कुछ भी नया सीखने के मामले में हम भारतीय लोग कम्प्यूटर को भी पीछे छोड़ दें. खासकर जब मामला बचत का और आधुनिकता का हो. कोई भी नई प्रथा हो किसी भी जाति, किसी भी धर्म, किसी भी देश की हो …उसे अपनाने में हमें कोई परहेज नहीं, भले ही अन्य बातों में कितना भी भेदभाव कर लें पर ऐसे मामलों में हमें ईगो छू भी नहीं सकता.
नकल करने में हमें कोई शर्म नहीं. अब नकल चाहे खानपान में हो, फैशन की हो या रीतिरिवाजों की, हम नया अपनाने को हरदम तैयार हैं.
खुद को सो कॉल्ड मॉर्डन कहलाना या दिखलाना हमारा फेवरिट शौक है. तभी तो जहां त्योहारों पर हम एक दूसरे के घर मिठाई भिजवाते थे,आज उनकी जगह विदेशों की तरह गिफ्ट पैक ने ले ली है. बस एक खासियत है जैसे हर जगह के खाने को हम अपना मसाला डाल कर अपने टेस्ट के अनुसार बना डालते हैं वैसे ही हमने गिफ्ट लेने-देने की परंपरा को भी अपने अनुसार ढाल लिया है.
जिस प्रकार बादशाह अकबर का दरबार रत्नों से सजा था उसी प्रकार हम भी अनेकों गुणों से विभूषित हैं. जुगाड़ूपन और बसूलीचंद हमारे उन्हीं गुणों का हिस्सा हैं. इन्हीं गुणों के बलबूते पर हम दिवाली पर दो-चार गिफ्ट बॉक्स खरीद कर तीस-चालीस गिफ्ट तक बांट डालते हैं, क्यों? क्या हुआ? आपकी समझ में नहीं आया ना ये गणित?
अरे भाई में समझाती हूं ना….. कुछ खास लोगों के अलावा किसी के लिए गिफ्ट लेने की या इन्वेस्टमेंट की जरुरत ही नहीं. क्योंकि मिसिज शर्मा वाला डब्बा मिसिज खन्ना को, मिसिज खन्ना का, मिसिज चौधरी को, मिसिज चौधरी का मिसिज मलिक को और ऐसे ही पूरी सीरीज बन जाएगी.
कुछ लोग तो आए हुए गिफ्टों को बांटने के मामले में भी कंजूसी दिखाते हैं और अगले साल के लिए संभल लेते हैं. इसके दो फायदे हैं, एक तो उन्हें कोई गिफ्ट नहीं खरीदना पड़ता. सो बचत ही बचत और दूसरे इस बहाने घर का कबाडा भी साफ. ये तो अन्दर की बात है पर असल में तो ये लोग लोगों को गिफ्ट देते भी ऐसे हैं… मानो उन पर एहसान कर रहे हों.
कुछ लोग तो गिफ्ट देने से पहले सोचते तक नहीं किस को क्या दें? और महानता के इतने चरम पर होते हैं कि आये हुए गिफ्ट को खोलकर भी देखने का कष्ट नहीं उठाते. आखिरकार दोबारा पेकिंग का समय और खर्चा भी तो बचाना है.
इस बात की एक जीती जागती घटना हम आपको सुनाते हैं – “हमारे एक चाचाजी बहुत बड़े पंडित टाइप आदमी हैं. प्याज-लहसुन तक को हाथ नहीं लगाते. तामसिक भोजन मानते हैं और मांस-मदिरा को हाथ लगाना तो महापाप ही समझें. उनकी यह आदत उन्हें जानने वाले अच्छे से जानते हैं. एक बार उनके एक मित्र दीपावली पर मिलने उनके घर आए और उन्हें बढ़िया-सी पैकिंग में गिफ्ट दिया. उनके जाते ही चाचाजी ने गिफ्ट खोल डाला. जैसे ही गिफ्ट खुला ऐसा लगा घर में भूचाल आ गया हो. चाचाजी तो ऐसे उछल रहे थे मानो करेंट लग गया हो. राम-राम, राम-राम करते हुए गिफ्ट में मिली शराब की बोतल को तुरंत बाहर फेंक कर नहाने गए. पूरे कमरे में गंगा जल का छिड़काव किया गया और तुरंत फोन करके अपने दोस्त को खूब खरी-खोटी सुना डाली. बाद में पता चला उन्हें गिफ्ट कहीं और से मिला था,सुन्दर-सी पैकिंग देखकर उन्होंने वह गिफ्ट बिना खोले चाचाजी को दे दिया. असल में तो उन्हें भी नहीं पता था कि उसमे ऐसी कोई वस्तु है.”
कभी-कभी तो ऐसा होता है कि आप किसी को बहुत मन से कोई गिफ्ट देते हैं और वही गिफ्ट घूम-फिरकर आपके पास आ पहुंचता है. बल्कि कुछ गिफ्ट तो फिक्स हैं जैसे- ड्राईफ्रूट का डिब्बा, सोन पपड़ी, जूस का डिब्बा आदि जिन्हें आप अपनी जेब और सामने वाले के साथ अपने रिश्ते के हिसाब से तय कर सकते हैं. जैसे पडौसी के लिए अलग, बॉस के लिए अलग, मातहत के लिए अलग. पर सबसे जरुरी और स्पेशल है सोन पापड़ी का डिब्बा. जिसके जब तक 4-6 डिब्बे ना आएं दिवाली अधूरी लगती है. और हर कोई जल्दी से जल्दी इन डिब्बों से छुटकारा पाना चाहता है. असल तो सोन पापड़ी को हमारी नेशनल मिठाई घोषित किया जाना चाहिए. क्योंकि दिवाली के गिफ्ट की आन-बान-शान है सोन पापड़ी. जो हर बजट, हर साइज में उपलब्ध होती है. इसके टूटने या ख़राब होने का कोई डर नहीं. सो अपनी जेब को कष्ट दिए बिना बिंदास खरीदें और दिल खोलकर बांटें. टिंग-टोंग वैसे इस गिफ्ट लेन की प्रथा से लोगों के रिश्ते कितने मजबूत हुए ये तो पता नहीं.. पर दुकानदारों और गिफ्ट कंपनियों के बिजनेस में जरुर मजबूती आती है और बाजारवाद को पूरी तरह से बढ़ावा मिलता है.