बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने अपनी किताब ‘गोपालगंज से रायसीना’ में छात्र जीवन से लेकर सत्ता तक पहुंचने की कहानी बताई है। पढ़ें लालू की कहानी, उन्हीं की जुबानी।
यह सच है कि मैं उन्हें झूठ बोलकर अपने साथ ले आया था, लेकिन जेल का दरवाजा देखकर वे जिस तरह भागे, यह खबर पटना पहुंच गई। स्वतंत्रता सेनानी और जेपी के सहयोगी आचार्य राममूर्ति ने मुझे तलब किया और उन 17 कार्यकर्ताओं के रवैये पर चिंता जताते हुए मुझे जेपी से मिलने के लिए कहा। मैं घबराया हुआ था। जेपी से मिलकर मैंने कहा, ‘बाबूजी, वे कार्यकर्ता दरअसल भागे नहीं। उनको यह जानकारी थी कि 1942 में आपने हजारीबाग जेल से भागकर ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ भूमिगत आंदोलन का सफलतापूर्वक निर्वाह किया था। उन्होंने आपका अनुकरण करने की कोशिश की।’ जेपी सिर्फ मुस्कुराए। शायद वह मेरा झूठ पकड़ चुके थे। इस तरह एबीवीपी कार्यकर्ताओं की चालबाजी के बावजूद मैंने उनका बचाव किया। 1974 के जुलाई-अगस्त में जेल में सुविधाएं बढ़ाने की मांग करते हुए उपवास और आंदोलन के दौरान मैं बीमार पड़ गया। मुझे पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल के कैदी वॉर्ड में इलाज के लिए भेज दिया गया। रामबहादुर राय, महामाया प्रसाद सिन्हा, वैद्यनाथ बाबू और संपूर्ण क्रांति के कार्यकर्ताओं ने उस दौर में मेरी भरपूर मदद की।
यूं पड़ा मीसा का नाम
मेरे नजदीकी दोस्त उन दिनों राबड़ी को मेरे पास ले आते थे, और कैदी वॉर्ड में ही हमारे लिए ऐसी व्यवस्था कर देते थे, ताकि हम अकेले में मिलें और बातचीत कर सकें। उन्होंने उन सुरक्षाकर्मियों से दोस्ती गांठ ली थी। मेरे उन दोस्तों को पता था कि मुझे और राबड़ी को आम पति-पत्नी की तरह मिलने का अवसर कम ही मिला था, क्योंकि गौने के कुछ दिनों के बाद ही मैं गिरफ्तार हो गया था। मुझे राबड़ी के गर्भवती होने की सूचना जब मिली, तब मैं मीसा के तहत कैद था। 22 मई, 1975 को हमारी पहली संतान का जन्म हुआ। मैं पत्नी से मिलने और नवजात बच्ची को देखने के लिए कुछ दिनों के लिए पैरोल पर बाहर आया। चूंकि मैं मीसा के तहत गिरफ्तार हुआ था, इसलिए जेपी ने सुझाव दिया कि मैं अपनी नवजात बच्ची को मीसा पुकारूं और इस तरह मेरी पहली संतान का नाम मीसा भारती पड़ा।
हमारे पास वह तस्वीर है, जिसमें जेपी हमारे घर आए थे, राबड़ी और मुझसे मिले थे और मीसा को आशीर्वाद दिया था। एक बार जेपी ने मुझे अपने घर पर बुलाया और मेरी आर्थिक स्थिति के बारे में पूछा। मैंने उनसे अपनी आर्थिक विपन्नता के बारे में बताया और उनसे 200 रुपये मांगे। जेपी ने अपनी दराज खोली और तुरंत ही मुझे रुपये दे दिए। जेपी ने अपने सचिव सच्चिदानंद को मेरे परिवार की देखरेख करने और मुझे आर्थिक रूप से मदद करने के लिए कहा। एलएलबी की फाइनल परीक्षा की तिथि जब घोषित हुई, तब भी मैं जेल में ही था। न्यायिक प्रशासन ने मुझे पीएमसीएच के कैदी वॉर्ड से ही परीक्षा में बैठने की अनुमति दी। निरीक्षक आए और मुझे प्रश्न पत्र और कॉपी दी। लेकिन मैंने परीक्षा देने से इनकार कर दिया, क्योंकि प्रश्नपत्र अंग्रेजी में था और हम शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का विरोध कर रहे थे। विश्वविद्यालय प्रशासन ने बाद में प्रश्नपत्र हिंदी और अंग्रेजी में तैयार किए और मैंने परीक्षा दी।
देवीलाल से अलग होना
वीपी सिंह और देवीलाल ने 1989 में राजीव गांधी सरकार को बेदखल करने के लिए एकजुट होकर काम किया था। लेकिन अब वे एक-दूसरे को लेकर असहज हो गए थे। दोनों के बीच जो सौहार्दपूर्ण रिश्ता था, वह धीरे-धीरे खत्म होने लगा। मुझे चिंता होने लगी कि वीपी सिंह और देवीलाल के बीच बढ़ते तनाव से राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार गिर सकती है और इसका असर बिहार में मेरी सरकार पर भी पड़ सकता है। मेरा यह भय जायज था, क्योंकि पिछले दशक में केंद्र में हुई हर उथल-पुथल का असर पटना तक महसूस किया गया था। मैंने जनता पार्टी की सरकार को अंदरूनी झगड़े के कारण गिरते देखा था और नहीं चाहता था कि जनता दल का भी ऐसा हश्र हो।
अगस्त, 1990 में वीपी सिंह सरकार को बचाने के लिए मैंने एक फॉर्म्युला ईजाद किया। मैंने किसी भी केंद्रीय मंत्री को जरा-सी भी भनक नहीं लगने दी और प्रधानमंत्री से मिलने का समय मांगा। वह इसके लिए सहज तैयार हो गए। मैं दिल्ली पहुंचा। प्रधानमंत्री को उनसे मेरी मुलाकात के मकसद के बारे में जरा भी एहसास नहीं था। औपचारिकताओं के बाद मैंने उनसे दो टूक कहा- आपको देवीलाल के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए, वरना सरकार गिर जाएगी। वीपी सिंह अवाक रह गए। पहली बात उन्होंने दूर-दूर तक भी कल्पना नहीं की थी कि मैं ऐसा कर सकता हूं। इसके अलावा वह जानते थे कि मैं देवीलाल कैंप का आदमी हूं। उनका हैरत में पड़ना बहुत स्वाभाविक था कि आखिर क्यों मैं देवीलाल के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कह रहा हूं, जो कि मेरे हितैषी थे। मगर इसके साथ ही वह खुश हुए होंगे कि देवीलाल का एक कट्टर समर्थक उनके खेमे में आ रहा है।