जब पाकिस्तान ने भारत को इस्लामिक देशों के संगठन OIC का संस्थापक सदस्य नहीं बनने दिया

भारतीय जनता पार्टी की निलंबित प्रवक्ता नूपुर शर्मा की ओर से पैगंबर मोहम्मद पर दिए गए विवादित बयान के बाद अरब लीग के देशों ने रोष जताया.

इस मामले पर सबसे पहले क़तर ने रोष व्यक्त किया, इसके बाद सऊदी अरब, ईरान, मालदीव और अफ़ग़ानिस्तान जैसे देशों के अलावा मुस्लिम देशों के संगठन ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी ने भी नाराज़गी जताई.

ये भी कहा जा रहा है कि इन देशों की प्रतिक्रियाओं के चलते ही बीजेपी को अपने पार्टी की प्रवक्ता पर कार्रवाई करने को मजबूर होना पड़ा.

भारत के अरब देशों से मधुर संबंध रहे हैं लेकिन पिछले कई दशकों में यह पहला मौका है जब अरब देश और ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन के सदस्य देशों ने भारत के ख़िलाफ़ इस तरह की एकजुटता दिखायी है.

वैसे इससे पहले ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन के सदस्य देशों के बीच 53 साल पहले भारत का इससे भी तगड़ा विरोध झेलना पड़ा था.

ये बात है 1969 की. ये वही साल है जिस साल ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन की स्थापना हुई थी.

उस वक्त भारत की ओर से मोरक्को में गुरबचन सिंह राजदूत के तौर पर तैनात थे. उन्होंने ही ओआईसी की शुरुआती बैठक में भारत का नेतृत्व किया था.

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एसोसिएशन ऑफ़ इंडियन डिप्लोमेट्स की तिमाही पत्रिका इंडियन फॉरेन अफ़ेयर्स जर्नल (आईएफएजे) में गुरबचन सिंह ने इस दौर के अपने पूरे अनुभव को साझा किया था. अप्रैल-जून, 2006 के अंक में उनसे हुई बातचीत के आधार पर इंडिया एट द रबात इस्लामिक समिट (1969) शीर्षक से लेख प्रकाशित हुआ था.

करीब 16 पन्नों में उन्होंने इस पूरे प्रकरण में एक तरह से भारत का पक्ष रखा था. सवाल जवाब की शक्ल में प्रकाशित आलेख को भारतीय संदर्भ में दस्तावेज़ मान सकते हैं.

इस बैठक की शुरुआत के बारे में उन्होंने बताया है कि इस्लाम धर्म के तीसरे सबसे पवित्र स्थान येरुशलम के अल अक्सा मस्जिद पर 21 अगस्त, 1969 को एक ऑस्ट्रेलियाई शख़्स ने हमले की कोशिश की थी, जिसके बाद अरब देशों के विदेश मंत्रियों की एक बैठक बुलाई गई, तीन दिनों के अंदर 24 अगस्त को यह बैठक मिस्र की राजधानी काहिरा में हुई.

इसी बैठक में सभी इस्लामिक देशों की एक बैठक का विचार पेश किया गया और इसके प्रारूप को लेकर रबात में आठ-नौ सितंबर, 1969 को एक बैठक हुई जिसमें यह फ़ैसला लिया गया कि दो शर्तों को पूरा करने वाले देश को इस बैठक में शामिल होने का निमंत्रण दिया जाए.

पहली शर्त तो मुस्लिम बहुल्य आबादी का होना था और दूसरी शर्त मुस्लिम शासनाध्यक्ष का होना रखा गया.

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भारत की पहचान धर्मनिरपेक्ष देश की थी, हालांकि पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को हिंदूओं का देश साबित करने की कोशिश की थी, लेकिन उसे कोई कामयाबी नहीं मिली थी. क्योंकि विभाजन के बाद भी भारत में मुस्लिमों की बड़ी आबादी थी. 1969 में, मुस्लिम आबादी के नज़रिए से भारत, दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश था.

ओआईसी

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1969 में इस्लामिक देशों की पहली बैठक, कोई पहला मौका नहीं था जब भारत मुस्लिम देशों की किसी बैठक में शामिल होने वाला था क्योंकि इससे पहले भी भारत चार बार अलग अलग मुस्लिम देशों की बैठक में शामिल हो चुका था.

हालांकि यह जानना भी दिलचस्प है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1955 के आसपास ही यह निर्धारित किया था कि भारत किसी भी पैन इस्लामिक सदस्य देशों का हिस्सा नहीं बनेगा क्योंकि उनके मुताबिक ऐसे संगठनों में राजनीतिक गतिविधियों को धार्मिक कवर मिलता है.

लेकिन 1964 आते-आते उनके ही नेतृत्व में भारत ने अपनी नीति को बदलने का फ़ैसला लिया, क्योंकि भारत मध्य पूर्व के देशों को पाकिस्तान के लिए खुला नहीं छोड़ना चाहता था.

इस्लामिक देशों की रबात में होने वाली बैठक से पहले भारत 26 दिसंबर, 1964 से पांच जनवरी, 1965 तक आयोजित छठे मुस्लिम कांफ्रेंस में शामिल हो चुका था.

इसके बाद छह मार्च से 14 मार्च, 1965 के बीच बांडुंग में आयोजित पहले एफ्रो एशियन इस्लामिक कांफ्रेंस में भारत के पांच मुस्लिम नेताओं का दल शिरकत कर चुका था. तब माना गया था कि इससे पाकिस्तान के प्रोपगैंडा को कम करने में मदद मिलती है.

इसके बाद 17 से 24 अप्रैल, 1965 में गै़र सरकारी मगर मक्का में आयोजित मुस्लिम वर्ल्ड लीग में भी भारतीय दल शामिल हुआ. यह बैठक भले गै़र सरकारी रही हो, लेकिन इसका निमंत्रण राष्ट्रपति के पास आया था और उनके द्वारा मनोनीत दल इस सम्मेलन में शिरकत करने गया था.

भारत को मिला था निमंत्रण?

लेकिन रबात की बैठक में दुनिया के तमाम इस्लामिक देश शामिल होने वाले थे. क्या भारत को उस बैठक में आधिकारिक तौर पर बुलाया गया था?

उस वक्त मोरक्को में भारत के राजदूत रहे गुरबचन सिंह ने बताया था कि सोमवार, 22 सितंबर, 1969 को शाम साढ़े पांच बजे रबात के हिल्टन होटल में इस बैठक का उद्घाटन समारोह था.

उन्होंने अपने अनुभव में बताया है, “मंगलवार यानी 23 सितंबर को सुबह 11 बजे पहली बैठक थी. मुझे मोरक्को के चीफ़ ऑफ़ प्रोटोकॉल का फ़ोन आया, वे मुझे मोरक्को के विदेश मंत्री एम. अहमद लाराकी के पास ले गए. विदेश मंत्री ने मुझसे कहा था कि बैठक शुरू हो गई लेकिन हम सब लोगों ने एकमत से फ़ैसला लिया है कि भारत को भी इस अधिवेशन के लिए अपना आधिकारिक प्रतिनिधि मंडल भेजना चाहिए था.”

गुरबचन सिंह के मुताबिक उन्होंने तभी पूछा था कि क्या भारत को बुलाने के लिए पाकिस्तान तैयार है? उनके इस सवाल का जवाब हां में मिला था.

अब गुरुबचन सिंह के सामने भारतीय प्रतिनिधि मंडल को बुलाने की चुनौती थी, ऐसे में लाराकी का सुझाव था कि अगर भारत का कोई प्रतिनिधि मंडल यूरोप में हो तो उसी को बुला लेना चाहिए.

रबात की बैठक

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इमेज कैप्शन,रबात, 1969 में ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉओपरेशन की बैठक में अल्ज़ीरिया के नेता और लीबिया के नेता एम अल गद्दाफ़ी

गुरबचन सिंह ने लाराकी को बताया कि वे भारत सरकार से प्रतिनिधि मंडल भेजने का अनुरोध कर रहे हैं लेकिन दल अगले दिन तक ही रबात पहुंच पाएगा.

गुरबचन सिंह ने यह भी सुझाव दिया कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के तत्कालीन वाइस चांसलर डॉ. अब्दुल अलीम मोरक्को में मौजूद हैं, उनको बुलाया जा सकता है लेकिन लाराकी ने उनसे कहा कि बेहतर होगा कि सरकारी प्रतिनिधि मंडल ही इसमें हिस्सा ले और चूंकि आप यहां राजदूत हैं तो आप इसमें हिस्सा लें.

गुरबचन सिंह को इसके लिए भारत के विदेश मंत्रालय से अनुमति लेनी थी, लिहाज़ा वे दफ़्तर लौटे और उन्होंने यह सारी बातें तत्कालीन विदेश सचिव केवल सिंह को बतायी और उन्होंने गुरबचन सिंह को सम्मेलन में हिस्सा लेने को कह दिया. गुरबचन सिंह अपने साथ डॉ. अब्दुल अलीम और अपने सचिव इशरत अज़ीज़ को लेकर बैठक में शामिल हुए.

भारतीय दल शामिल हुआ शुरुआती बैठक में

गुरबचन सिंह के मुताबिक यह सारी लाराकी ने ये सारी बातें शाम के प्रेस कांफ्रेंस में दोहरायीं और ये अगले दिन अख़बारों में छपीं थीं.

गुरुबचन सिंह की इस बात की पुष्टि ओआईसी के 40 साल पूरे होने पर प्रकाशित किताब ‘द इस्लामिक वर्ल्ड इन द न्यू सेंचुरी’ से भी होती है. इस पुस्तक को तुर्किए के विद्वान इकमेलेदिन एहसनोगलू ने लिखा था जो 2005 में ओआईसी सदस्य देशों के लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए पहले महासचिव थे.

नौ अध्याय वाली इस पुस्तक का अहम हिस्सा ओआईसी की शुरूआती बैठक को लेकर है. इसमें भी कहा गया है कि भारत ओआईसी का संस्थापक सदस्य होते होते रह गया था.

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बहरहाल, गुरबचन सिंह जब बैठक में शामिल होने पहुंचे तो अफ़ग़ानिस्तान और सूडान के विदेश मंत्रियों ने उनका स्वागत किया और उन्होंने ख़ुद को ईरान के शाह और सऊदी अरब के सुल्तान को भी अपना परिचय दिया. उनके मुताबिक उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति याह्या ख़ान को भी अपना परिचय दिया तो वे बहुत शांत थे.

1971 भारत पाकिस्तान युद्ध

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इमेज कैप्शन,याह्या ख़ान

पांच बजे शाम की बैठक में मोरक्को के किंग ने भारतीय प्रतिनिधि मंडल का स्वागत किया और बताया कि अगले दिन भारतीय प्रतिनिधिमंडल बैठक में शामिल होगा. गुरबचन सिंह को जब बैठक को संबोधित करने का मौका मिला तो उन्होंने बताया कि भारत के औद्योगिक विकास मंत्री फ़खरूद्दीन अली अहमद रबात के लिए रवाना हो चुके हैं.

रात दस बजे तक यह सत्र चला और कहीं से भारत के विरोध की कोई बात नहीं हुई. लेकिन 24 सितंबर की सुबह लाराकी ने एक बार फिर गुरबचन सिंह को मिलने के लिए बुलाया और कहा कि अहमदाबाद दंगे की वजह से कुछ सदस्य देशों ने भारत की मौजूदगी पर आपत्ति जताई है और उन्होंने सुबह के सत्र से भारतीय दल को अनुपस्थिति रहने की सलाह दी.

गुरबचन सिंह ने इस बारे में बताया कि वे इसके लिए तैयार हो गए और साढ़े तीन बजे आने वाले भारतीय प्रतिनिधिमंडल की आगवानी की तैयारियों में जुट गए.

लेकिन इसी दौरान गुरबचन सिंह को पाकिस्तानी राष्ट्रपति के नाराज़गी की भनक लग चुकी थी. उनको जो जानकारी मिल रही थी उसके मुताबिक पाकिस्तान के राष्ट्रपति याह्या ख़ान ने यह घोषणा कर दी थी कि अगर भारतीय प्रतिनिधि मंडल को बैठक में शामिल होने दिया जाता है तो वे इस बैठक में शामिल नहीं होंगे.

इसके चलते सुबह का सत्र एक बजे तक शुरू नहीं हो पाया था. याह्या ख़ान को कई देशों के शासनाध्यक्ष ने फ़ोन करने की कोशिश की लेकिन वे फ़ोन पर नहीं उपलब्ध हुए. यह भी कहा जाता है कि उन्हें मनाने के लिए ईरान और सऊदी अरब के प्रमुख भी पहुंचे लेकिन उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया था.

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देखते देखते साढ़े तीन बजे गए थे, फ़ख़रूद्दीन अली अहमद के नेतृत्व में भारतीय प्रतिनिधि मंडल रबात पहुंच गया था और इन लोगों का राजकीय स्वागत किया गया. जब वे अपने निर्धारित जगह पर पहुंचे तो मोरक्को के किंग हसन ने अहमद को फ़ोन करके सलाम दुआ किया.

इस कांफ्रेंस के चेयरमैन होने के नाते किंग हसन ने अहमद के सामने अहमदाबाद दंगे का हवाला देते हुए कुछ सदस्य देशों के विरोध की बात बतायी और कहा कि क्या भारतीय दल इस बैठक में आब्जर्वर के तौर पर शामिल हो सकता है, जिससे भारत ने स्वीकार नहीं किया.

जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति अड़ गए

इसके बाद यह प्रस्ताव रखा गया भारत स्वेच्छा से इस बैठक में शामिल नहीं हो, फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तब स्पष्टता से कहा कि चूंकि वे बेहद शॉर्ट नोटिस पर आधिकारिक निमंत्रण के बाद आए हैं, इसलिए भारत को यह प्रस्ताव भी स्वीकार नहीं है.

गुरबचन सिंह के मुताबिक रात के आठ बजकर 20 मिनट में भारतीय प्रतिनिधि मंडल से मिलने के लिए अफ़ग़ानिस्तान, मलेशिया और नाइजर जैसे देशों के शासन प्रमुख मिलने आए.

ओआईसी

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इन लोगों ने भारतीय दल से कांफ्रेंस को कामयाब बनाने के लिए मदद मांगी. पाकिस्तान के भारतीय विरोध की कई वजहों का ज़िक्र होने लगा, जिसमें अहमदाबाद में भड़के दंगे, शुरुआती सत्र में भारतीय प्रतिनिधि मंडल में गुरबचन सिंह जैसे सिख सरदार की मौजूदगी और सरकारी प्रतिनिधि मंडल का बैठक के लिए पहुंचना उन वजहों में गिनाए गए थे.

लेकिन असली वजह ये थी कि जब भारत को आधिकारिक निमंत्रण की बात पाकिस्तान पुहंची तो याह्या ख़ान के विरोधी नेताओं, असगर ख़ान, जुल्फ़िकार अली भुट्टो और मुमताज दौलताना जैसे नेताओं ने विरोध ज़ाहिर किया था. इस विरोध की जब ख़बर याह्या ख़ान को मिली तो उन्हें अपने राजनीतिक भविष्य पर ख़तरा महसूस हुआ. 25 सितंबर, 1969 को पाकिस्तान टाइम्स ने अपने संपादकीय में भी इस ओर इशारा किया था.

लेकिन उस दिन क्या हुआ था इसका जिक्र पाकिस्तान एयर फ़ोर्स के स्क्वाड्रन लीडर और बाद में राजनयिक बने अरशद शमी ख़ान ने अपनी मेमॉयर ‘थ्री प्रेसिडेंट्स एंड एन आइड’ में किया था. जाने माने गायक अदनान शमी के पिता और 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध में अहम भूमिका निभाने वाले शमी ख़ान को 2012 में मरणोपरांत पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान ए इम्तियाज़ से सम्मानित किया गया था.

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उनकी एक बड़ी ख़ासियत यह भी रही कि वे अयूब ख़ान, याह्या ख़ान और जुल्फ़िकार अली भुट्टो, यानी तीन-तीन राष्ट्रपति के ओएसडी रहे.

उन्होंने अपनी मेमॉयर में लिखा है, “जब रबात की बैठक में भारतीय प्रतिनिधि मंडल की बात हुई तो याह्या ख़ान ने कोई विरोध नहीं किया था. लेकिन रात में उनसे तीन पाकिस्तानी पत्रकार मिलने आए और उन तीनों ने ही उन्हें अपना स्टैंड बदलने की सलाह दी थी.”

“इसके बाद वे अगली सुबह होटल के कमरे से बाहर नहीं निकले और रबात से वापस लौटने की बात कही. अगर वे लौट जाते तो इस बैठक का मतलब ही नहीं रह जाता क्योंकि तब पाकिस्तान दुनिया का सबसे बड़ा मुस्लिम देश था.”

लेकिन इस पूरे विवाद की वजह से 24 सितंबर को किसी सत्र की बैठक नहीं हुई, इन बैठकों को 25 सितंबर को कराने पर सहमति बनी, लेकिन भारतीय दल को कहा गया कि 25 सितंबर को कोई बैठक नहीं हो रही है.

जब भारतीय दल को पता चला कि मीटिंग चार बजे से हो रही है तो भारतीय दल ने आयोजकों से भाग लेने के बारे में पत्र लिखकर पूछा. लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिला.

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बाद में भारतीय दल की अनुपस्थिति में पांच बजे की बैठक में आर्गेनाइजेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉपरेशन (आईआईसी) के गठन का प्रस्ताव पास किया गया.

इसमें यह भी कहा गया कि भारत के मुस्लिम समुदाय ने शुरुआती बैठक में हिस्सा लिया. जबकि फ़ख़रुद्दीन अली अहमद के नेतृत्व में गया दल भारत का सरकारी दल था.

यह भारतीय दल के लिए शर्मसार करने वाली स्थिति थी क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी बैठक में किसी देश को आमंत्रित करके भाग नहीं लेने देने का पहला मौका था. लेकिन 24 सितंबर से लेकर 26 सितंबर तक भारतीय दल पूरी तरह से मोरक्को सरकार की मेहमान की तरह रही.

इंदिरा गांधी की सरकार को संसद के शीत कालीन सत्र में सरकार को विपक्ष के विरोध का सामना करना पड़ा था. हालांकि तब तक भारत सरकार ने गुरबचन सिंह सिंह को रबात से वापस बुला लिया था.

इस पूरे वाक़ये में एक सवाल यह भी उठा था कि जिन अरब देशों के बेहद नज़दीकी होने के बाद भी रूस और चीन को इस्लामिक देशों की पहली बैठक में शामिल होने का मौक़ा नहीं मिला, लेकिन भारत को कैसे मिल गया?

इसकी एक बड़ी वजह अरब देशों से भारत के कारोबारी संबंध और भारत में मुस्लिमों की बड़ी आबादी थी.

इस बारे में 19 अक्टूबर, 1965 को भारतीय समाचार एजेंसी पीटीआई की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के कई मुस्लिम नेताओं ने मोरक्को के किंग हसन से अनुरोध किया था कि भारत के मुसलमान भी अल अक्सा मस्जिद पर हुए हमले की कोशिश पर बात करना चाहते हैं.

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इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत का विदेश मंत्रालय शुरुआती तौर पर इस बैठक में भाग लेने को इच्छुक नहीं था लेकिन बाद में भारत ने अरब देशों के नई दिल्ली स्थिति राजदूतों से यह ज़रूर कहा था कि भारत को इस बैठक से दूर नहीं रखना चाहिए.

एक दूसरा अहम सवाल यह उठा था कि धर्मनिरपेक्ष होने के बाद भारत उस बैठक में हिस्सा लेने को क्यों तैयार हुआ था?

इस बारे भारत के जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और वकील एजी नूरानी ने समाचार पत्रिका फ्रंटलाइन में इंदिरा गांधी के सांसद सी.सी. देसाई को लिखे पत्र का हवाला दिया है जिसमें यह कहा गया था कि रबात की बैठक भले धार्मिक आधार पर हो रही हो लेकिन बैठक में जिन मुद्दों पर चर्चा होनी है वह बिलकुल राजनीतिक बातें हैं.

हालांकि नूरानी ने यह भी लिखा है कि उस वक्त बहुत लोगों ने माना था कि भारतीय मुसलमानों को संतुष्ट करने के लिए भारत ने यह क़दम उठाया था.

वैसे 1962 में चीन से युद्ध में हार के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के लिए दूसरा मौका था जब उसकी प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची थी. लेकिन मध्य पूर्व देशों में भारत के राजदूत के तौर पर सालों तक काम कर चुके वरिष्ठ राजनयिक केसी सिंह बताते हैं कि इस वाक़ये के बाद भारत जल्दी ही उबर गया और मध्य पूर्व के देशों से उसके सहज संबंध बन गए थे.

1971 भारत पाकिस्तान युद्ध, रेहान फजल

वहीं रबात बैठक के महज़ दो साल के अंदर पाकिस्तान के राष्ट्रपति याह्या ख़ान को बांग्लादेश की मुक्ति संग्राम में इंदिरा गांधी की कूटनीति के सामने हार का सामना करना पड़ा था और बांग्लादेश के गठन से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि मज़बूत हुई थी.