बिहार में चुनावों से पहले जातिगत जनगणना का मुद्दा फिर गरमाने लगा है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसके पक्ष में हैं. साथ ही राज्य में उनकी विपक्षी पार्टी आरजेडी भी इस मामले में उनके साथ है. आखिर क्या जातिगत जनगणना और क्या हैं उसके सियासी मायने जो बिहार की सियासत और इसके चुनावी समीकरणों को गर्म कर रहे हैं
केंद्र सरकार ने बार बार जातिगत जनगणना से इनकार किया है लेकिन बिहार में बीजेपी गठबंधन के साथ सरकार चला रहे है मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बार बार उसके पक्ष में खड़े नजर आए हैं. पिछले 04 सालों में दो बार जातिगत जनगणना पर बिहार विधानसभा में प्रस्ताव पारित हो चुका है.
जनगणना 2021 को पिछले साल ही शुरू होना था लेकिन कोविड के कारण इसकी शुरुआत नहीं हो सकी थी. माना जा रहा है कि इस साल ये शुरू की जाएगी लेकिन अभी तक इसकी शुरुआत के बारे में कोई आधिकारिक सूचना नहीं आई है.
सियासी जानकारों का मानना है कि जातिगत जनगणना कराने का मतलब है आरक्षण के मुद्दे को फिर उछालना. इसके होते ही एक तूफान खड़ा हो सकता है. अगर इससे आरक्षण का मुद्दा गरमाया तो ‘अपर कास्ट’ इसके खिलाफ खड़ा हो सकता है. क्योंकि अगर जातिगत जनगणना से आरक्षण बढ़ा तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान ‘अपर कास्ट’ को होगा. मतलब ये है कि ये पूरा मामला नए सिरे से अगड़ो-पिछड़ों में फिर ध्रवीकरण करा सकता है, जिसका असर वोट बैंक पर भी होगा.
मोटे तौर पर देश के कई राज्यों में इस तरह की आवाज उठ रही है लेकिन सबसे ज्यादा मुखर तरीके से बिहार में इसके पक्ष में माहौल भी बन रहा है और इसका सियासी लाभ लेने की भी कोशिश दीख रही है. ऐसे में हमें जातिगण जनगणना को लेकर उठने वाले तमाम सवालों के जवाब जानने चाहिए.
सवाल – जनगणना में किस तरह से जातिगत डाटा प्रकाशित होता रहा है?
– वर्ष 1951 से 2011 तक भारत में हर 10 साल पर जनगणना का काम होता रहा है. लेकिन हर जनगणना में एससी और एसटी यानि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की गणना के डाटा अलग से दिए जाते हैं, लेकिन दूसरी जातियों के नहीं. अलबत्ता 1931 तक भारत में जो जनगणना हुई तो जातिगणना आधारित जरूर थी.
1941 में जातिगत आधार पर डाटा इकट्ठा किया गया लेकिन उसे प्रकाशित नहीं किया गया. हालांकि इससे ये अंदाज लगाना थोड़ा मुश्किल हो गया कि देश में ओबीसी यानि अन्य पिछड़ा जातियों की जनसंख्या कितनी है. ओबीसी में कितने वर्ग हैं और अन्य में कितने. मंडल आयोग ने अनुमान लगाया था कि देश में ओबीसी की आबादी करीब 52 फीसदी है. कुछ अन्य लोग इसका अंदाज नेशऩल सैंपल सर्वे के आधार पर लगाते हैं जबकि राजनीतिक पार्टियों के पास लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसका अलग अनुमान रहता आया है.
सवाल – कितनी बार जाति आधारित जनगणना की मांग की जाती रही है?
– हर जनगणना से पहले इस तरह मांग की ही जाती रही है. संसद के रिकॉर्ड बताते हैं कि इसे लेकर संसद में बहस होती है और सवाल उठते रहे हैं. खासकर ये मांग उन लोगों की ओर से उठाई जाती रही है जो अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) या शोषित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, वहीं सवर्ण जातियों से आने वाले लोग इसका विरोध करते हैं.