छगन भुजबल और बाल ठाकरे
महाराष्ट्र की सियासत में बाल ठाकरे को कई राजनेता अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं। ऐसे ही एक नेता हैं छगन भुजबल जो फिलहाल शरद पवार की एनसीपी पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं। कभी छगन भुजबल कट्टर शिवसैनिक थे लेकिन उन्होंने भी कई साल पहले शिवसेना छोड़ दी थी। इसके पीछे भी अलग कहानी है लेकिन उसको जानने के पहले हमें छगन भुजबल और उनके अतीत को भी जानना होगा। छगन भुजबल साठ के दशक के आखिर में मुंबई की भायखला मंडी में सब्जी बेचने का काम करते थे। इसी दौरान बाल ठाकरे का एक भाषण सुनकर वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भी शिवसैनिक बनने का फैसला कर लिया। यह शिवसेना का शुरुआती दौर था। उस उस समय बाल ठाकरे गली-मोहल्ले में जाकर लोगों से मिल रहे थे और अब पार्टी को मजबूत बनाने की कोशिशों में जुटे हुए थे। इस दौरान उन्होंने मराठी मानुस का भी मुद्दा उठाया था। तब यह मुद्दा महाराष्ट्र की सियासत में नया था लेकिन शिवसेना संगठन को खड़ा करने के लिए काफी अहम था। यहीं से छगन भुजबल एक कट्टर शिवसैनिक बने और कुछ सालों के राजनीतिक करियर के बाद वो पार्टी के एक ताकतवर नेता भी बने।
गुरु और शिष्य की अदावत
अब तक छगन भुजबल को बालासाहेब के करीबी नेताओं में शुमार किया जाने लगा था। ओबीसी समाज में अच्छी पकड़ रखने वाले भुजबल दबंग और तेज दिमाग थे। साथ ही भाषण कला में भी वह निपुण थे। उनके प्रयासों से भी शिवसेना का काफी विस्तार हुआ था लेकिन साल 1985 में कुछ ऐसा हुआ कि दोनों के बीच खटास पैदा हो गई। दरअसल उस साल हुए विधानसभा चुनाव के बाद शिवसेना महाराष्ट्र में सबसे बड़ा विपक्षी दल बन कर उभरी थी। हालांकि, जब विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष चुनने की बारी आई तब भुजबल को यह लगा कि बाल ठाकरे यह जिम्मेदारी उन्हें देंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ बाल ठाकरे ने भुजबल की जगह यह जिम्मेदारी मनोहर जोशी को सौंप दी थी।
भुजबल का डिमोशन
बाल ठाकरे ने छगन भुजबल को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाया बल्कि उन्हें महानगरपालिका यानी बीएसमी की सियासत में भेज दिया और उन्हें मुंबई शहर का मेयर बनाया गया। तब भुजबल मुंबई में शिवसेना के पहले मेयर बने थे। यह बात भुजबल को नश्तर की तरह चुभ रही थी कि बाल ठाकरे ने उनका डिमोशन कर दिया है। राज्य की राजनीति से हटाकर उन्हें शहर की राजनीति में ढकेल दिया गया है।
इसी बीच 1991 आते-आते छगन भुजबल ने खामोशी तोड़ते हुए सार्वजनिक तौर पर मनोहर जोशी पर हमला करना शुरू कर दिया। उन्होंने यह भी साफ किया कि उन्हें दोबारा मुंबई का मेयर बनने में कोई दिलचस्पी नहीं है और अब उन्हें विपक्ष का नेता बनाया जाना चाहिए। भुजबल के बागी तेवरों को भांपते हुए बाल ठाकरे ने उन्हें और मनोहर जोशी को मातोश्री पर बुलाकर सुलह कराने का प्रयास किया। इसका फायदा तो हुआ लेकिन भुजबल ज्यादा दिनों तक शांत नहीं रहे।
भुजबल की बगावत
अब तक छगन भुजबल के अंदर का गुस्सा विद्रोह का रूप ले चुका था। 5 दिसंबर 1991 को भुजबल ने बाल ठाकरे के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद कर दिया। तब भुजबल के नेतृत्व में उस समय शिवसेना के 18 विधायकों ने विधानसभा स्पीकर को पत्र सौंपकर शिवसेना-बी नाम का एक अलग गुट बनाने का दावा पेश किया। उन्होंने यह भी कहा कि वह खुद को मूल शिवसेना से अलग कर रहे हैं। तब स्पीकर ने भुजबल के गुट को मान्यता दे दी। जिसके बाद उन्होंने अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस की सदस्यता ली। इस तरह से छगन भुजबल ने शिवसेना में बड़ी फूट को अंजाम दिया था। यह वह दौर था जब पार्टी की स्थापना के बाद पहली बार किसी ने बाल ठाकरे से बगावत करने की जुर्रत की थी।
भुजबल की बगावत के बाद विधानसभा में शिवसेना की के विधायकों की संख्या 52 से घटकर 34 हो चुकी थी। इसी बीच बीजेपी ने भी मौके का फायदा उठाते हुए नेता विपक्ष के पद पर अपना दावा ठोक दिया। बीजेपी के पास शिवसेना से ज्यादा यानी 41 विधायक थे। तब शिवसेना को बीजेपी की इस मांग के आगे झुकना पड़ा और बीजेपी नेता गोपीनाथ मुंडे नेता प्रतिपक्ष बनाये गए।
जब भुजबल को कमरे में छिपना पड़ा
छगन भुजबल और बालासाहेब ठाकरे के बीच दुश्मनी का बीज काफी बड़ा हो चुका था। बाल ठाकरे, भुजबल को सबक सिखाना चाहते थे और उन्हें यह मौका तब मिला जब राज्य में शिवसेना-बीजेपी की सरकार आ चुकी थी। उस दौरान छगन भुजबल कांग्रेस की ओर से विधान परिषद में विपक्ष के नेता थे। उन्हें सरकारी बंगला अलॉट किया गया था जो शिवसेना- बीजेपी मंत्रियों के बगल में ही था। उस दौरान सैकड़ों शिवसैनिक श्रम मंत्री साबिर शेख के बंगले पर जमा हो गए और फिर अचानक भुजबल के बंगले पर हमला कर दिया। शिवसैनिक भुजबल को पीटने के लिए ढूंढ रहे थे लेकिन उस तब भुजबल ने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया था। गुस्साए शिवसैनिकों ने बंगले में जमकर तोड़फोड़ की और फर्नीचर और अन्य सामान को काफी नुकसान पहुंचाया। पुलिस ने शिवसैनिकों को रोकने का काफी प्रयास किया लेकिन वह भी पूरी तरह से सफल नहीं हो पाए। हालांकि, उस हमले में भुजबल बाल-बाल बच गए।
भुजबल का बदला और बाल ठाकरे की गिरफ्तारी
भुजबल भी बदले की आग में जल रहे थे, साल 2000 में उन्हें बदला लेने का वह मौका भी मिल गया। जब राज्य में कांग्रेस- एनसीपी की सरकार बनी तब छगन भुजबल को गृह मंत्री बनाया गया। ठाकरे से बदला लेने के लिए छगन भुजबल ने वही जुलाई के महीना चुना जिसमें उनपर हमला हुआ था। बाल ठाकरे पर 1992-93 के मुंबई दंगों के दौरान सामना अखबार में भड़काऊ संपादकीय लिखने का गंभीर आरोप था। मुसीबत यह थी कि जिन धाराओं के तहत यह मामला दर्ज हुआ था, उसमें गिरफ्तारी के लिए सरकार की अनुमति लेना अनिवार्य था। ऐसे में यह मामला ठंडे बस्ते में पड़ा था। हालांकि, गृह मंत्री बनने के बाद भुजबल ने यह फाइल दोबारा खोल दी और मुंबई पुलिस को बाल ठाकरे की गिरफ्तारी करने का आदेश दिया।
बाल ठाकरे की गिरफ्तारी का दिन
बाल ठाकरे की गिरफ्तारी के लिए 25 जुलाई 2000 का दिन तय हुआ, यह एक बड़ा और मुश्किल फैसला था। ठाकरे की गिरफ्तारी की खबर के बाद महाराष्ट्र भर में शिव सैनिकों की ओर से हिंसक प्रतिक्रिया आ सकती थी, हालात बेकाबू भी हो सकते थे। यह सब कुछ जानते हुए यह सब कुछ जानते हुए भी भुजबल अपने फैसले पर अडिग थे। वह हर हाल में ठाकरे को सबक सिखाना चाहते थे। उन्होंने तत्कालीन पुलिस कमिश्नर एमएन सिंह को सख्ती बरतने के आदेश दिए और बाहर से मुंबई शहर में अतिरिक्त फोर्स बुलवाई। 25 जुलाई के दिन शहर में मुंबई शहर में सुबह से ही तनाव था। तोड़फोड़ के डर की वजह से व्यापारियों ने अपनी दुकानें भी बंद रखी थी।
तकरीबन पांच सौ पुलिसकर्मियों की एक टीम मातोश्री बंगले पर पहुंची और वहां से ठाकरे को लेकर पहले दादर के मेयर निवास पर ले गए। वहीं पर ठाकरे की औपचारिक गिरफ्तारी हुई और बाद में पुलिस की टीम लेकर उन्हें लेकर भोईवाड़ा कोर्ट पहुंची। कोर्ट परिसर को भी पूरी तरह से छावनी में तब्दील किया गया था। भारी पुलिस बंदोबस्त के साथ शिवसैनिकों का भी तगड़ा जमावड़ा कोर्ट के बाहर मौजूद था।
कोर्ट का फैसला और फ़ाइल बंद
अदालत में मामले की सुनवाई शुरू हुई तब काफी तनाव था, पुलिस ने बाल ठाकरे को एडिशनल मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया। पुलिस ने अदालत से कहा कि उनके खिलाफ लगे आरोपों की जांच कर जल्द ही चार्जशीट दायर की जाएगी। इसके बाद ठाकरे के वकीलों ने भी उनकी जमानत अर्जी दायर की। हालांकि, जज ने जमानत देने के बजाय ठाकरे के खिलाफ इस मामले को ही हमेशा के लिए बंद कर दिया। उन्होंने कहा कि अपराध की जांच की समय सीमा खत्म हो चुकी है। अदालती कार्यवाही खत्म होने के बाद जब बाल ठाकरे अदालत से बाहर निकले तब उन्होंने जीत विक्ट्री साइन दिखाते हुए शिव सैनिकों का अभिवादन स्वीकार किया।