खालिस्तान की मांग करने वालो, पहले महाराजा रणजीत सिंह के बारे में तो जान लो

भारत ने 18 सितंबर को कनाडा में ‘तथाकथित खालिस्तानी जनमत संग्रह’ पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। भारत ने इसे बेहद आपत्तिजनकर करार दिया था। विदेश मंत्रालय का कहना था कि एक मित्र देश में कट्टरपंथी एवं चरमपंथी तत्वों को राजनीति से प्रेरित ऐसी गतिविधि की इजाजत दी गई।

हाइलाइट्स
  • भारत सरकार के विरोध के बावजूद कनाडा में जनमत संग्रह पर नहीं लगी रोक
  • 2018 में कनाडा ने खालिस्तान आंदोलन को आतंकी गतिविधि करार दिया था
  • कनाडा ने कहा- अपने यहां ऐसे तथाकथित जनमत संग्रह को मान्यता नहीं देते

नई दिल्ली : कनाडा में 18 सितंबर को खालिस्तान की मांग को लेकर एक तथाकथित जनमत संग्रह कराया गया। इस जनमत संग्रह पर भारत ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। भारत ने इसे ‘बेहद आपत्तिजनक’ करार दिया। भारत ने कहा कि एक मित्र देश में कट्टरपंथी एवं चरमपंथी तत्वों को राजनीति से प्रेरित ऐसी गतिविधि की इजाजत दी गई। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा कि भारत ने इस मामले को राजनयिक माध्यमों से कनाडा के प्रशासन के समक्ष उठाया है। खैर भारत की तरफ से जो कूटनीतिक रूप से कदम उठाने है वो तो उठाए जाएंगे। अब बात खालिस्तान की मांग कर रहे लोगों की कर लेते है। खालिस्तान की मांग करने वाले 19वीं सदी के महान शासक महाराजा रणजीत सिंह का उदाहरण देते हैं।

बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर को दिया था सोना
कनाडा, अमेरिका और यूरोप में बसे अलगाववादी करीब चार दशक से अधिक समय से खालिस्तान की मांग कर रहे हैं। 1979 में जगजीत सिंह चौहान ने भारत से लंदन जाकर खालिस्तान का प्रस्ताव रखा था। इस खालिस्तान के लिए जिन महाराजा रणजीत सिंह के साम्राज्य का नक्शा दिया गया, उनका एक राज था और उसके पीछे न कोई सिखी का प्रारूप था, न ईरान-तूरान का नक्शा। वह हकीकत में एक राज्य था और उसके शासक महाराजा रणजीत सिंह में लोक-कल्याण की भावना थी। उन्होंने जितना सोना अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को दिया, उतना ही सोना बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर को भी।

जगन्नाथ मंदिर को कोहिनूर देना चाहते थे रणजीत सिंह
वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल ने इस संदर्भ में अपने एक लेख में जिक्र किया है कि भारत की खुफिया एजेंसी रॉ के पूर्व अधिकारी जीबीएस सिद्धू कहते हैं, महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी वसीयत में यह निर्देश दिया था कि उनकी मृत्यु के बाद कोहिनूर हीरा पुरी के जगन्नाथ मंदिर को दे दिया जाए। खालिस्तान की मांग करने वालों को तो यह भी नहीं पता कि सिखी का जन्म ही आक्रांताओं से हिंदुओं की रक्षा के लिए हुआ था। रॉ के पूर्व आला अधिकारी सिद्धू इसके लिए गुरु गोविंद सिंह द्वारा खालसा पंथ के स्थापना दिवस को याद करते हुए बताते हैं कि गुरु गोविंद सिंह ने तो काशी के पंडितों को बुलवाकर मां दुर्गा की मूर्ति की स्थापना कराई और पंथ के लिए बलिदान होने को तत्पर पंज प्यारों का जत्था तैयार किया।

सिख फॉर जस्टिस संगठन करवाता है जनमत संग्रह
गुरपतवंत सिंह पन्नू नाम के शख्स ने अमेरिका में ‘सिख फॉर जस्टिस’ संगठन बनाया हुआ है। हालांकि, भारत सरकार ने इस संगठन को प्रतिबंधित कर रखा है। साथ ही गुरपतवंत सिंह पन्नू को आतंकवादी घोषित कर रखा है। पन्नू ने खालिस्तान का जो नक्शा जारी किया है, उसमें पाकिस्तान, चीन (तिब्बत) और अफगानिस्तान का कोई क्षेत्र नहीं है। पन्नू अलग-अलग देशों में खालिस्तान को लेकर कथित जनमत संग्रह करवाता है। आज अलगाववाद को फिर से कुछ पश्चिमी देशों की तरफ से बढ़ावा दिया जा रहा है। इसको लेकर पड़ोसी देश पाकिस्तान पर शक की सुई जाती है। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने तो कनाडा में खालिस्तान को हवा देने वाले तत्वों, का खुले तौर पर जिक्र किया था। अमरिंदर ने इसके लिए जस्टिन ट्रूडो सरकार में तत्कालीन रक्षा मंत्री हरजोत सिंह सज्जन पर सीधे आरोप लगाया था कि वह अलगाववाद को हवा दे रहे हैं।

ट्रूडो की मजबूरी है अलगाववादियों का समर्थन
कनाडा में प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को अपनी सरकार चलाने के लिए कुछ ऐसे राजनीतिक दलों के बैसाखी की जरूरत है जो खालिस्तान से जुड़ी आंदोलन को हवा दे रहे हैं। साल 2018 में जस्टिन ट्रूडो की सरकार ने एक रिपोर्ट में खालिस्तान आंदोलन को आतंकी गतिविधि करार दिया था। इस रिपोर्ट में 1985 के कनिष्क विमान हादसे को वजह बताया गया था। रिपोर्ट आते ही ‘वर्ल्ड सिख ऑर्गेनाइजेशन’ ने विरोध शुरू कर दिया था। ट्रूडो की तत्कालीन सरकार में शामिल नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी के जगमीत सिंह ने इसका भारी विरोध किया और अगले साल ही इस संगठन को आतंकी सूची से बाहर कर दिया गया। साल 2020 में जब कनाडा में मध्यावधि चुनाव हुए, तब भी 17 भारतवंशी सांसद ट्रूडो की लिबरल पार्टी से चुनाव जीत गए थे। ट्रूडो को फिर से बहुमत के लिए जगमीत से समर्थन लेना पड़ा। यही वजह है कि शायद ट्रूडो विवश है। ट्रूडो की सरकार ने जिस खालिस्तान रिफरेंडम पर 2020 में सरकार ने रोक लगाई थी, उसे 2022 में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर नहीं रोका गया।