ज़िंदगी बहुत से अवसर देती है खुद की काबिलियत साबित करने के. वो तो हम ही हैं जो किसी एक रास्ते को ही अपना सच मान कर ज़िंदगी भर उसी पर चलते रहते हैं. स्कूल में पढ़ रहे बच्चों के ऊपर बचपन से ही ये बोझ लाद दिया जाता है कि उन्हें क्या बनना है और वो अपना सारा जीवन उसी लक्ष्य को हासिल करने में लगा देते हैं. कुछ तो कामयाब होते हैं और बाक़ी के अपने आप को नाकामयाब मान कर जो भी काम मिलता है उसी को करते हुए पूरी ज़िंदगी बिता देते हैं.
दूसरी तरफ़ वो लोग भी हैं जिन्हें किस्मत ने किताबों से माथा मारने का ज़्यादा मौका ही नहीं दिया. घर चलाने के लिए काम धंधे पर लग गये लेकिन इनके पास कई रास्ते थे. जिस पर चल कर ये कामयाबी पा सकते थे लेकिन इन्होंने भी जो चल रहा है उसी को सच मान लिया. इन दोनों के बीच एक तीसरे किस्म के इंसान भी हैं जो अपनी परिस्थितियों से लड़ कर अपने मन की राह बना लेते हैं. भले ही ऐसे लोग संख्या में बहुत कम हैं लेकिन इतिहास यही लोग लिखते हैं. इसका एक प्रबल उदाहरण हैं मणिपुर के अमरजीत मैबम. अमर ने उस रास्ते को अपना सच नहीं माना जिस पर ज़िंदगी की जद्दोजहद ने इन्हें धकेला था. इन्होंने अपनी किस्मत खुद लिखी अपना रास्ता खुद चुना और आज इनकी एक अलग पहचान है.
तो चलिए आज आपको बताते हैं उस बस कंडक्टर की कहानी, जिसने अपना रास्ता खुद चुना और बन गया एक फिल्म मेकर
कौन हैं अमरजीत मैबम ?
मणिपुर जैसे लैंडलॉकड स्टेट में आम जनजीवन से जुड़ी सभी जरूरतें मुहैया कराने में सबसे बड़ा योगदान होता है उन ट्रक ड्राईवरों का जिनकी ज़िंदगी हाइवे पर दौड़ती रहती है, अमरजीत मैबम वो शख्स हैं जो इन ड्राईवरों के इस समर्पण को लोगों के सामने ले कर आए. दरअसल अमर ने एक फिल्म बनाई जिसका नाम है हाइवेज़ ऑफ़ लाइफ (Amar Maibam’s Highways of Life). इस फिल्म में उन ट्रक ड्राईवरों का संघर्ष दिखाया गया है जो इम्फाल से मोरेह तक का सफर तय कर के यहां के लोगों तक खाना और अन्य ज़रूरी समान पहुंचते हैं.अमर ने ये डॉक्यूमेंटरी फिल्म 5 साल में पूरी की और इस दौरान इन्होंने इस हाइवे को ही अपना घर मान लिया. इससे पहले भी यही हाइवे इनका घर था क्योंकि अमर एक बस कांडक्टर थे.
अमर से पहले उनके पिता को जानना जरूरी है
अमर इम्फाल के रहने वाले हैं. इनके पिता एमए सिंह भी एक फिल्म मेकर ही थे. वो भी ऐसे फिल्म मेकर जिन्होंने पुणे के फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट से फिल्म एडिटिंग और निर्देशन की पढ़ाई की. यहां डैनी इनके सहपाठी थे तथा शबाना आज़मी इनकी जूनियर थी. 1975 में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद सिंह ने मुंबई में रहते हुए दूरदर्शन में काम किया लेकिन बाद में अपने सपनों को सच करने के लिए वह मणिपुर लौट आए. ये इनका अपनी मिट्टी के प्रति स्नेह ही था वर्ना लोग अपना भाग्य बनाने छोटे शहरों से मुंबई की ओर भागते हैं लेकिन ये अपनी मिट्टी में लौट आए. यहां इन्हें इम्फाल स्थित एक रेडियो स्टेशन में काम करने का मौका भी मिला. सपने बड़े थे जिन्हें पूरा करने के लिए इनका आज़ाद रहना जरूरी था इसीलिए इन्होंने मना कर दिया.
1982 में अमर के पिता की बनाई हुई पहली फिल्म रिलीज़ हुई जिसे 1983 में 31वें नेशनल फिल्म अवार्ड के दौरान बेस्ट फिचर फिल्म इन मणिपुरी लैंग्वेज के अवार्ड से नवाज़ा गया. इस फिल्म की सफलता के बाद अमर के पिता की हिम्मत को और बल मिला. कुछ साल बाद इन्होंने अपनी पहली कलर फिचर फिल्म बनाई. ये दूसरी कलर मणिपुरी फिल्म थी. सिंह के हौसले बुलंद होते गये तथा वो एक के बाद एक नए प्रयोग करते रहे. अमर उस समय मिडिल स्कूल के छात्र थे. अमर के पिता ने उन्हें एक कैमरा ले दिया और उसे चलाना भी सिखाया. यही वो दौर था जब पिता को देख कर अमर फिल्म मेकर बनने के लिए प्रेरित हुए.
शुरू हुईं जीवन की कठिनाइयां
अगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहता तो अमर के जीवन की राह आसान हो सकती थी मगर ऐसा नहीं हुआ. एक फिल्म के निर्माण के दौरान अमर के पिता को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा. किसी क्षेत्रीय भाषा की फिल्म में कोई भी निर्माता अपना पैसा नहीं फंसाना चाहता था, अमर के पिता को नेशनल फिल्म डवलपमेंट कार्पोरेशन की तरफ से कुछ सहायता मिली मगर वो काफ़ी नहीं थी. अंत में हार कर एमए सिंह ने अपनी सारी जमा पूंजी और परिवार की सम्पत्ति इस फिल्म में लगा दी.
1993 तक अमर का परिवार दिवालिया हो गया और इसके बाद अमर के जीवन का संघर्ष शुरू हुआ. पिता कमाते थे लेकिन उनकी कमाई से घर का खर्च चलना मुश्किल हो रहा था. 1995 में अमर ने मेट्रिक की पढ़ाई पूरी की थी तथा इसी साल उन्होंने घर की जिम्मेदारियां अपने कंधे पर उठा लीं. वह एक बस में कंडक्टर के सहायक लग गये. इसके बाद तो अमर की ज़िंदगी इम्फाल से इंडिया म्यानमार सीमा पर स्थित एक शहर मोरेह तक के बीच कटने लागी. फिल्म मेकर बनने का सपना देखने वाला एक बच्चा घर चलाने के लिए बस कंडक्टर बन गया.
कभी नहीं मानी हार
उलझी हुई ज़िंदगी की गांठे सुलझाते हुए अमर की ज़िंदगी इसी हाइवे पर कटने लगी. हां लेकिन इस बीच जो सबसे अच्छी बात रही वो ये कि अमर ने हार नहीं मानी. उन्होंने इसी हाईवे पर चलते हुए अपनी आगे की पढ़ाई पूरी की. हालांकि ये सब इतना आसान नहीं था. अमर बताते हैं कि मोरेह रोड पर यातायात बिल्कुल आसान नहीं है. सवारियों के अलावा म्यानमार से इम्फाल तक सामान भी लाना होता था.अलग अलग तरह के लोगों से पाला पड़ता, बॉर्डर पर पुलिस पूछताछ करती.अमर ने अपने जीवन की इन कठिनाईयों से बहुत कुछ सीखा. एक बार के ट्रिप में अमर और उनके साथियों को तीन दिन इम्फाल में रुकना होता. इस दौरान अमर अपनी पढ़ाई करते. इसी तरह अमर ने अपनी हाई स्कूल और फिर कॉलेज की पढ़ाई पूरी की.
धीरे धीरे पटरी पर आने लगी ज़िंदगी की गाड़ी
मेहनत में बहुत बरकत होती है ये बात साबित की अमर ने । अमर ने 10 साल बसों में काम किया. पांच साल उन्होंने बचत की और फिर खरीद लीं अपनी खुद की दो बसें. इन बसों के आने से अमर के परिवार की आर्थिक स्थिति संभलने लगी थी. अमर चाहते तो ट्रांसपोर्ट में ही अपना काम बढ़ा सकते थे लेकिन उनका ये सपना नहीं था. उनका सपना था अपने आसपास के हालतों को कैमरे में कैद करना और उसे दुनिया के सामने लाना. इतनी परेशानियां भी उनके मन से फिल्म मेकर बनने के सपने को मिटा नहीं पायी थीं. बल्कि उनके आसपास जो घट रहा था उसे देख कर उनकी इच्छा और प्रबल होने लगी थी.
2005 में अमर ने अपने पिता के साथ दूरदर्शन के कुछ प्रोग्रामों पर काम किया लेकिन उन्हें निराशा हाथ लगी. वह समझ गये कि उनके काम में अभी वो निखार नहीं आया जिसके दम पर वो अपना सपना पूरा कर सकें. इसी सोच के साथ खुद को बेहतर करने के लिए 2008 में अमर कोलकाता चले गये और यहां इन्होंने कोलकाता फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट में सिनेमेटोग्राफी की पढ़ाई शुरू कर दी.
सपनों को सच करने की शुरुआत
मर के सपने अब सच होने वाले थे । ये बात उन्हें तब कहां पता रही होगी, वह तो सिर्फ मेहनत कर रहे थे । 23 जुलाई 2009 को एक 22 वर्षीय युवक मणिपुर पुलिस द्वारा किए गए फेक एनकाउंटार का शिकार हो गया था । इसी एनकाउंटर में एक गर्भवती महिला को भी गोली लगी थी । इस घटना के बाद लोग सड़कों पर उतार आए । जगह जगह प्रदर्शन होने लगे । अमर हमेशा से ये सोचते थे कि उनकी शूट की गई फिल्में आम जनता की आवाज़ होनी चाहिए जो देश के अन्य लोगों तक पहुंचे । यहां भी अमर ने वही किया । इसी एनकाउंटर पर अमर ने अपनी पहली डॉक्यूमेंटरी फिल्म सिटी ऑफ़ विक्टिम बनाई ।
अपनी डॉक्यूमेंटरीज़ से इतर अमर ने 2012 में दूरदर्शन के लिए 10 एपिसोड का टेली प्ले भी तैयार किया । इसी तरह आगे बढ़ते हुए अमर ने शुरू की अपनी वो ड्रीम फिल्म जिसकी वजह से अमर को प्रसिद्धि प्राप्त हुई । इसके अलावा अमर ने अन्य फिल्में भी बनाईं । जैसे कि इनकी फिल्म माई जेनरस विलेज जो अधारित थी डैनी जाजो नामक एक ऐसे हथियारों के विक्रेता पर जो बाद में एक किसान बन गया । इस फिल्म को स्पेशल ज्युरी अवार्ड तथा बेस्ट म्युज़िक अवार्ड मिला । अमर की तीसरी डॉक्यूमेंटरी फिल्म रही नावा । फिल्म को नगालैंड फिल्म फ़ैस्टिवल में बेस्ट डॉक्यूमेंटरी फिल्म का अवार्ड मिला
पांच साल को निचोड़ कर बनाई 52 मिनट की फिल्म
अमर ने अपनी ज़िंदगी के वो कीमती 10 साल हाइवे पर बिता दिए जो कोई युवक अपने स्कूल और कॉलेज में गुज़ारता है । लेकिन अमर को इस बात का ज़रा भी अफसोस नहीं था क्योंकि इस दौरान जो कुछ भी वो स्कूल कॉलेज की क्लसों में सीखता उससे कहीं ज़्यादा इन सड़कों ने इसे सीख दिया था । एक बस कंडक्टर के तौर पर अमर इस रूट में चलने वाले ट्रक ड्राईवरों से रुबरु हो पाया । अमर ने उनकी ज़िंदगी और उनके संघर्ष को बहुत करीब से देखा और यहीं से उसके मन में हाइवेज़ फ़ॉर लाइफ बनाने का खयाल आया । इस फिल्म को शूट करते हुए अमर को जेल भी जाना पड़ा । पांच साल उसे इस हाइवे पर और गुज़ारने पड़े । इन पांच सालों को निचोड़ कर अमर ने 52 मिनट की वो फिल्म बनाई जो ट्रक ड्राईवरों के सच्चे संघर्ष को बयान करती है ।
मिला मेहनत का फल
अमर की पांच सालों की मेहनत ने देश में ही नहीं बल्कि देश से बाहर भी अपना जलवा दिखाया । अमर की फिल्म को ढाका में हुए 8वें लिबरेशन डॉकफेस्ट बांग्लादेश जैसे इंटरनेशनल कंपटीशन में बेस्ट फिल्म का अवार्ड मिला । इस फिल्म फ़ेस्टिवल में कई देशों की कुल 1800 फिल्में सबमिट हुई थीं जिनमें अमर की हाईवेज़ फ़ॉर लाइफ इकलौती भारतीय फिल्म थी और इसने सभी फिल्मों को पीछे छोड़ बेस्ट फिल्म का अवार्ड जीता । इस पांच दिन के फिल्म महोत्सव में बेल्जियम, स्लोवेनिया, जर्मनी, अर्जेंटीना, यूके, इटली और ईरान जैसे देशों से डॉक्यूमेंटरी आई थीं ।
इसके अलावा अमर की इस फिल्म ने मणिपुर स्टेट फिल्म अवार्ड्स में बेस्ट नॉन फ़ीचर फिल्म, बेस्ट डायरेक्शन, बेस्ट सीनेमेटोग्राफी और बेस्ट एडिटिंग जैसे ढेरों पुरस्कार जीते । इसके साथ ही यह फिल्म जकार्ता इंटरनेशनल डॉक्यूमेंटरी एंड एक्सपेरिमेंटल फिल्म फ़ेस्टिवल के लिए भी चुनी जा चुकी है ।
बेशक अमर की फिल्में वो मुकाम या उतना बड़ा दर्शक वर्ग ना पा सकी हों लेकिन एक फिल्म निर्माता जिस सपने को लेकर अपना कदम आगे बढ़ाता है इस फिल्म ने अमर के उन सपनों को ज़रूर पूरा कर दिया है । अमर हमेशा से यही चाहते थे कि वह उन लोगों को अपने कैमरे में समेटें जिनकी जिंदगियां इतनी आम हैं कि उनकी तरफ कोई ध्यान ही नहीं देता । अमर ने जो चाहा उसे वो पूरा कर रहे हैं । इसी चाहत ने उन्हें बस कंडक्टर से एक अवार्ड विनिंग फिल्म मेकर बना दिया.