वैसे तो परिस्थितियां कैसी भी हो जाएं हिंसा का समर्थन नहीं होना चाहिए. मगर कई बार ऐसा भी होता है कि इंसान के सामने हथियार उठाने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं बचता. एक डरी हुई बिल्ली भी हर तरफ से खुद को खतरे में देख कर शेरनी का रूप ले लेती है, फिर भला इंसान कितना सहेगा!
हमारा समाज आज भी इसी बहस में उलझा हुआ है कि हथियार उठाने वाला शख्स अपराधी है या फिर वे लोग, जिन्होंने ऐसे हालात पैदा किए जिनके कारण किसी को हथियार उठाने पड़े.
चंबल का इतिहास ऐसे डाकुओं के नाम से भरा पड़ा है, जिन्होंने अपना सब कुछ खत्म होने के बाद तंग आ कर हथियार उठाए. ये बात अलग है कि इनमें से अधिकतर का अंत ऐसे हुआ कि देखने वाले को ये समझ आ गया कि अपराध एक दलदल की तरह है, जहां इंसान एक बार फंसा तो फिर ज़िंदा वापस नहीं आ सकता. तो चलिए आज हम आपको बताते हैं कुछ ऐसे ही खूंखार डाकुओं के बारे में जिनके हाथों में बुरे हालातों ने थमा दी बंदूक और बना दिया डकैत :
1. मोहर सिंह गुर्जर
वो बहुत ही कम उम्र का लड़का था. ये सन 1958 की बात है, जब ये नौसीखिया लड़का बंदूक लेकर चंबल के दंगल में कूदा था. तब मान सिंह, लाखन सिंह लोकमान दीक्षित उर्फ लुक्का पंडित आदि जैसे चोटी के डकैतों का बोल बाला था. उधर पुलिस कई खूंखार डकैतों को ढेर कर चुकी थी, लेकिन इस नौसीखिए ने अपने छोटे से बदन में टन भर हिम्मत लिए 150 साथी जुटा कर अपनी एक नयी गैंग खड़ी कर दी. इसका नाम था मोहर सिंह गुर्जर.
मध्यप्रदेश के भिंड जिले के महगांव का ये लड़का आने वाले समय का तगड़ा पहलवान हो सकता था. हर सुबह अखाड़े में दंड मरता और फिर साथियों के साथ ज़ोर आज़माइश करता. सब कुछ आम था मगर फिर एक ज़मीनी विवाद ने मोहर की ज़िंदगी बदल दी. पुश्तैनी ज़मीन को लेकर विवाद छिड़ा तथा मोहर और उनके घर वालों को दुश्मनों ने जम कर पीटा. नया खून था, अपने और अपने परिवार के साथ हुई इस बदसलूकी को बर्दाश्त ना कर पाया. मसलन दुश्मन को गोलियों से भून दिया.
जिस उम्र में अभी भविष्य भी तय नहीं कर पाते लड़के उस उम्र में मोहर हत्यारा बन चुका था. पुलिस हर जगह ढूंढ रही थी. अब एक ही रास्ता दिखा कि डाकुओं के किसी गिरोह का हिस्सा बन जाए. मगर ये भी इतना आसान नहीं था. कोई भी गिरोह किसी नौसीखिए को अपने दल में लेकर गले का ढोल नहीं बनाना चाहता था. हर तरफ से भगा दिया गया.
अंत में मोहर ने फैसला किया कि वो खुद की गैंग बनाएगा. उसने अपने जैसे 150 साथियों को अपने साथ जोड़ा और मोहर सिंह गुर्जर की गैंग लेकर चंबल के सिंहासन की दौड़ में कूद पड़ा.
कौन जानता था कि ये नौसीखिया लड़का 14 सालों तक चंबल पर राज करेगा. 1960 में मोहर सिंह पर उस समय का सबसे ज़्यादा ईनाम था. ईनाम की रकम थी 2 लाख रुपये. पूरे गैंग पर 12 लाख का ईनाम. पुलिस रिकार्ड में मोहर सिंह और उसके गैंग पर 80 से ज़्यादा हत्याओं तथा 350 से ज़्यादा लूट के मामले दर्ज थे. वो मोहर डाकू ही था जिसने अपने समय में डकैती का एक नया इतिहास लिखा था.
बिहड़ के जंगलों में बैठ कर किसी ने पहली बार दिल्ली के किसी मूर्ति तस्कर का अपहरण कर 26 लाख की फिरौती वसूली थी. यह घटना 1965 की है. अंत में जब जे पी आंदोलन ने ज़ोर पकड़ा तब 500 बागी डाकुओं के साथ मोहर सिंह ने भी जय प्रकाश नारायण की गोद में अपना हथियार रख आत्म समर्पण कर दिया.
कहते हैं मोहर अपने असूलों का पक्का था. अपने डकैती के जीवन काल में मोहर और उसके गिरोह ने कभी किसी औरत की आबरू पर हाथ नहीं डाला था. मोहर का ये खुला ऐलान था कि अगर उनके गिरोह का कोई भी डाकू किसी औरत की तरफ आकर्षित हुआ तो उसे गोली मार दी जाएगी. पकड़े जाने के बाद भी मोहर सिंह का रौब कम ना हुआ.
मोहर ने एक साक्षात्कार में बताया था कि जब पुलिस के एक अधिकारी ग्वालियर जेल आए तब मोहर सिंह से बोले कि अगर हमें आठ दस दिन का समय और मिल जाता तो जेल के बाहर ही उसका खेल खत्म कर दिया जाता. इस पर मोहर सिंह का जवाब था कि अब भी कुछ नहीं बिगड़ा. कर लो मुठभेड़. जेल से बाहर रहते हुए कभी मेरी सूरत तक नहीं देख पाए और आज मुझे डरा रहे हो.
2. भूपत सिंह चौहान
गुजरात के काठियावाड़ का वो लड़का जिसका नाम था भूपत सिंह चौहान वागनिया दरबार में घोड़ों की देखभाल का काम किया करता था. बहुत कम उम्र से ही घोड़ों की दौड़ में उनके साथ भाग भाग कर भूपत की कद काठी निखर आई थी. इसके अलावा वागनिया के राजा अमरावाल के साथ शिकार पर जाने के कारण भूपत ने बंदूक चलाना भी सीख लिया था.
ऐसा लग रहा था मानो नियति उसके कल के लिए उससे सारी तैयारी करवा रही हो. जीवन सामान्य चल रहा था कि तभी भूपत के मालिक ने आत्महत्या कर ली. इसके साथ ही वागनिया दरबार पर 9 लाख की चोरी का इल्ज़ाम भी लग गया. जिसमें भूपत और उसके मालिक के खिलाफ वारंट जारी हो चुके थे. भूपत ये समझ गया था कि इस झूठे इल्जाम में फंसा कर उसे जेल में डालो दिया जाएगा.
इसी उधेड़ बुन के बीच उसकी मुलाकात उसके दोस्त राणा भगवान डांगर से हुई. राणा के परिवार के साथ पहले ही अनहोनी हो चुकी थी. उसकी बहन की आबरू लूट ली गयी थी तथा उसके पिता को मौत के घाट उतार दिया गया था.
राणा के सिर पर खून सवार था. उसे किसी हाल में भी अपने दुश्मन से बदला लेना था. भूपत के लिए अब दोस्त का बदला उसका अपना बदला हो चुका था. बस फिर क्या था उस बदले के लिए भूपत ने अपने जीवन का पहला कत्ल किया और इसी के साथ राणा और भूपत ने गैंग बना ली.
दो लोगों से बनी ये गैंग देखते देखते 42 डाकुओं के गिरोह में बदल गयी. हर तरफ भूपत डाकू के चर्चे होने लगे. 87 हत्याओं के साथ 8 लाख 40 हजार की लूट भूपत और उसकी गैंग के नाम दर्ज हो गयी.
भूपत ज्यों ज्यों पुलिस के आंख की किरकिरी बन रहा था, त्यों त्यों आम लोगों के बीच उसकी जयकार हो रही थी. इसका प्रमुख कारण था आम लोगों के प्रति भूपत की अच्छाई. भूपत पर कभी किसी महिला के साथ दुर्व्यवहार का आरोप नहीं लगा. उल्टा उसने कई गरीब लड़कियों की शादी करवाई और अपने लूट के माल में से दोनों हाथ खोल कर गरीबों में धन बांटा.
कहा तो यहां तक जाता है कि एक बार भूपत डाकू ने एक सुनार की दुकान लूटी. उस लूट में जितने सोने चांदी के सिक्के थे भूपन ने वे सब उछालने शुरु कर दिए जिससे गरीब लोग उसे उठा सकें. यही कारण था कि भूपत कभी पुलिस के हाथ नहीं आया क्योंकि उसे हर घर में शरण मिल जाती थी.
भले ही भूपत बहुत चालाक था लेकिन कहते हैं ना कि अंत सबका आता है. भूपत के आतंक का भी अंत हुआ. लेकिन भूपत पुलिस के हाथ ना आया क्योंकि वो सरहद पार कर पाकिस्तान चला गया.
यहां उसे अवैध रूप से सरहद पार करने के जुर्म में एक साल की कैद तथा 100 रुपये जर्माने की सजा हुई. भूपत ने सोचा कि वह फिर से अपने देश लौट जाएगा मगर ऐसा ना हो सका. उसे पाकिस्तान से दोबारा भारत ना लौटने दिया गया.
आखिरकार भूपत सिंह चौहान ने यहां अपना धर्म परिवर्तन कर लिया तथा बन गया अमीन यूसुफ. यहीं उसने एक मुस्लिम लड़की से शादी भी की तथा 2006 में पाकिस्तान की धरती पर ही दम तोड़ दिया. भूपत सिंह के जीवन पर ‘एक हतो भूपत’ ‘भूपत एक विलक्षण गुन्हेगार’ तथा डाकू भूपत सिंह जैसी कई किताबें भी लिखी गयीं.
3. मान सिंह राठौर
जिस डाकू की हम बात करने जा रहे हैं मजबूरी में हथियार उठाने का उससे बड़ा उदाहरण शायद ही कहीं मिले. आप समझ सकते हैं कि वो परिस्थितियां कैसी हो सकती हैं जब एक प्रौढ़ हो रहे व्यक्ति को हथियार उठाने पड़ जाएं. मान सिंह ने जब हथियार उठाए तब तक उनका पोता अपनी मां के गर्भ में पल रहा था. ताजमहल से 70-80 किमी की दूरी पर स्थित खेड़ा राठौर गांव से ताल्लुक रखते थे मान सिंह.
बहुत बड़े नहीं पर अच्छे खासे किसान थे. भरा पूरा परिवार था. किसान के पास तो एक ज़मीन ही होती है जिसके आसरे उसके परिवार का जीवन चलता है. और यही ज़मीन मान सिंह के बाग़ी बनने का कारण भी बनी.
गांव के साहूकारों ने उनकी जमीन पर कब्जा कर लिया. विवाद बढ़ गया और इसी विवाद में उनके बेटे की हत्या कर दी गयी. मान सिंह एक उम्र बिता चुके थे इसीलिए जोश में होश नहीं खोया उन्होंने बल्कि दोषियों के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ कर उन्हें सज़ा दिलाने की सोची.
मगर उनकी सोच धरी की धरी रह गयी जब फिर से उनके परिवार के 11 सदस्यों की हत्या कर दी गयी. पानी सिर से ऊपर निकल चुका था. मान सिंह को अब कहीं से भी न्याय मिलता नहीं दिख रहा था. अंत में उन्होंने अपने परिवार के 17 सदस्यों संग मिल कर हथियार उठा लिया.
उनके साथ जुल्म करने वालों के साथ साथ उन सभी की शामत आ गयी जो अन्य गरीब मजलूमों को सता रहे थे. उनके बंदूक की नाल जो 1939 में खुली उसका शोर 1955 तक लगातार सुनाई देता रहा. मान सिंह और उसके गिरोह के खाते में 185 हत्याओं और 1112 लूट के मामलों के साथ 32 पुलिस वालों की हत्याएं भी दर्ज हो चुकी थीं. एक तरह से मान सिंह चंबल के सभी डकैत गिरोहों में सबसे खूंखार माने जा चुके थे.
जुल्म के सताए हुए थे शायद यही कारण था कि उन्होंने कभी किसी गरीब के साथ जुल्म नहीं होने दिए. मजलूमों के मसीहा बने. एक तरफ वह कानून की धज्जियां उड़ा रहे थे तो दूसरी तरफ गरीबों की दुआओं से उनकी झोली भर रही थी. उम्र हो चली थी इसलिए उन्होंने अपनी जिम्मेदारी लोकमन दीक्षित उर्फ लुक्का पंडित के हाथ में सौंप दी.
साल 1955 में मान सिंह पुलिस की गोलियों का शिकार हो गये. मान सिंह गरीबों के बीच इतने प्रचलित थे कि उनकी मौत के बाद उनके गांव खेड़ा राठौर में उनका मंदिर भी बनवाया गया. इस मंदिर में उनके नाम की लिखी चालिसा के पाठ के साथ साथ सुबह शाम उनकी पूजा भी होती है. 1971 में मान सिंह पर एक फिल्म भी बनाई गयी थी जिसमें मान सिंह का किरदार निभाया था दारा सिंह ने.
4. फूलन देवी
बचपन से ही निर्भीक फूलन ने किसी से दबना नहीं सीखा था. वो किसी से भी भिड़ जाया करती थी. उसके पिता के लिए उसका यही स्वभाव चिंता का कारण था. यही वजह थी कि मात्र 11 साल की उम्र में उसके पिता ने उसका विवाह एक अधेड़ व्यक्ति के साथ कर दिया.
शुरुआत में फूलन ने इसका विरोध किया फिर अपनी नियति मानकर इसे स्वीकार कर लिया. असल में फूलन के ससुराल वाले ठीक नहीं थे. यहां तक कि उसके पति का भी उसके प्रति ठीक व्यवहार नहीं था. जल्द ही ये सब फूलन के बर्दास्त से जब बाहर हो गया, तो वह भागकर अपने घर लौट आई.
उसे उम्मीद थी कि उसके अपने लोग उसकी मदद करेंगे, लेकिन हुआ उल्टा! उसके चचेरे भाई ने इस मौके का फायदा उठाकर एक झूठे आरोप में जेल तक करा दी थी. वहां भी उसे यातनाओं के साथ शारीरिक शोषण झेलना पड़ा. जैसे-तैसे वह जेल से निकलने में सफल रही. किसी तरह उसका जीवन स्थिर हो जाए, इसके लिए पिता ने कोशिश करके उसे दोबारा से उसके पति के घर भेज दिया, किन्तु उनका व्यवहार फूलन के प्रति नहीं बदला और उसे मजबूरन दोबारा ससुराल छोड़ना पड़ा.
दो-दो बार अपने ससुराल से भाग आई लड़की को समाज द्वारा स्वीकार करना सहज नहीं था. बाद में परिस्थितियों से तंग आकर फूलन एक ऐसे रास्ते पर निकल पड़ी, जहां से वापसी संभव नहीं थी. असल में उसके जीवनी पर आधारित फिल्म बैंडिट क्वीन की मानें तो 20 साल की उम्र में उसे अगवा करने के बाद उसके साथ दुष्कर्म किया गया. इस कारण वह डाकुओं के गिरोह में शामिल हो गई.
हथियार उठाने के बाद सबसे पहले फूलन अपने पति के गांव पहुंची, जहाँ उसने उसे घर से निकाल कर लोगों की भीड़ के सामने चाकू मार दिया और सड़क किनारे अधमरे हाल में छोड़ कर चली गयी. जाते-जाते फूलन ने ये ऐलान भी कर दिया कि आज के बाद कोई भी बुढ़ा किसी जवान लड़की से शादी नहीं करेगा.
फूलन देवी का ख़ौफ उस समय हर किसी के चेहरे पर दिखने लगा जब उसने एक ही गांव के 21 ठाकुरों को लाइन में खड़ा कर गोली मार दी. इसी हत्याकांड के बाद फूलन ‘बैंडिट क्वीन’ नाम से मशहूर हुई. लूट पाट करना, अमीरों के बच्चों को फिरौती के लिए अगवा करना, आने जाने वाली लौरियों को लूटना फूलन के गिरोह का मुख्य काम था.
कुछ सालों तक यह चला, फिर किसी तरह से वह आत्म समर्पण के लिए राजी हुई. किन्तु इसके लिए उसकी अपनी शर्तें थीं. वह जानती थी कि उत्तर प्रदेश पुलिस उसकी जान की दुश्मन है, इसीलिए अपनी पहली शर्त के तहत मध्यप्रदेश पुलिस के सामने ही आत्मसमर्पण करने की बात कही.
दूसरी शर्त के तहत उसने अपने किसी भी साथी को ‘सज़ा ए मौत’ न देने का आग्रह किया. तीसरी शर्त के तहत उसने उस जमीन को वापस करने के लिए कहा, जो उसके पिता से हड़प ली गई थी. साथ ही उसने अपने भाई को पुलिस में नौकरी देने की मांग की.
फूलन की दूसरी मांग को छोड़कर पुलिस ने उसकी बाक़ी सभी शर्तें मान लीं. इस तरह फूलन ने 13 फरवरी 1983 को मध्यप्रदेश के भिंड में आत्मसमर्पण किया. फूलन देवी पर 22 कत्ल 30 लूटपाट तथा 18 अपहरण के मुकद्दमे चलाए गए. इन सभी मुकद्दमों की कार्यवाही में ही 11 साल बीत गए.
1994 में फूलन पर से सारे मुकद्दमे हटा कर उसे बरी कर दिया गया. अपना अधिकांश जीवन बीहड़ और जेल में गुजारने के बाद सन 1996 में फूलन ने राजनीति में जाने की राह बनायी. समाजवादी पार्टी के टिकट से मिर्जापुर की सीट जीत कर वह सदन का हिस्सा बनी. उसका दो बार जीतना यह दर्शाता है कि कहीं न कहीं उसने जनता के दिल में अपनी जगह बना ली थी.
किन्तु, कहते हैं न कि अतीत किसी का पीछा नहीं छोड़ता, वह किसी न किसी रूप में सामने आ ही जाता है. 25 जुलाई 2001 को उसके आवास के सामने ही शेर सिंह राणा नामक व्यक्ति ने उसकी गोली मारकर हत्या कर दी. हत्या के बाद शेर सिंह राणा ने इस बात को स्वीकार किया कि उसने फूलन देवी को मार कर बेहमई नरसंहार का बदला लिया.
5. संतोख बेन जडेजा
ये कहानी किसी डकैत की नहीं बल्कि एक लेडी डॉन की है. एक ऐसी लेडी डॉन जो एक गांव से गुजरात के पोरबंदर शहर नें अपने पति के साथ काम की तलाश में आई थी. पति का नाम था सरमन जडेजा और लेडी डॉन का नाम था संतोख बेन जडेजा. जिस पोरबंदर में अहिंसा के पुजारी कहे जाने वाले महात्मा गांधी का जन्म हुआ उसी पोरबंदर में हिंसा की इबारत लिखी संतोख बेन ने.
1980 के दशक में पोरबंदर की इकलौती कपड़ा मिल महाराणा में काम खोजते हुए कुतियाना से सरमन जडेजा और उसकी पत्नी यहां आए. काम मिल गया ज़िंदगी चलने लगी. लेकिन यहां का एक दस्तूर था. उन दिनों मिल में काम करने वाले मजदूरों से हफ्ता वसूला जाता था.
इस मिल में देबू बाघेर हफ्ता वसूलता था. एक दिन जब देबू ने सरमन से हफ्ता मांगा तो उसने मना कर दिया. बात बढ़ गयी और मारा मारी पर उतर आई. नतीजा ये निकला कि अपनी जान बचाने के लिए सरमन ने देबू को मार दिया.
उसे मारने के बाद सरमन की धाक बढ़ गयी. जहां पहले लोग देबू से डरते थे वहीं सरमन के नाम का सिक्का चलने लगा. देबू का सारा काम भी सरमन के हाथ आ गया. लेकिन सरमन इस बात से अंजान था कि असल में वो ये रास्ता अपने लिए नहीं, बल्कि अपनी बीवी के लिए बना रहा है.
1986 में सरमन के दुश्मनों ने गोली मार कर उसकी हत्या कर दी. हत्या की खबर सुन लंदन में रहने वाला सरमन का भाई भारत आया और अपनी गैंग बनाने की बातें करने लगा. दूसरी तरफ संतोख बेन ये नहीं चाहती थी कि उसके परिवार से अब कोई इस धंधे में आए. इसीलिए उसने ऐलान कर दिया कि अपने पति की जगह वो लेगी.
संतोख बेन ने ये भी ऐलान किया कि दुश्मन गैंग के हर शख्स को मार दिया जाए. इसके लिए उसने हर खून पर एक लाख का बड़ा ईनाम रखा. 14 लाशें गिरीं और इस कत्ल ए आम के बाद संतोख बेन गॉडमदर के नाम से प्रचलित हो गयीं. इसके बाद संतोख ने राजनीति का रुख किया लेकिन उसका काला धंधा चलता रहा.
उसके गैंग में 102 सदस्य हो गये थे तथा उन पर अब 525 मुकद्दमें दर्ज थे. इन में से 9 खुद संतोख बेन के ऊपर ही थे. संतोख बेन पर 1999 में गॉडमदर नाम से फिल्म भी बनी. जिसमें संतोख बेन की भूमिका में शबाना आजमी दिखी थीं.
राजनीति में आने के साथ साथ संतोख बेन कई बार जेल भी गयीं तथा उन पर कई हत्या के आरोप भी लगे. अंत में 31 मार्च 2011 को दिल का दौरा पड़ने के कारण उनकी मौत हो गयी.
6. शिव कुमार पटेल
अगर आप बुंदेलखंद में शिव कुमार पटेल का नाम पूछेंगे तो शायद कोई भी सही से बता नहीं पाएगा मगर वहीं आप ददुआ का नाम लेंगे तो हर कोई उससे जुड़ीं सैकड़ों कहानियां आपको सुना देगा. चित्रकूट के देवकली गांव में राम सिंह पटेल के घर जन्मा शिव कुमार पटेल एक समय में आतंक का पर्याय बन चुका था.
वह एक प्रेत के समान था जिसका भय सबके मन में था लेकिन उसे देखा किसी ने नहीं था. आज भी उसकी पुलिस रिकार्ड में लगी फोटो और फतेहपुर में बने उसके मंदिर में लगी प्रतिमा के सिवाए उसकी कोई पहचान नहीं है.
22 साल की उम्र थी जब शिव कुमार पटेल गायब हो गया और लोगों के सामने आया ददुआ डकैत. शिव कुमार के ददुआ बनने का कारण था उसके पिता की बेरहमी से मौत. बताया जाता है कि आपसी दुश्मनी के कारण ददुआ के पिता को पहले नंगा कर के पूरे गांव में घुमाया गया तथा बाद में कुल्हाड़ी से उनकी हत्या कर दी गयी.
इस घटना के बाद ददुआ के सिर पर खून सवार हो गया तथा उसने अपने गांव के आठ लोगों को मौत के घाट उतार दिया. इन हत्याओं को अंजाम देने के बाद शिव कुमार वहां से फरार हो गया तथा जब वो लोगों के सामने आया तब तक वह ददुआ बन चुका था.
मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के थानों में उसके खिलाफ कुल 400 से ज़्यादा केस दर्ज थे. इनमें लूट डकैती सहित हत्या के कई मामले शामिल थे. डाकुओं के आतंक का अनुमान उन पर रखे ईनाम से लगाया जाता रहा है. अब आप ही अंदाजा लगा लीजिए कि ददुआ कितना खूंखार था जिस पर उत्तर प्रदेश ने 10 लाख का ईनाम रखा था वहीं उसकी खबर देने वाले को मुख्यमंत्री की तरफ से 10 लाख अतिरिक्त देने की घोषणा की गयी थी.
32 सालों तक अपना डर बनाए रखने वाले ददुआ को मानकपुर जनपद चित्रकूट में एसटीएफ की टीम ने मार गिराया. अपनी मौत से पहले उसने अपने परिवार को राजनीति में सक्रिय कर दिया था. ये वो समय था जब ददुआ के डाकू 50 100 गांवों में जा कर ये फरमान सुना आते थे कि गांव वालों को किसे वोट देना है. वैसे भी ददुआ की छवि एक तरह से गरीबों के मसीहा जैसी थी.
7. सीमा परिहार
ये नाम आज की तारीख में राजनीति से भी जुड़ा है, इस चेहरे को लोग बिग बॉस में भी देख चुके हैं लेकिन इस महिला की इससे पहले की कहानी बहुत भयावह और भय से भरी हुई रही. 1983 की बात है जब जुलाई की एक बरसती रात को एक परिवार अपने कच्चे मकान में दुबका पड़ा था. चार बेटियों और दो बेटों के साथ माता पिता को डर था कि कहीं मकान गिर ना जाए. लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनके लिए ये बरसात नहीं बल्कि कुछ ही देर में उनके घर धावा बोलने वाले डकैत काल हैं.
कुछ ही देर में गोलियों की तड़तडाहट के साथ कई डकैत घर में घुसे और चार बेटियों में से एक को ज़बरदस्ती अपने साथ ले गये. जिस 13 साल की लड़की को डाकू अपने साथ चंबल की घाटियों में ले गये थे उसे आज लोग सीमा परिहार के नाम से जानते हैं.
आगे चल कर सीमा को दस्यु सुंदरी का नाम भी मिला. सीमा के अपहरण का आदेश दिया था डाकू लाला राम बागी ने तथा अपहरण किया था महिला डाकू कुसुमा नाइन, सुरेश लोधी तथा मुखमल सिंह ने. बिना शादी के लाला राम ने सीमा को अपने साथ रखा. उससे एक बेटा भी हुआ सीमा को.
सीमा इधर इंतज़ार करती रही कि उसके मां बाप की शिकायत पर पुलिस आएगी तथा उसे छुड़ा कर ले जाएगी लेकिन सीमा को होश तब आया जब उसे पता चला कि पुलिस ने उसके मां बाप की शिकायत लिख कर उसे छुड़ाने की बजाय उल्टा उन्हें ही जेल में डाल दिया है.
बस फिर क्या था, हर तरह से सीमा का मोह भंग हो गया और एक मासूम सी लड़की चल पड़ी डकैत बनने की राह पर. यहीं पर सीमा ने बंदूक चलाना सीखा. देखते ही देखते सीमा डकैत बन गयी तथा उसका खौफ हर तरफ दिखने लगा.
सीमा देसी हथियार नहीं चलाती थी. उसे लगता था ना जाने ये कब हाथ में फट जाए. यही कारण था कि वह बस पुलिस के हथियार चलाती और इसके लिए इन हथियारों को लूटती. जिस डाकू ने अगवा किया था उसी से सीमा को प्यार हुआ, लेकिन शादी कुख्यात डकैत निर्भय गुर्जर से हुई. आगे प्रेमी और पति दोनों पुलिस के हाथों मारे गए तो सीमा ने सन 2000 में सरेंडर कर दिया था.
तो ये थी कुछ कुख्यात डकैतों की कहानी…
इन डकैतों ने जो किया उसे सही नहीं कहा जा सकता मगर इनके साथ जो हुआ वह तो बिलकुल भी सही नहीं था. कई बार परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं कि कुछ सोचने समझने का वक्त ही नहीं मिलता और जब तक समझ आती है तब तक हम बहुत दूर निकल आए होते हैं.