ये IIM गोल्ड मैडिलिस्ट बेचता है सब्जियां, 22 रुपए से शुरू किया था सफ़र, आज करोड़ों में है कमाई

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स्कूल के दिनों में जब कोई बच्चा पढ़ाई में ध्यान नहीं देता था तो उनके लिए टीचर्स की पसंदीदा लाइन होती थी ‘नहीं पढ़ोगे तो बड़े हो कर सब्जी बेचना.’ आप सब में से भी कई लोगों ने ऐसा कुछ सुना होगा, लेकिन बिहार के एक शख्स ने इसे इतना सीरियसली ले लिया कि अपना जमा जमाया करियर छोड़ कर सब्जी बेचने लगा. कहते हैं कोई काम छोटा नहीं होता, इस शख्स ने लोगों को ये बताया कि काम भले ही छोटा हो, लेकिन अगर आपकी लगन सच्ची और इरादा पक्का है तो आप किसी भी छोटे काम को बड़ा बना सकते हैं.

एक वे व्यक्ति होते हैं, जो बचपन से ही पढ़ाई में कमज़ोर होते हैं या किसी कारण से पढ़ नहीं पाते तथा बड़े होने पर रोजगार के लिए कोई भी काम करते हैं और अपनी मेहनत से सफलता पा लेते हैं. लेकिन बिहार के इस शख्स की कहानी इनसे अलग है. ये शख्स पढ़ने में होशियार ही नहीं बल्कि IIM टॉपर रह चुका है, लेकिन उसके बावजूद भी इसने ऐसा काम चुना जिसे थोड़ा बहुत पढ़ा लिखा इंसान भी नहीं करना चाहता.

तो चलिए जानते हैं इस आईआईएम टॉपर के बारे में जिन्होंने नौकरी छोड़ कर बेचनी शुरू कर दी सब्जियां:

बिहार का यह शख्स कौन है?

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बिहार के नालंदा जिले में एक छोटा सा गांव है मोहम्मदपुर. इसी गांव में जन्म हुआ है कौशलेंद्र सिंह का. कौशलेंद्र ही वो शख्स हैं, जिनके बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं. कौशलेंद्र मज़ाक में खुद को प्योर सब्सिडी का प्रोडक्ट बताते हैं. उनके हिसाब से वो विशुद्धरूप से सरकारी आदमी हैं. इसके लिए वह कारण भी बताते हैं. सरकारी नौकरी ना होने पर भी कोई सरकारी आदमी कैसे हो सकता है?

इस बारे में कौशलेंद्र का मानना है कि उनकी प्रारंभिक शिक्षा सरकारी संस्था जवाहर नवोदय विद्यालय से हुई, 12वीं उन्होंने साइंस कॉलेज पटना से की. गुजरात के इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च से एग्रीकल्चर इंजीनियरिंग की तथा फिर आई आई एम अहमदाबाद से एमबीए पूरी की. ऐसे में वह अभी तक सिर्फ सरकारी संस्थानों में ही पढ़े हैं, इस हिसाब से वह पूरी तरह सरकारी आदमी हैं. कौशलेन्द्र की माता जी स्कूल की शिक्षिका तथा पिता कॉलेज में लैब इंचार्ज रहे हैं.

तीन भाई बहनों में कौशलेन्द्र सबसे छोटे हैं. आई आई एम से टॉप करने के बाद कोई गोल्ड मेडिलिस्ट कैसे भविष्य की कामना करेगा ? यही ना कि उसे लाखों के पैकेज वाली एक अच्छी सी नौकरी मिल जाए और वह आराम से अपनी ज़िंदगी बसर कर सके लेकिन यहाँ कौशलेन्द्र अपवाद निकले. उन्होंने वो नौकरी नहीं की जो उन्हें बड़े आराम से मिल सकती थी. इसके बजाए कौशलेन्द्र ने सब्जी बेचने का काम चुना. सुनने में थोड़ा अटपटा लगता है लेकिन यही सच है.

किसान अपनी मेहनत से सब्जियां उपजात है, लेकिन फिर भी उसे सही दाम नहीं मिल पाता. किसान को कम दाम मिल रहा है लेकिन आम लोगों तक पहुंचते पहुंचते सब्जियों का दाम कई गुना बढ़ जाता है. ना उपजाने वाले किसान को सही दाम मिलता है ना लोगों को सस्ती सब्जियां मिलती हैं तो फिर मुनाफा जाता कहां है? ऐसे ही सवालों ने कौशलेन्द्र को कुछ अलग करने के लिए प्रोत्साहित किया.

आई आई एम अहमदाबाद से गोल्ड मेडल जीत कर पास आउट हुए कौशलेन्द्र किसी बड़ी कंपनी के बड़े पद पर बैठने की बजाए पटना लौट आए और यहाँ से शुरू किया वो काम जिसके बारे में सुन कर पहले लोग हैरान हुए तथा बाद में उनका मज़ाक उड़ाया. कौशलेन्द्र सब्जियां बेचने लगे. एक उच्च शिक्षित व्यक्ति आखिर सब्जियां क्यों बेच रहा है ये किसी ने नहीं सोचा लेकिन उनका मज़ाक जरूर उड़ाया.

किन्तु, कौशलेन्द्र को किसी की बातों से रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ा. जो व्यक्ति लाखों करोड़ों कमा सकता था उसने अपने सब्जी के काम में पहले दिन कमाए मात्र 22 रुपये. यहां कौशलेन्द्र को निराश होना चाहिए था लेकिन वह उल्टा खुश हुए ये सोच कर कि कम से कम बिक्री तो हुई, कोई उनसे सब्जी खरीदने तो आया. यहीं से कौशलेन्द्र का कुछ हटकर करने का सफर शुरू हुआ.

22 रु की बिक्री 5 करोड़ तक

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भले ही पहले दिन कौशलेन्द्र ने मात्र 22 रुपये की सब्जी बेची हो लेकिन 2016-17 तक उनका टर्न ओवर 5 करोड़ से ऊपर का हो गया था जो कि अब समय के साथ बढ़ ही रहा है. दरअसल, कौशलेन्द्र ने सिर्फ सब्जियां ही नहीं बेचीं बल्कि सब्जियों का एक नया ब्रांड खड़ा कर दिया. ऐसा ब्रांड जो पटना से शुरू हो कर अब पूरे देश में अपने पैर पसारने की तैयारी में है.

2008 में कौशलेन्द्र ने अपने भाई धीरेन्द्र कुमार के साथ मिलकर सब्जियों के ब्रांड समृद्धि तथा कौशल्या फाउंडेशन के नाम से एक संस्था की स्थापना की. समृद्धि का पहला सेंटर कृष्णानगर में बनाया गया. यहाँ  सब्जियों को छांटने के बाद उनकी पैकिंग तथा बारकोडिंग की जाती और इन्हें समृद्धि ब्रांड के नाम से बेचा जाता.  शुरुआत में दिक्कतें जरूर आईं लेकिन समय के साथ स्थिति मजबूत होती गई समृद्धि की.

कौशलेन्द्र ने इस ब्रांड की शुरुआत कुछ खास मकसदों से की जिनमें एक था किसानों और आम लोगों के बीच से बिचौलियों को हटाना. सब्जियां उचित मूल्य पर किसानों से ली जाएं और उचित दाम पर इन्हें बाज़ार में बेचा जाए. इसके लिए किसानों से सीधे तौर पर जुड़ना जरूरी था. समृद्धि की शुरुआत के साथ कौशलेन्द्र ने यह कोशिश की लेकिन कामयाब ना हो सके. समृद्धि के लिए किसानों के साथ हुई पहली बैठक में किसान सिर्फ पांच मिनट ही बैठ सके.

कौशलेन्द्र के लिए ये बहुत निराशाजनक था, लेकिन वह हार मानने वालों में से नहीं थे.  कौशलेन्द्र अपने ऐश ओ आराम वाले भविष्य को छोड़ कर कुछ अलग करने उतरे थे मैदान में ऐसे में उन्हें उपाय भी कुछ अलग ही आजमाने पड़े. कौशलेन्द्र ने शुरुआत में ठेले पर सब्जियां बेचीं लेकिन ये ठेला कोई आम ठेला नहीं था बल्कि इसे एसी ग्रीन कार्ट कहा जाता है जो कि फाइबर से बना होता है.

200 किलो तक सब्जियां स्टोर करने वाले इस वातानुकूलित ठेले में पांच से छह दिन तक सब्जियां ताजी रहती हैं. इलेक्ट्रॉनिक तराजू लगे इस अनोखे ठेले ने ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित किया. कौशलेन्द्र के इन ठेलों पर जल्द ही जैविक खेतों से उगने वाली सब्जियां बिकने लगीं. शुरूआत में इन ठेलों से बिकने वाली सब्जी को शॉपिंग स्टोर तथा रिटेल स्टोर वाले खरीदते थे लेकिन धीरे धीरे इसने आम लोगों तक भी  तक पहुँच बना ली.

शहर भर में ऐसे 50 ठेले चलने लगे. मजे की बात यह रही कि इसके लिए कौशलेन्द्र को ज्यादा समय तक कर्ज का बोझ नहीं उठाना पड़ा. ठेलों की लोकप्रियता बढ़ते ही उन्होंने कमाई का एक नया रास्ता खोज निकाला. वह इन हाई फ़ाई ठेलों पर विज्ञापन देने लगे. इससे कौशलेन्द्र को अच्छी खासी आमदन हुई और कुछ ही समय में ठेलों की लागत उन्हें वापस मिल गई.

सब्जी बेचने के पीछे सोच

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बिहार में हमेशा से जिस समस्या ने यहां की गरीब जनता को परेशान किया है वो है यहां के मजदूरों का पलायन. एक गरीब अपने परिवार का पेट पालने के लिए मिलों दूर जा कर काम करता है और अधिकतर को मेहनत करने के बावजूद दूसरे राज्यों में हेय दृष्टि से देखा जाता है. अपमान किया जाता है. कौशलेन्द्र भी यही सब देखते और महसूस करते आ रहे थे. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि अच्छी पढ़ाई करने के बाद सबसे आसान होता है नौकरी करना.

मगर वो अपने साथ उन लोगों का भविष्य भी सुधारना चाहते थे, जिन्हें रोजगार के लिए अपने घर से दूर जाना पड़ता है. बिहारी मजदूरों के बढ़ते पलायन को लेकर कौशलेन्द्र ने इस काम को चुनने का फैसला किया. उन्हें पता था कि ऐसा काम करते हुए उन्हें लोगों का मज़ाक सहना पड़ेगा लेकिन वह जानते थे कि बदलाव के लिए ऐसा सहना पड़ता है. कौशलेन्द्र एक किसान परिवार से आते हैं. ऐसे में वो छोटे किसानों कि दिक्कतों से वाकिफ थे.

उन्हें इन छोटे किसानों को ध्यान में रख कर कुछ नया शुरू करना था. आज कौशलेन्द्र के कारण 22 हाज़ार से ज़्यादा किसानों को उनकी फसल का उचित दाम मिल रहा है तथा सैकड़ों लोग उनके कारण अपने घर पर रह कर रोजगार कर रहे हैं. जिस शख्स का लोगों ने मज़ाक बनाया, जिन्होंने अपनी अच्छी सोच के आगे अपने सुनहरे भविष्य को ना कर दी वो कौशलेन्द्र आज हजारों किसानों की प्रेरणा बन चुके हैं.

कौशलेन्द्र का लक्ष्य केवल कमाना नहीं रहा, इस कोरोना काल में हुए लॉकडाउन में यह बात साबित भी हुई. इस विपदा के समय में कौशलेन्द्र के कौशल्या फाउंडेशन ने ना केवल प्रवासी मजदूरों की मदद की बल्कि उन तक हाइजीनिक खाना तथा कोरोना से बचाव के संसाधन भी पहुंचाए.  2017 में कौशलेन्द्र की कंपनी का टर्नओवर साढ़े पांच करोड़ था. यह कमाई सिर्फ इनकी ही नहीं बल्कि उन सभी किसानों की भी है जो इनसे जुड़े हुए हैं.

इसके साथ साथ ही कौशलेन्द्र की सफलता देखने के बाद युवा बाहर से बिहार की ओर लौट रहे हैं. पूरे देश में हर साल 40% सब्जियां खराब हो जाती हैं. जिससे अरबों का नुकसान होता है. ऐसे में कौशलेंद्र की समृद्धि योजना बेहद कारगर साबित हो सकती है. इसी कारण वह इसे पूरे देश में लागू करने की तैयारी में हैं. हमारे समाज ने हमारे आसपास एक हद बना रखी है. लोग पढ़ाई, धन और बुद्धि के आधार पर पहले ही ये तय कर देते हैं कि किसे क्या करना चाहिए.

एक गरीब का बच्चा बड़े सपने नहीं देख सकता, एक पढ़ा लिखा इंसान बड़ी नौकरी के अलावा सब्जी बेचना या फिर कोई और काम नहीं कर सकता. ऐसे में कौशलेन्द्र जैसे लोगों ने समाज कि इस मानसिकता को तोड़ने का काम किया है. ऐसा कोई भी काम जो आपके साथ अन्य लोगों के भले के लिए हो वो कभी छोटा नहीं होता. देश को ऐसे बदलावों की बहुत जरूरत है.