टुंडे कबाब की कहानी, बेटियों को भी नहीं थमाई रेसिपी की चाबी, 115 साल पहले पहुंचा भोपाल से लखनऊ

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टुंडे कबाब. नॉनवेज खाने वालों के लिए ये ऐसी डिश है कि नाम लेते उनके मुंह में पानी आ जाता है. मैंने कई लोगों के मुंह से यहां तक सुना है कि पेट भरा रहने के बाद भी वह टुंडे कबाब खा सकते हैं. मतलब उसकी दीवानगी चरम पर है.

इस लॉकडाउन में टुंडे कबाब के दीवानों को भी धक्का लगा. 90 दिन तक प्रसिद्ध दुकान बंद रही और जब खुली तो वहां का सिग्नेचर डिश ‘चिकन कबाब’ मेनू लिस्ट से गायब था. उसके बदले वहां लिख दिया गया ‘मज़बूरी के कबाब’.  इसके पीछे कारण बताए गए कि लॉकडाउन और उसके बाद अनलॉक के फेज में शहर में वो मांस नहीं उपलब्ध हो पा रहा था, जिससे गलावत कबाब बनाए जाते थे.

लेकिन, करीब-करीब 115 साल पुराने इस दुकान के ग्राहक भी अपने मिजाज के हैं. जो मिल रहा है उसे ही ले रहे हैं. उनका कहना है कि यहां जो मिलेगा, बेस्ट ही होगा. शायद इसी वजह से टुंडे कबाब भारत में ही नहीं दुनिया में अपने स्वाद के लिए जाना जाता है.

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कहा तो ये भी जाता है कि अकबरी गेट का पता पूछने वाले ज्यादातर लोगों को टुंडे कबाब ही जाना होता है. या फिर अकबरी गेट को लोग टुंडे कबाब के नाम से ही जानते हैं. इसने जिस तरह शोहरत पाई है, वैसी शोहरत किसी दूसरे व्यंजन को शायद ही मिली हो.

भोपाल से लखनऊ आने की कहानी भी है दिलचस्प

पूरी दुनिया में ये जाना जाता है कि टुंडे कबाब लखनऊ की है. लेकिन, सच्चाई इससे इतर है. टुंडे कबाब का मूल भोपाल है. लेकिन, साल 1905 में जब अकबरी गेट पर एक छोटी से दुकान खुल गई तबसे इसकी पहचान लखनऊ से हो गई.

टुंडे कबाब दुकान के मालिक हैं रईस अहमद. उनके पुरखे हाजी साहब मध्यप्रदेश के भोपाल में रहते थे. वे वहां के नवाब के खानसाम हुआ करते थे. नवाब खाने-पीने के शौकीन थे. लेकिन, उम्र के साथ दांतों ने धोखा दे दिया. अब उन्हें खाने-पीने में दिक्कतों का सामना करना पड़ा.

ऐसे में खानसामे ने उन्हें इस तरह कबाब बनाकर खिलाने की तैयारी की जिससे उन्हें दिक्कत न हो. वह बिना दांत के भी खा सके. ऐसे में उन्होंने गोश्त को बारीक पीस दिया और उसमें पपीते मिलाकर  ऐसा कबाब बनाया जो मुंह में डालते घुल जाता है.

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अब कबाब गरिष्ठ. ज्यादा खाना पेट के लिए हानीकारक न हो जाए. इसके लिए उसके स्वाद और स्वास्थ्य को देखते हुए चुन-चुन कर मसाले का प्रयोग  किया गया. बस बन गया लज़ीज कबाब. नवाब साहब और उनकी बेगम को ये कबाब खूब पसंद आता था.

हालांकि, समयचक्र बदला और हाजी साहब का परिवार भोपाल से लखनऊ आ गया. हाजी साहब ने घर चलाने के लिए छोटी सी दुकान शुरू कर दी. यह दुकान अकबरी गेट के पास एक गली में थी. यहां वह कबाब बनाकर बेचते थे. इसक कबाब की शोहरत दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई. पूरे शहर के लोग यहां कबाब खाने आने लगे. धीरे-धीरे देश-दुनिया में लोगोंने ने इसकी तारीफ़ शुरू कर दी.

कैसे पड़ा टुंडे कबाब नाम

जिसका हाथ नहीं होता है, वहां क्षेत्रीय भाषा में उसे टुंडे कहा जाता था. रईस अहमद के वालिद हाजी मुराद अलगी पंतक के शौकीन आदमी थे. एक बार पतंक उड़ाने के चक्कर में वह गिर गए और उनका हाथ टूट गया, जिसे बाद में काटना ही पड़ा.

तबीयत दुरुस्त हुई.  हाथ से ही हाथ धो दिए तो फिर मुराद अली दुकान पर बैठने लगे. अब चूंकि उनके हाथ नहीं थे तो लोग उन्हें टुंडे बोलते थे. धीरे-धीरे दुकान का नाम भी टुंडे के कबाब हो गया. ये नाम इतना प्रसिद्ध हुआ कि बस हर जगह टुंडे कबाब से रजिस्ट्रेशन हो गया.

किसी को नहीं बताते रेसिपी

किसी भी डिश को दो चीजें कमाल का बनाती हैं. एक रेसिपी और दूसरी हाथ का शय. कहा जाता है कि रईस अहमद का परिवार हाजी साहब के जमाने से ही टुंडे कबाब की रेसिपी किसी को नहीं बताता है. यहां तक कि वे घर की बेटियों को भी ये नहीं बताते. परिवार के पुरुष सदस्य ही सिर्फ जानकारी रखते हैं.

ये भी कहा जाता है कि रेसिपी एक दुकान से नहीं खरीदी जाती है. मसालों को अलग-अलग दुकान से लिया जाता है ताकि दुकानदार को भी पता न चल जाए. कुछ मसाले तो ईरान से भी आते हैं. बाद में बंद कमरे में परिवार के सदस्य इन्हें कूट-कूटकर फिर छानकर तैयार करते हैं और कबाब बनाते हैं.

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इस कबाब का जिक्र शाहरुख आशा भोंसले से लेकर सुरेश रैना और दूसरे सेलिब्रिटी भी कर चुके हैं. वहां विदेशों से भी ग्राहक आते हैं. देशभर के ग्राहक तो पहुंचते ही हैं. बस इसकी अपनी पहचान ही लोगों के बीच छाई  रहती है.