दुनिया के सामने मिसाल हैं भारत के ये 11 गांव, कहीं हर घर में NRI तो कहीं होती करोड़ों की कमाई

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भारत को एक कृषि प्रधान देश कहा जाता है. हमारी अर्थव्यवस्था भी बहुत हद तक खेती-किसानी पर निर्भर करती है. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक़, अनुमानत: देश में 649,481 गांव हैं. ऐसे में, कहीं न कहीं देश भी गांव की स्थिति पर निर्भर है. इस निर्भरता को आशा की किरण दिखाने वाले कुछ गांव हैं, जो अपनी मेहनत, क्रिएटिविटी और उत्साह से देश के शहरों को काफ़ी कुछ सिखा सकते हैं.

1. मावलिननॉन्ग, मेघालय

यह गांव मेघालय राज्य में है और साल 2003 से लगातार एशिया का सबसे साफ़ गांव चुन कर आ रहा है. कहा जाता है कि साल 1988 तक यह गांव हर साल किसी न किसी बीमारी की चपेट में आ जाता था. ऐसे में एक स्कूल टीचर रिशोत खोंगथोरम ने स्वच्छता जागरुकता अभियान चलाया. लोगों को ये यकीन दिलाया कि स्वच्छता से उनके बच्चों की जान बच सकती है तो लोग भी मुहीम में जुड़ गए.

लोगों ने अपने जानवरों को घरों में ही बांधना शुरू किया. इसके बाद घरों में ही शौचालय बनाया. किचन से निकलने वाले कचरे को भी व्यवस्थित किया गया. जगह-जगह जैविक और अकार्बनिक कचरे को रखने के लिए कंपोस्ट पिट और बांस के बक्से रखे गए. गांव में प्लास्टिक पर पूरी तरह पाबंदी कर दी गई. गांव में कोई भी स्मोकिंग नहीं कर सकता.

देखते ही देखते यह गांव बिल्कुल स्वच्छ बन गया. इसके बाद दुनिया भर के लोग यहां के वाटरफॉल, टी स्टॉल, ऑर्गेनिक फुड रेस्टोरेंट्स वगैरह देखने के लिए पहुंचते हैं. एशिया के दूसरे गांवों को भी  इससे सीख लेने के लिए कहा जाता है. पिछले 17 साल से यह गातार सबसे साफ़ गांव में अपनी जगह बनाया हुआ है.

2.धर्मज, गुजरात

यह गुजरात का आणंद ज़िले के अंतर्गत आता है. इस गांव को भारत का सबसे अमीर गांव माना जाता है. दूसरी तरफ़ इसे एनआरआई गांव भी कहा जाता है. यह लगभग हर परिवार में एक भाई गांव में रहकर खेती करता है तो दूसरा विदेश जाकर पैसे कमाता है. माना जाता है कि हर देश में आपको धर्मज का एक न एक आदमी ज़रूर मिलेगा.

इस गांव की खुद की वेबसाइट है और इसका अपना गीत है. उनके गांव के 1500 परिवार ब्रिटेन, 200 अमेरिका, 300 कनाडा में रहते हैं. इन सबका हिसाब किताब रखने के लिए  बकायदा एक डिक्शनरी बनाई गई है.

इस गांव में एक दर्जन से ज्यादा प्राइवेट और सरकारी बैंक हैं. वहां एक हजार करोड़ से ज्यादा रुपये जमा हैं. गांव में मैकडॉनल्ड और पिज्जा पार्लर हैं. यहां आयुर्वेदिक अस्पताल से लेकर सुपर स्पेशिलिएटी वाले अस्पताल भी हैं.

3. केड़िया गांव, बिहार

यह बिहार के जमुई जिले का एक गांव है. इस गांव की अब पहचान जैविक गांव के रूप में होती है. यहां का एक भी किसान खेती में रसायन का इस्तेमाल नहीं करता है. सभी जैविक खेती पर पूरी तरह निर्भर हैं. इसे जैविक गांव में बनने में सिर्फ़ 5 साल का समय लगा है.

गांव में देखते ही देखते जैविक खाद और जैविक कीटनाशक बनाने का संयत्र भी लग गया है. गांव के 107 परिवार के लोग 45 एकड़ की खेती ऑर्गेनित तरीके से ही करते हैं. वे धान, गेहूं और सब्जियां उगाते हैं. अब तो आसपास के गांव के लोग भी इनसे सीखने के लिए पहुंचते हैं.

गांव के प्रयास को देखते हुए वहां सरकारी अनुदान से सैकड़ों शेड बना दिए गए हैं. उनकी मदद के लिए राज्य सरकार भी आगे आई है. इसके साथ ही राज्य सरकार द्वारा बनाए जा रहे जैविक कॉरिडोर को भी यहां के किसान मदद कर रहे हैं.

4. मुहम्मा गांव, केरल

यह केरल के अलपुझा जिले में है. यह गांव देश का पहला सिंथेटिक पैड फ्री पंचायत बनने जा रहा है. गांव में  Menstrual Waste (पैड्स की वजह से हुआ वेस्ट) ख़त्म करने का प्रयास किया जाएगा.

राज्य के फ़ूड एंड सिविल सप्लाई मंत्री पी. थिलोथमन के प्रोजेक्ट के तहत कपड़े से बने दोबारा इस्तेमाल होने वाले पैड्स और Menstrual Cup के इस्तेमाल को लेकर महिलाओं का जागरूक किया जाएगा. प्रोजेक्ट के तहत पंजायत ने कपड़े के पैड्स और कप्स को महिलाओं को डिस्ट्रिब्यूट करना शुरू किया है.

पंचायत के मुताबिक़, लोकल बॉडी में एक महीने में एक लाख सिंथेटिक सैनिटरी पैड्स का इस्तेमाल होता है. यह मिट्टी और पानी के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आता है. इस योजना के तहत ये अधिकतम 4 कपड़े का पैड और कप प्रोवाइड करेंगे. रिपोर्ट के मुताबिक़, एक कप लगभग 5 साल तक रीयूज़ किया जा सकता है. एक कप से 750 सेनिटरी नैपकिन को रिप्लेस किया जा सकता है. वहीं, दूसरी तरफ़ एक कपड़े के पैड को 3-4 साल तक यूज़ किया जा सकता है. कपड़े के पैड और कप से बीमारियों को भी रोका जा सकता है.

5.जखनी गांव, यूपी

यह उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड का गांव है. एक समय यहां का तापमान 48 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था. पूरा गांव पानी की समस्या से जूझने लगा था. तालाब सूख गए थे. लोग पलायन को मज़बूर हो गए थे.

Water crisis

इसके बाद गांव के लोगों ने मिलकर अभियान चलाया. तालाबों को पुनर्जिवित करना शुरू किया. इसका असर ये हुआ कि गांव के 5 तालाबों में लबालब पानी भर गया. गांव के नल और ट्यूबवेल में पानी की कमी नहीं रह गई. तालाबों की वजह से जिस गांव में दोपहर को रहना मुश्किल हो गया था, वहां दोपहर में भी ठंडी हवाल महसूस होने लगी.

6. रामगढ़ और धारी विकासखंड, उत्तराखंड

यह उत्तराखंड के नैनीताल में पड़ता है. इन दो विकासखंडों ने पिछले दो साल में हजारों पौधे लगाए हैं. इसका परिणाम ये है कि 312 भूमिकत कच्च  टैंक बन गए हैं, जिससे 50 लाख लीटर तक पानी बचाया जा सका है.

यहां के लोगों ने ‘जन मैत्री’ नाम का एक संगठन बनाया है, जो पानी के स्त्रोतों के लिए काम करता है. ग्रामीणों ने वैज्ञानिक तरीके से 10 फीट लंबे और 5 फीट गहरे गड्ढे बनाने शुरू कर दिए. इसके बाद इन्हें मिट्टी और गोबर से लीप दिया. पूरे गड्ढे को प्लास्टिक शीट से कवर करके ऊपर से जाली लगा दिया गया. इसके बाद जल स्त्रोत में बचे पानी को स्त्रोतों का पानी गड्ढे तक पहुंचाया गया. इसके पीछे तर्क यही है कि पानी बेकार में न बहे और बारिश का पानी इन्हीं स्त्रोतों में इकट्ठा हो जाए.

ग्रामीणों का दावा है कि धीरे-धीरे करते हुए इन लोगों ने 312 टैंक बना लिए. इसमें 50 लाख लीटर से ज्यादा पानी की बजट बचत की जा चुकी है. इन पानी का इस्तेमाल ग्रामीण सिंचाई के साथ-साथ घर के कामों में भी करते हैं.

7. रालेगण सिद्धी,  महाराष्ट्र

महाराष्ट्र के रालेगण सिद्धी को अन्ना हजारे के गांव के नाम से जाना जाता है.अब इसे बेहतर जलसंसाधन तकनीकी के इस्तेमाल करने वाले गांव के तौर पर भी जाना जाता है. वहां पानी को बचाने की तकनीकी जानने के लिए दूसरे देश से लोग पहुंच रहे हैं.

बाल्टिक सागर में एक स्वीडिश द्वीप भूजल रिचार्जिंग परियोजना के लिए दुनियाभर में प्रेरणस्त्रोत बन गया है. यहां गर्मियों के समय में पीने का पानी काफ़ी मशक्कत से मिलता है. माना जाता है कि यहां पानी की किल्लत की वजह स्ट्रॉसड्रेट की मिट्टी की पतली परत में छिपी है. इससे बारिश का पानी भूजल रिचार्ज नहीं कर पाता है.

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आईवीएल स्वीडिश पर्यावरण अनुसंधान संस्थान की विशेषणज्ञ रूपाली देशमुख ने जल संचय के लिए भारत के गांवों के परंपरागत तरीकों के बारे में सोचा. इसे नई तकनीकी से जोड़कर भी देखा. इसके बाद उनकी नज़र रालेगण सिद्धी पर पहुंची.

रालेगण सिद्धी और स्ट्रॉसड्रेट की भौगोलिक स्थिति लगभग एक जैसी है. इसके बाद उन्होंने रालेगण सिद्धी पर रिसर्च किया. यहीं से उन्हें डैम चेक और तालाब आदि परंपरागत जल संचय के साधनों के इस्तेमाल की जानकारी मिली. स्वीडन में इन चीजों का कभी इस्तेमाल नहीं हुआ है.

8. चिज़ामी, नागालैंड

रिपोर्ट के मुताबिक़, महिलाओं ने 2007 में ग्राम पंचायत में समान इनकम का आईडिया आगे रखा. हर बार इस विचार को पीछे धकेल दिया जाता था. महिलाओं को इस तरह के तर्क भी सुनने पड़े कि ये मांग निरर्थक है और महिलाओं को पुरुषों को मुखिया के रूप में सम्मान करना चाहिए और बराबरी की बात छोड़ देनी चाहिए.

लेकिन, लगातार पंचायत में उठती इन मांगों को आठ साल के बाद मान लिया गया. इस सफ़लता को पाने के लिए महिलाओं ने ऐसे पुरुषों से भी मदद ली, जो बराबरी के विचार को तवज्जों देते हैं. गांव के Dr Wethselo T Mero ने महिला किसानों के प्रवक्ता के रूप में इनकी आवाज़ बुलंद की और पंचायत को इस बात के लिए राज़ी किया.

महिलाओं के संघर्ष की वजह आज एक ही काम के लिए वहां पुरुषों और महिलाओं को खेती के ज़्यादा काम के दिनों में 450 रुपये मिलते हैं और बाकी के दिनों में 400 रुपये मिलते हैं.

9. खोनोमा,  नागालैंड

नागालैंड की राजधानी कोहिमा से 20 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है ‘खोनोमा’ गांव. लगभग 700 साल पुराना यह गांव चारों ओर हरियाली से घिरा हुआ है. यहां लगभग 600 घर में करीब 3000 की आबादी रहती है. खोनोमा ‘अंगमी’ (Angami) ट्राइबल ग्रुप का घर है. ये आदिवासी समूह अपनी बहादुरी और मार्शल आर्ट्स कौशल के लिए जाना जाता है.

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इस ग्रीन विलेज ने खेती की पारंपरिक तकनीक को अपनाया. एक मॉडल बन चुका ये गांव, सतत विकास (Sustainable Development) के सिधान्तों को कई साल पहले ही अपना चुका है. खेती समेत इस गांव ने 90 के दशक में ही वन कटाई और शिकार जैसी क्रियाओं पर प्रतिबंध लगा दिया.

इस गांव में कोई भी व्यक्ति पेड़ नहीं काटता और नहीं ही शिकार करता है. एक समय था, जब शिकार इनकी परंपरा का एक अहम हिस्सा था लेकिन दिसम्बर 1998 में इस पर बैन के बाद यहां की तस्वीर बदल गई.

10. रणसिंह कलां गांव, पंजाब

यहां गांव पंजाब के मोगा जिले में है. यहां 5 करोड़ रुपये की लागत से सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट बना है. यहां किसी को एक गिलास पानी पीने को दिया जाता है और उसने आधा गिलास ही पिया तो बचा हुआ आधा गिलास पौधे में डाल दिया जाता है. गांव में ही वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाया गया है.

गांव में साफ़ सफाई का विशेष ध्यान दिया गया है. गंदगी कहीं भी नहीं दिखती है. कच्ची गलियां तक नहीं हैं. महिलाओं के लिए अलग से जिम बनाया गया है, ताकि वे स्वस्थ रह सकें. स्मार्ट प्रायमरी स्कूल है. 4 एकड़ क्षेत्र में एक तालाब है, जिसके पानी का इस्तेमाल सिंचाई के काम में किया जाता है. गांव के झील को पर्यटन की दृष्टि से विकसित कर दिया गया है. ऐसे में ये पूरा गांव एक स्मार्ट गांव के तौर पर सामने आया है.

11. मूड़ावग गांव, हिमाचल प्रदेश

हिमाचल का यह गांव सेव की खेती के लिए जाना जाता है. ये किसान एक साल में 7 लाख पेटी सेब का उत्पादन कर लेते हैं, जिससे यहां रहने वाले हर परिवार की वार्षिक आय 70 से 75 लाख रुपये तक हो जाती है.

खासबात है कि यहां इंडस्ट्री नहीं है, बस खेती से ही लोग कमा लेते हैं. ये किसान सबसे बेस्ट क्वालिटी के सेबों को उगाते हैं, जिसमें रॉयल एप्पल, रेड गोल्ड, गेल गाला आदि शामिल हैं.

भारत इन गांव से बहुत कुछ सीखा जा सकता है.