस खतरे को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

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प्रतीकात्मक फोटो

एडिलेड : विभिन्न प्रताजियां असामान्य तेजी से विलुप्त हो रही हैं और हमारे आज के प्रयास ही भविष्य में ऐसी भयंकर स्थिति को रोक सकते हैं, जिसके बारे में कल्पना भी नहीं की जा सकती। दुनिया भर में बढ़ते सबूत इस बात का इशारा कर रहे हैं कि हम प्रजातियों के सामूहिक रूप से विलुप्त होने के छठे चरण में प्रवेश कर गए हैं। यदि प्रताजियों के विलुप्त होने की प्रक्रिया मौजूदा दर से जारी रहती है, तो हम 2200 तक अधिकतर प्रजातियों को खो देंगे। इसके मानव स्वास्थ्य और कल्याण पर गंभीर परिणाम होंगे, लेकिन ये परिणाम अपरिहार्य नहीं हैं।

पृथ्वी पर जीवन का पहला संकेत मिलने के बाद, यानी 3.5 अरब साल पहले जीवाश्म साक्ष्य की समयावधि में अस्तित्व में रहीं लगभग 99 प्रतिशत प्रजातियां अब विलुप्त हो गई हैं। इसका अर्थ है कि समय के साथ विकसित प्रजातियां विलुप्त होने वाली प्रजातियों का स्थान ले लेती हैं, लेकिन ऐसा समान दर से नहीं होता। करीब 54 करोड़ साल पहले प्रजातियों के ‘कैम्ब्रियाई विस्तार’ का पता चला था। इसके बाद से जीवाश्म रिकॉर्ड में प्रजातियों के सामूहिक रूप से विलुप्त होने के कम से कम पांच चरणों का पता लगाया जा चुका है।
कृषि की शुरुआत से आधी रह गई वनस्पति
इस समय प्रजातियों के विलुप्त होने की दर के बढ़ने का खतरा है। दरअसल, पृथ्वी की जीवन-समर्थन प्रणाली को सबसे अधिक नुकसान बीती शताब्दी में हुआ है। विश्व में मनुष्य की आबादी 1950 के बाद से तिगुनी हो गई है और अब लगभग 10 लाख प्रजातियों पर बड़े पैमाने पर विलुप्त होने का खतरा है। लगभग 11,000 साल पहले कृषि की शुरुआत के बाद से पृथ्वी पर कुल वनस्पति आधी रह गई है। बेपरवाह व्यक्ति यह सोच सकता है कि जब तक उन प्रजातियों को खतरा नहीं है, जो आधुनिक समाज को जीवित रहने के लिए संसाधन मुहैया कराती हैं, तब तक यह कोई समस्या नहीं है, लेकिन यह सोच गलत है।
मानव स्वास्थ्य पर होगा प्रतिकूल असर
प्रजातियों के विलुप्त होने पर जैव विविधता से मिलने वाले लाभ नष्ट हो जाते हैं। इससे जलवायु परिवर्तन होता है और मिट्टी के क्षरण में वृद्धि होती है जिससे फसलों की पैदावार कम होती है, पानी और हवा की गुणवत्ता कम होती है, बाढ़ आने और आग लगने की घटनाएं बढ़ती हैं और मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता हैं। एचआईवी/एड्स, इबोला और कोविड-19 जैसे रोग भी प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में बदलाव के प्रति हमारी उदासीनता का परिणाम हैं।

कैसे रुकेगी आने वाली तबाही?
हम सतत आर्थिक विकास के लक्ष्य को रोक सकते हैं, और कंपनियों को कार्बन मूल्य निर्धारण जैसे स्थापित तंत्र का उपयोग करके पर्यावरण की स्थिति को बहाल करने के लिए बाध्य कर सकते हैं। हम राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रिया में कॉरपोरेट जगत के अनुचित प्रभाव को सीमित कर सकते हैं। महिलाओं को शिक्षित और सशक्त बनाने तथा परिवार नियोजन के मामले में उन्हें निर्णय लेने का अधिक अधिकार देकर पर्यावरण विनाश को रोकने में मदद मिलेगी। हम थोड़े से प्रयास और दीर्घकालीन योजना के जरिए अपने भविष्य की भयावहता को थोड़ा कम कर सकते हैं।