श्रीलंका में पिछले चंद माह से जारी आर्थिक संकट ने अब राजनीतिक संकट का रूप ले लिया है. राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे देश छोड़कर भाग चुके हैं. प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघे को कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाया गया है.
इस राजनीतिक अस्थिरता की वजह से अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से बातचीत का वो सिलसिला भी रुक गया है जिससे वर्तमान आर्थिक संकट का समाधान खोजने की कोशिश चल रही थी.
साल 1948 में ब्रिटेन से स्वतंत्रता के बाद श्रीलंका अपने सबसे बदतर आर्थिक संकट से गुज़र रहा है और विदेशी मुद्रा कोष के गंभीर संकट से उबरने के लिए जल्द से जल्द उसे कम से कम चार अरब डॉलर की आवश्यकता है. इसके लिए आईएमएफ से बातचीत हो रही थी.
संगठन के एक दल ने इस सिलसिले में 20 जून को कोलंबो का दौरा भी किया था और कहा था कि आर्थिक सहायता हासिल करने के लिए श्रीलंका को अपने पुराने कर्ज़दारों से ब्याज और वापसी की शर्तों पर बातचीत करनी होगी, और वहां संरचनात्मक बदलाव की भी आवश्यकता है.
आईएमएफ ने अब हालात पर निगाह बनाए रखने की बात कही है.
चक्रव्यूह में फंसे जैसी स्थिति
पब्लिक पॉलिसी थिंक टैंक ऐडवोकेटा इंस्टीच्यूट के चीफ़ धनानथ फरनेंडो कहते हैं कि श्रीलंका की वर्तमान स्थिति पांच बिंदुओं से जुड़ी हैं. कुछ लोग इस हालात को एक ‘चक्र’ या ‘दायरा’ भी बता रहे हैं.
धनानथ फरनेंडो कहते हैं, “श्रीलंका में विदेशी मुद्रा कोष (डॉलर) की कमी हुई जिससे ज़रूरी सामान बाहर से आयात नहीं किए जा सके, साथ ही कर्ज़दारों को भी ब्याज समय पर नहीं मिल पाया, पुराने कर्ज़ चूंकि वापस नहीं हो पाये तो नए श्रृण का मिलना और मुश्किल हो गया, कर्ज़ देनेवाली संस्थाओं ने मांग किया कि पुराने कर्ज़ के लेन-देन पर फिर से बातचीत हो और बैंको में रचनात्मक बदलाव लाया जाए, आवश्यक वस्तुओं जैसे पेट्रोल-डीज़ल, दवाईयां वग़ैरह का आयात डॉलर की कमी की वजह से नहीं हो पाया था जिससे इन सामानों की क़िल्लत पैदा हुई और लोगों के गुस्से ने राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया.
समाजिक अस्थिरता
वो कहते हैं कि इसका एक और पहलू भी है सामाजिक अस्थिरता.
हिंद महासागर में स्थित श्रीलंका में पेट्रोल-डीज़ल, दवाईयों को रोज़मर्रा की दूसरी वस्तुओं की कमी को लेकर मार्च में जनता सड़कों पर उतर आई, जिसके बाद राष्ट्रपति राजपक्षे को देश छोड़कर भागना पड़ा और रनिल विक्रमासिंघे को कार्यवाहक राष्ट्रपति नियुक्त किया गया.
कार्यवाहक राष्ट्रपति रनिल विक्रमसिंघे ने इस माह की शुरुआत में ही संसद के समक्ष कहा था कि आईएमएफ से आर्थिक सहायता पैकेज पक्का करने के लिए एक योजना को अगस्त तक सौंप दिया जाएगा.
लेकिन 9 जुलाई को हज़ारों लोगों की भीड़ ने राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे और रनिल विक्रमसिंघे के घर में घुसकर उपद्रव किया.
इसके बाद राष्ट्रपति ने 13 जुलाई को त्यागपत्र देने की घोषणा कर दी जबकि विक्रमसिंघे ने कहा कि वो इस्तीफ़ा देने को तैयार हैं.
गोटाबाया राजपक्षे श्रीलंका के पहले राष्ट्रपति हैं जिन्हें अपने कार्यकाल की समाप्ति से पहले ही पद रिक्त करना पड़ा. इससे पहले ऐसा 1953 में विरोध-प्रदर्शनों के बाद प्रधानमंत्री डुडले सेनानायके को पद छोड़ना पड़ा था.
श्रीलंका के संविधान के अनुसार नए सरकार का गठन करना होगा जिसकी अगुवाई संसद के अध्यक्ष करेंगे. लेकिन इसके बाद महीने भर के भीतर ही नया राष्ट्रपति चुना जाना भी ज़रूरी है.
आईएमएफ़ से मदद
सवाल ये उठ रहे हैं कि राजनीतिक अस्थिरता की इस घड़ी में देश को गंभीर आर्थिक संकट से कैसे निकाला जा सकता है, या उस दायरे से जिसमें श्रीलंका फंस गया लगता है.
धनानथ फरनेंडो मानते हैं कि हालिया संकट से उबरने के लिए आईएमएफ की सहायता सबसे पहले पायदान पर होना चाहिए.
वहीं कोलंबो विश्विद्यालय में अर्थशास्त्र के लेक्चरर गणेशमूर्ति एम के अनुसार पर्यटन और विदेशों में बसे श्रीलंकाई मूल के लोगों को देश पैसा भेजने के लिए उत्साहित करने से विदेशी मुद्रा के संकट से निकट भविष्य में बहुत हद तक निपटा जा सकता है.
पर्यटन, विदेशों से भेजा जाने वाला फंड
गणेशमूर्ति एम कहते हैं कि विदेशों से भेजे जानेवाले फंड में हाल के सालों में भारी गिरावट आई थी.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार पिछले साल ये 10 सालों में सबसे कम 5.49 अरब डॉलर रहा. साल 2012 में ये सबसे ऊंचे स्तर पर रिकॉर्ड किया गया था.
जानकारों का कहना है कि श्रीलंकाई मूल के लोगों के कम पैसे भेजे जाने या बैंक के माध्यम से न भेजे जाने की एक बड़ी वजह सेंट्रल बैंक द्वारा तय डॉलर की क़ीमत थी. बैंक एक डॉलर के बदले 200 से 203 श्रीलंकाई रुपयों के बीच देने को तैयार था जबकि हवाला बाज़ार में एक डॉलर की क़ीमत 250 श्रीलंकाई रुपयों तक हुआ करती थी.
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गणेशमूर्ति एम मानते हैं कि सरकार अगर इस स्थिति में बदलाव करे तो उसके पास विदेशी मुद्रा के पहुंचने का सिलसिला शुरु हो जाएगा जिससे वो रोज़ के ज़रूरत के सामान जैसे पेट्रोल-डीज़ल, दवाईयां इत्यादि आयात कर पाएगी.
धनानथ फरनेंडो हालांकि मानते हैं कि जिस तरह की राजनीतिक स्थिति फिलहाल श्रीलंका में जारी है उसमें पर्यटक वहां जाना पसंद नहीं करेंगे, न ही दूसरे देश अपने नागिरकों को श्रीलंका जाने की सलाह देंगे.
उनके अनुसार श्रीलंका में पर्यटन को पहले से ही इंडोनेशिया और थाईलैंड जैसे देशों से भारी चुनौती मिल रही है क्योंकि इन देशों में मूलभूत सुविधाएं बेहतर हैं और रेट कम.
कोविड के पूरी तरह समाप्त न होने और विश्व के मंदी की ओर बढ़ते क़दम की बात भी लोग इस मामले को लेकर करते हैं.
चाय, रबर, वस्त्र और रत्न का निर्यात
वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.
ड्रामा क्वीन
समाप्त
दूसरे क्षेत्र जिनकी काफी बातें होती हैं वो हैं चाय, रबर, वस्त्रों का निर्यात और रत्न
बीबीसी से बात करने वाले जानकारों का मानना था कि चाय के क्षेत्र में श्रीलंका को भारत और कीनिया जैसे देशों की प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है, और ‘वस्त्रों का निर्यात भी अपने अधिकतम सीमा तक पहुंच चुका है.’
धनानथ फरनेंडो कहते हैं कि चाय और रबर के क्षेत्र में तो ऐसा लगता है कि श्रीलंका ने खुद अपने मुक़ाबले में दूसरों को खड़ा किया.
1970 के दशक में देश में चाय और रबर के बगानों को निजी हाथों से सरकार ने ले लिया जिसके कारण उत्पाद कम हो गया, नए निवेश भी नहीं हो पाए.
नतीजा ये हुआ कि जिनके बग़ान सरकार ने लिए थे वो नई जगहों जैसे अफ्रीक़ी देश कीनिया और इथियोपिया शिफ्ट हो गए और कुछ सालों में श्रीलंका के उत्पाद के मुक़ाबले या बेहतर माल बाज़ार में सप्लाई करने लगे.
कपड़ों के निर्यात में भी श्रीलंका को बांग्लादेश जैसे देशों का सामना करना पड़ रहा है.
कृषि के क्षेत्र में हाल के सालों में राजपक्षे सरकार ने खाद के इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी जिससे फसल का उत्पाद कम हो गया है और स्थिति को बहाल होने में सालों लग जाएंगे.
नए क्षेत्रों की तलाश अहम
धनानथ फरनेंडो का अनुमान है कि श्रीलंका को आर्थिक स्थायित्व हासिल करने में कम से कम पांच से छह साल का समय लगेगा वो भी तब जब वो आर्थिक सुधारों का काम बड़े पैमाने पर शुरु करता है.
अर्थशास्त्री सरकारी क़र्ज़ को लेकर नए नियम बनाने, सरकारी कंपनियों में सुधार, मज़दूर नियमों और टैक्स दर में भारी बदलाव की बात करते हैं.
गणेशमूर्ति एम कहते हैं कि सरकार ने ये सोचकर टैक्स दर कम किया कि इससे निवेश बढ़ेगा, मांग में बढ़ोतरी होगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं और सरकार को होनेवाली आय में भी कमी आ गई, सरकार का ख़र्च कम नहीं हो सकता था क्योंकि उसे 15 लाख सरकारी कर्मचारियों की पगार देते रहना था, बैंक सरकारी ख़र्च चलाने को नोट छापते रहे जिसका नतीजा हुआ कि महँगाई तेज़ी से बढ़ी.
पिछले दिनों श्रीलंका में मंहगाई दर 50 प्रतिशत आंकी गई थी और केंद्रीय बैंक ने कहा था कि वो 75 फ़ीसद तक जा सकती है.
व्यापार और उद्योग जगत के लोग कहते हैं कि श्रीलंका को अगर वर्तमान स्थिति से भविष्य मे बचना है तो उसे वैल्यू-चेन और प्रोडक्शन नेटवर्क का हिस्सा बनना होगा जो इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर, रक्षा और वाहन तैयार करने के क्षेत्र में हो सकता है.