नेल्सन मंडेला ने जब रंगभेद के दौर में कँटीली बाड़ से देखा था टेस्ट मैच

नेल्सन मंडेला

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यह दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के दौर की बात है. जनवरी 1950 में, ऑस्ट्रेलिया की टीम डरबन में दक्षिण अफ़्रीका के ख़िलाफ़ अपना तीसरा टेस्ट मैच खेल रही थी.

मेहमान टीम के सामने जीत के लिए 336 रनों का लक्ष्य था. पहली पारी में 75 रनों पर आउट होने वाली ऑस्ट्रेलियाई टीम ने नील हार्वे के नाबाद 151 रनों की बदौलत पाँच विकेट के नुक़सान पर ये लक्ष्य हासिल कर लिया.

सामान्य सी बात है कि ये परिणाम दक्षिण अफ़्रीकी प्रशंसकों के लिए निराशाजनक था, लेकिन डरबन के किंग्समीड स्टेडियम के एक तरफ़ मेज़बान टीम की हार पर ख़ुशी मनाई जा रही थी. ख़ुशी मनाने वाले ये सभी लोग काले थे.

इनमें 31 वर्ष का एक ऐसा व्यक्ति भी शामिल था, जिसने अपने देश में रंगभेद नीति के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई, जेल काटी, लेकिन गोरे और काले के बीच खींची रेखा को मिटा कर ही दम लिया. दुनिया उन्हें नेल्सन मंडेला के नाम से जानती है.

“हम दक्षिण अफ़्रीकी टीम का समर्थन नहीं करते थे”

नेल्सन मंडेला ने 27 साल की सज़ा काटने के बाद जून 1991 में पूर्व क्रिकेटर सुनील गावसकर और पत्रकारों के एक ग्रुप से मुलाक़ात की थी. उस ग्रुप में पाकिस्तानी पत्रकार क़मर अहमद भी शामिल थे. इस मुलाक़ात में नेल्सन मंडेला ने डरबन टेस्ट की घटना का विस्तार से वर्णन किया था, जो क़मर अहमद की किताब में भी मौजूद है.

नेल्सन मंडेला ने कहा था, “हम काले हमेशा दक्षिण अफ़्रीका का नहीं, बल्कि मेहमान टीमों का समर्थन करते थे. मैंने डरबन टेस्ट देखा था. हम काले लोगों को आम लोगों के साथ बैठकर मैच देखने की अनुमति नहीं थी. हम लोगों के लिए स्टेडियम में कँटीले तार वाले पिंजरे रखे गए थे, जिनमें बैठ कर हमने वो टेस्ट देखा था.”

“हम लोग दुखी थे, क्योंकि दक्षिण अफ़्रीका की टीम जीतने की स्थिति में थी, लेकिन जब नील हार्वे के शतक ने ऑस्ट्रेलिया को जिता दिया, तो हमारी ख़ुशी की कोई सीमा नहीं थी. हम ख़ुशी में नाचते गाते घर वापस गए.

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दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद नीति के परिणामस्वरूप, वहाँ के नागरिक चार श्रेणियों में विभाजित थे: गोरे, काले, मिश्रित रंग के और एशियन. गोरे बहुमत में नहीं होने के बावजूद शासक थे. और काले बहुमत में होने के बावजूद मूल अधिकारों से वंचित थे.

नस्लीय भेदभाव की इस नीति ने खेलों को भी प्रभावित किया था, यही कारण है कि कई अंतरराष्ट्रीय खेल महासंघों ने दक्षिण अफ़्रीका पर प्रतिबंध लगा दिए थे. यहाँ तक कि अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने इनके लिए ओलंपिक के दरवाज़े भी बंद कर दिए थे.

दक्षिण अफ़्रीका में, क्रिकेट जातीय आधार पर खेला जाता था. हालांकि दक्षिण अफ़्रीका टेस्ट क्रिकेट खेल रहा था, लेकिन केवल इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के ख़िलाफ़. नाटकीय मोड़ उस समय आया, जब इंग्लैंड के टेस्ट क्रिकेटर बासेल डी ओलिवेरा की वजह से, दक्षिण अफ़्रीका के लिए अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के दरवाज़े बंद कर दिए गए.

बासेल डी ओलिवेर काले क्रिकेटर नहीं थे. वह केप कलर्ड थे, जो केपटाउन में पैदा हुए थे. और उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका की काले लोगों की क्रिकेट टीम का प्रतिनिधित्व भी किया था. लेकिन दक्षिण अफ़्रीका में कोई भविष्य नहीं देखते हुए, वह प्रसिद्ध क्रिकेट कमेंटेटर जॉन अर्ल्ट की मदद से इंग्लैंड में बस गए और इंग्लैंड की तरफ से 44 टेस्ट खेले.

जब 1968 में इंग्लैंड टीम के दक्षिण अफ़्रीका दौरे का समय आया, तो यह सवाल उठने लगा कि क्या चयनकर्ता बासेल डी ओलिवेरा का चयन टीम में करेंगे? क्योंकि हो सकता है, कि दक्षिण अफ़्रीका की सरकार इस बात को राजनीतिक मुद्दा न बना दे.

इस मुद्दे का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है, कि दक्षिण अफ्रीका के प्रधानमंत्री बीजे फोस्टर ने ज़ाहिरी तौर पर ये संकेत दिया था कि बासेल डी ओलिवेरा दक्षिण अफ़्रीका के लिए स्वीकार्य होंगे, लेकिन वास्तव में वह इसके पक्ष में नहीं थे.

इंग्लैंड के चयनकर्ताओं ने इस सच के बावजूद कि बासेल डी ओलिवेरा ने ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ टेस्ट में शतक बनाया था. उन्होंने उन्हें दक्षिण अफ्रीका के दौरे पर जाने वाली टीम में शामिल नहीं किया. उन्होंने इसका स्पष्टीकरण देते हुए कहा, कि यह निर्णय राजनीतिक नहीं बल्कि पूरी तरह से क्रिकेट का है. लेकिन उन्हें तीखी आलोचना का सामना करना पड़ा. टॉम केटराइट के अनफ़िट हो जाने के बाद उनके पास डी ओलिवेरा को शामिल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.

दक्षिण अफ़्रीका में, बासेल डी ओलिवेरा के चयन से हंगामा मचा और एमसीसी को इस दौरे को रद्द करने की घोषणा करनी पड़ी.

हालाँकि खेल जगत में दक्षिण अफ़्रीका के बहिष्कार का सिलसिला शुरू हो चुका था. लेकिन बासेल डी ओलिवेरा का विवाद, इसमें ताबूत का आख़िरी कील साबित हुआ.

दक्षिण अफ़्रीका ने नस्लीय भेदभाव की नीति के दौर में अपनी आख़िरी टेस्ट सिरीज़ 1970 में ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ अपने ही मैदान पर खेली और 4-0 से जीत हासिल की. विजेता टीम की कप्तानी डॉक्टर अली बाकिर ने की थी, जो बाद में दक्षिण अफ्रीका के क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख भी बने.

इस सिरीज़ में भाग लेने वाले क्रिकेटरों में बैरी रिचर्ड्स और माइक प्रॉक्टर भी शामिल थे. जिनकी असाधारण क्षमता केवल काउंटी क्रिकेट तक सीमित हो गई और दुनिया अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में उनके जैसे विश्व स्तर के क्रिकेटरों को देखने से वंचित रह गई.

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दक्षिण अफ़्रीका में विद्रोही क्रिकेट टीमें

जिन दिनों दक्षिण अफ़्रीका अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से दूर रहा, उसका फ़र्स्ट क्लास क्रिकेट जारी रहा. इस बीच, श्रीलंका, इंग्लैंड और वेस्टइंडीज़ के क्रिकेटरों की टीमों ने भी दक्षिण अफ़्रीका के दौरे किये. चूँकि इन टीमों के पास आईसीसी और उनके स्वयं के क्रिकेट बोर्ड की अनुमति नहीं थी, इसलिए इन क्रिकेटरों को इन दौरों के बदले प्रतिबंधों का भी सामना करना पड़ा.

इनमें पहली टीम में इंग्लिश खिलाड़ी थे. जिन्होंने 1982 में ग्राहम गूच के नेतृत्व में दक्षिण अफ़्रीका का दौरा किया था. इस टीम में 11 टेस्ट खिलाड़ी शामिल थे और दौरे को इतना गुप्त रखा गया था कि टीम के जोहानेसबर्ग पहुँचने पर दुनिया को इसका पता चला. इस दौरे में शामिल क्रिकेटरों पर तीन साल का प्रतिबंध लगाया गया था.

सन 1982 में बंडोला वर्नपुरा के नेतृत्व में, श्रीलंका ने अपना पहला टेस्ट खेला. लेकिन उसी वर्ष वर्नपुरा 14 खिलाड़ियों की टीम के साथ दक्षिण अफ़्रीका पहुँच गए, इसके परिणाम में उन सभी को जीवन भर के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था.

अगले दो वर्षों में, वेस्टइंडीज़ के क्रिकेटरों की दो टीमों ने भी दक्षिण अफ़्रीका के दौरे किए. इन टीमों का नेतृत्व पूर्व टेस्ट क्रिकेटर लॉरेंस रोव ने किया था और इसमें एल्विन कालीचरण, कॉलिन क्राफ़्ट, सिल्वेस्टर क्लार्क, बर्नार्ड जूलियन, डेविड मरे और कॉलिंग किंग जैसे जाने-माने खिलाड़ी शामिल थे.

उसी दौरे पर, तेज़ गेंदबाज़ कॉलिन क्राफ़्ट को तब झटका लगा. जब उन्हें केपटाउन में ट्रेन में यात्रा करते समय एक यात्री और कंडक्टर ने यह कह कर बोगी से ज़बरदस्ती उतरने के लिए मजबूर कर दिया कि यह विशेष रूप से केवल गोरे लोगों के लिए है.

विद्रोही टीमों के दौरों के मामले में ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी भी पीछे नहीं रहे. किम ह्यूज के नेतृत्व में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटरों की टीम ने भी दक्षिण अफ़्रीका के दो दौरे किए.

आख़िरी बार किसी विद्रोही टीम का दौरा 1990 में हुआ था, जब माइक गैटिंग की कप्तानी में इंग्लैंड की टीम दक्षिण अफ़्रीका गई थी۔

1980 में वेस्टइंडीज के ख़िलाफ़ टेस्ट खेलने के लिए जब इंग्लैंड की टीम गयाना पहुँची, तो सरकार ने तेज़ गेंदबाज़ रॉबिन जैकमैन को वीज़ा देने से इनकार कर दिया. उनका कहना था कि उनके दक्षिण अफ़्रीका से संबंध रहे हैं. स्थिति इतनी जटिल हो गई कि इंग्लैंड की टीम बिना टेस्ट खेले गयाना से रवाना हो गई.

अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में वापसी

दक्षिण अफ़्रीका की अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में वापसी 1991 में हुई. जब अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद ने उसकी सदस्यता बहाल की. दक्षिण अफ़्रीका ने अपना पहला वनडे नवंबर 1991 में कोलकाता में भारत के ख़िलाफ़ खेला था. दक्षिण अफ़्रीका की टीम का नेतृत्व 41 वर्षीय क्लाइव राइस ने किया था.

दक्षिण अफ़्रीका के लिए सबसे यादगार क्षण वह था, जब उसने 1992 में विश्व कप में पहली बार भाग लिया था. केपलर वेसेल्स के नेतृत्व में टीम सेमी फ़ाइनल में पहुँची, जहाँ बारिश से प्रभावित मैच का नियम इसके फ़ाइनल तक पहुँचने में रुकावट बन गया. आज भी लोग यह बात नहीं भूले हैं, कि दक्षिण अफ़्रीका को मैच जीतने के लिए एक गेंद पर 22 रन का लक्ष्य दिया गया था.

इस विश्व कप को 40 वर्षीय बाएं हाथ के स्पिनर उमर हेनरी के लिए भी जीवन भर याद रखा जाएगा, क्योंकि वह दक्षिण अफ़्रीका के क्रिकेट के इतिहास में पहले काले क्रिकेटर बने, जिन्हें अपने देश में नस्लीय भेदभाव की नीति ख़त्म होने के बाद अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में क़दम रखने का अवसर मिला.