डॉग्स हजारों सालों से मानव के साथी रहे हैं. हालांकि डॉग्स खतरनाक भी होते हैं और अगर उन्हें ढंग से ट्रेनिंग दें और पालें तो वो हमारे लिए बहुत उपयोगी भी होते हैं. आर्मी में खास ब्रीड के डॉग्स रिक्रूट किए जाते हैं. ये कैसे होते हैं और फिर ट्रेनिंग के बाद इनका रोल क्या होता है.
डॉग्स आर्मी का अभिन्न अंग हैं. लंबे समय से उन्हें आर्मी के कई आपरेशंस में शामिल भी किया जाता है. उनकी ट्रेनिंग की सेना में अलग विंग होती. इन आर्मी डॉग्स की अहमियत का अनुमान इस बात से लगा सकते हैं कि उन्हें सेना में रैंक भी दी जाती है.
सैनिकों की तरह ही सेना में भर्ती किए जा रहे डॉग के लिए भी ये देखा जाता है कि वे शारीरिक तौर पर मजबूत और चुस्ती-फुर्ती से भरे-पूरे हों. आमतौर पर इसके लिए लेब्राडोर, बेल्जियन मैलिनॉयस और जर्मन शेफर्ड को चुना जाता है. ये तेज-तर्रार तो होते ही हैं, साथ ही कम समय में ज्यादा सीख पाते हैं.
नियुक्ति के बाद इनकी लंबी ट्रेनिंग होती है. इस दौरान जिस भी खास ऑपरेशन के लिए इन्हें नियुक्त किया जाता है, उसके हिलाब से प्रशिक्षण मिलता है. जैसे अगर बम दस्ते में डॉग की भर्ती हुई हो तो जमीन या वस्तु सूंघकर दूर से ही विस्फोटक का पता कैसे लगाया जाए, ये सिखाया जाता है.
इस तरह के प्रशिक्षण के लिए नेशनल ट्रेनिंग सेंटर फॉर डॉग (NTCD) काम करता है. इसके ट्रेनर न केवल विस्फोटकों का पता लगाने, बल्कि सर्च और रेस्क्यू अभियान चलाने से लेकर खदानों का पता लगाने और यहां तक कि भीड़ नियंत्रण जैसे कामों के लिए इन्हें ट्रेनिंग देते हैं
इन्हें अवाज की बजाए आंखों के इशारे से समझना और काम करना सिखाया जाता है. हैंडलर उन्हें इस हद तक प्रशिक्षित कर देते हैं कि मुसीबत के समय डॉग्स को कमांड देने की जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि वे बिना बोले काम शुरू कर देते हैं. सांकेतिक फोटो
खास ऑपरेशन जैसे सर्च और बचाव अभियान या फिर आतंकियों का सुराग लेने के दौरान छोटी से छोटी आहट मुश्किल ला सकती है. यही कारण है कि सेना में इन्हें न भौंकने की तक ट्रेनिंग मिलती है. इससे वे बेखटके काम कर पाते हैं.
आर्मी डॉग की ट्रेनिंग अलग तरह से शुरू होती है. इन्हें एकदम से ले जाकर सेना के बीच छोड़ नहीं दिया जाता, बल्कि लगभग 15 दिनों के लिए ये अपने ट्रेनर के साथ ही रहते हैं. इस दौरान चौबीसों घंटे साथ रहने को कई बार marrying-up भी कहा जाता है. इस दौरान कुत्ते अगर ज्यादा आक्रामक हों या फिर उन्हें किसी कारण से सीखने में कोई परेशानी हो या फिर शारीरिक तौर पर उतने फिट न लगें तो उन्हें ट्रेनिंग से अलग कर दिया जाता है.
फिलहाल भारतीय सेना के पास ऐसे लगभग 1000 आर्मी डॉग्स हैं. इनमें से लगभग सभी अलग-अलग कामों के लिए प्रशिक्षित हैं लेकिन सर्च और बचाव अभियान में सबको महारथ हासिल है. यहां तक कि उन्हें कई ऑपरेशन्स को जान पर खेलकर अंजाम देने के लिए वीरता पुरस्कार भी मिलते रहे हैं. Remount Veterinary Corps (RVC) में एक शौर्य चक्र और वीरता के लिए मिले ढेरों दूसरे सम्मान सजे हुए हैं. इसके अलावा अवॉर्ड जीतने वाले कुत्तों को हर महीने 15,000 से लेकर 20,000 रुपये मिलते हैं जिसे उनके खाने से लेकर सेहत तक पर खर्च किया जा सके.
आर्मी डॉग अपने ट्रेनिंग के बाद ऑपरेशनों से जुड़ जाते हैं और एक समय के साथ उनकी सेना में पोजिशन भी ऊपर होती जाती है. किसी अभियान के दौरान बेहद बहादुरी दिखाने पर डॉग को प्रमोशन भी मिलता है. इसी तरह से इनका रिटायरमेंट भी होता है, जो आमतौर पर 8 से 10 साल के दौरान हो जाता है.
अगर कोई डॉग इस दौरान घायल हो जाए और इलाज के बावजूद ठीक न हो सके तो उसे दयामृत्यु दी जाती है. इसके बाद सेना के अधिकारी की तरह सम्मान से ही उनका अंतिम संस्कार किया जाता है. रिटायरमेंट के बाद आर्मी डॉग को दया मृत्यु देना काफी समय से विवादों में रहा. हाल ही में इसमें बदलाव हुआ है. इन्हें सेवानिवृति के बाद डॉग्स के लिए बने ओल्ड-एज होम में दिया जा सकता है. मेरठ के वॉर डॉग ट्रेनिंग स्कूल में ऐसे ओल्ड एज होम की शुरुआत भी हो चुकी है.