मिल्खा सिंह को हराने वाला धावक, जिनके परिवार को गरीबी में अर्जुन अवार्ड तक बेचना पड़ा

धावक मिल्खा सिंह की कहानी किसी से छिपी हुई नहीं है. उनकी जिंदगी पर बनी फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ के ज़रिए उनके जीवन के कई पहलुओं को जगजाहिर किया गया. रुपहले पर्दे पर मिल्खा सिंह का किरदार निभाने वाले कलाकार फरहान अख्तर ने इस फिल्म के बाद खूब सुर्खियां भी बटोरीं.

मगर आज बात मिल्खा सिंह की नहीं. बल्कि उस ‘फ्लाइंग सिख’ की, जिसने साल 1962 में कोलकाता के अंदर आयोजित राष्ट्रीय खेलों में न सिर्फ़ मिल्खा सिंह को मात दी.

अपितु इस प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल भी अपने नाम किया. मगर जब वह मरा तो उसके परिवार की हालात बहुत बुरी थी. उन्हें गरीबी के कारण इस धावक का अर्जुन अवार्ड तक बेचना पड़ा. यह कहानी है माखन सिंह की, जो स्टार होकर भी गुमनामी में मर गया!

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साल 1959 में चमके धावक माखन सिंह

1 जुलाई 1937 को होशियारपुर में जन्मे माखन ने कम उम्र में ही दौड़ना शुरू कर दिया था. उनकी नन्हीं आंखों में एक धावक बनने का सपना शुरू से ही था.

हालांकि इसे उड़ान तब मिली, जब वह भारतीय सेना का हिस्सा बने. सीनियर अधिकारियों ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें दौड़ के लिए तैयार करना शुरू कर दिया.

साल 1959 उनके लिए बड़ी उपलब्धि लेकर आया. यह वही साल था, जब उन्होंने कटक के नेशनल गेम्स में 400 मीटर में ब्रोंज जीत कर राष्ट्रीय स्तर पर खुद को साबित किया.

साथ ही लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचने में सफल रहे. इस उपलब्धि के फल स्वरूप उन्हें साल 1962 में जकार्ता के एशियन गेम्स का हिस्सा बनाया गया.

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गोल्ड गेम्स रिकॉर्ड के साथ दिलाई जीत

इस टूर्नामेंट में उन्होंने मिल्खा सिंह, जगदीश सिंह व दलजीत सिंह के साथ 4×400 मीटर रिले रेस में भाग लिया और गोल्ड गेम्स रिकॉर्ड के साथ भारत को जीत दिलाई. इस कीर्तिमान के साथ माखन का नाम होने लगा था. मगर उन्हें असली पहचान तब मिली, जब उन्होंने 1964 में कलकत्ता के नेशनल गेम्स में उस समय के सबसे बड़े धावक मिल्खा को 400 मीटर में पीछे छोड़ दिया.

वह मिल्खा को हराने वाले एकलौते भारतीय थे. लिहाज़ा सबकी जुबान पर अब उन्हीं का नाम था. आगे भी माखन इसी तरह दौड़ते रहे. 1959 और 1964 के बीच अपने करियर में उन्होंने कुल 16 पदक जीते, जिनमें 12 गोल्ड, 3 सिल्वर और 1 ब्रांज शामिल थे.

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रिटायरमेंट के बाद बिगड़ी माखन की हालत

साल 1972 में, माखन ने भारतीय सेना से सेवानिवृत्त हुए तो दौड़ का मैदान उनसे कोसों दूर छूट गया. अगले कुछ सालों में तो जैसे उन पर मुसीबत का पहाड़ गिर गया.

जहां एक तरफ उनके एक बेटे की किसी ने गोली मारकर हत्या कर दी. वहीं दूसरा बेटा घर चलाने के लिए बर्तन धोने पर मजबूर हुआ. माखन ने परिवार को संभालने की बहुत कोशिश की.

उन्होंने अपने गांव में एक स्टेशनरी की दुकान खोली, ट्रक चलाया. मगर स्थिति नहीं सुधरी. इस दौरान माखन डायबिटीज के मरीज भी हो गए. एक दिन कांच के एक टुकड़े ने उनके पैर को घायल कर दिया. घाव इतना गहरा था कि डॉक्टरों के पास उनका पैर काटने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था. इस हादसे ने माखन को पूरी तरह से तोड़ दिया.

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अर्जुन पुरस्कार की नीलामी करनी पड़ी

साल 2002 में जब माखन ने हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंदीं, तो उनके परिवार को घर का चूल्हा जलाने के लिए 1964 में उन्हें मिले अर्जुन पुरस्कार तक को नीलाम करना पड़ा.

भले ही आगे मक्खन सिंह के परिवार की खराब हालत का संज्ञान लेते हुए पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने उनके परिवार के लिए पांच लाख रुपए की सहायता की घोषणा की थी.

मगर इसे यह नहीं छिप जाता कि देश का एक महान धावक गुमनामी में दुनिया से कूच कर गया. माखन एकलौते खिलाड़ी नहीं हैं, जिनकी कहानी दुखद है. इतिहास के पन्नों में कई ऐसे नाम दर्ज हैं, जिन्हें अच्छे प्रदर्शन के बाद भी सफलता के शिखर प्राप्त नहीं हुए और वह गुमनामी में मर गए.