एकनाथ शिंदे के राजनीतिक गुरु और ‘ठाणे के ठाकरे’ आनंद दिघे कौन ​थे?

आनंद दिघे

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एकनाथ शिंदे ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ले ली है. इस दौरान उन्होंने भाजपा नेताओं को धन्यवाद दिया और आनंद दिघे का भी ज़िक्र किया.

एकनाथ शिंदे की बात करें तो दिघे का ज़िक्र करना ज़रूरी है. दरअसल ये दिघे ही थे, जिन्होंने एकनाथ शिंदे को ठाणे में एक नेता के रूप में स्थापित करने और आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई.

ठाणे में आनंद दिघे को आज भी मानने वाले और सम्मान करने वाले लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग है, जबकि उनके निधन को अब 21 साल बीत चुके हैं.

2001 में गणेश उत्सव के दौरान उनकी कार का एक्सीडेंट हो गया था. घायल आनंद दिघे की ठाणे के एक अस्पताल में सर्जरी हुई थी, लेकिन बाद में दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई.

दिघे की मौत के बाद उनके समर्थकों ने सिंघानिया अस्पताल में आग लगा दी थी. आनंद दिघे पर शिवसेना पार्षद श्रीधर खोपकर की हत्या का आरोप भी लगा था और उन्हें टाडा अधिनियम के तहत गिरफ़्तार किया गया था.

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21 साल बाद भी बना हुआ है सम्मान

उनके निधन के 21 साल बाद भी ठाणे के शिवसैनिक आदरपूर्वक आनंद दिघे का नाम लेते हैं. एकनाथ शिंदे ने 28 नवंबर, 2019 को उद्धव ठाकरे के मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण के दौरान भी कहा था कि “धर्मवीर आनंद दिघे की याद में” शपथ ले रहे हैं.

उन्होंने तब कहा था, “शिव सेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे को नमन के साथ, धर्मवीर आनंद दिघे की याद, माता-पिता के अच्छे कर्म, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के आशीर्वाद के साथ वफ़ादारी…”

मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेते वक्त बाक़ी स्थितियां भले बदल गई हों, लेकिन आनंद दिघे के प्रति उनके सम्मान का भाव बना रहा.

इससे पहले, लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी नेता नारायण राणे के बेटे नीलेश राणे ने आरोप लगाया था कि शिवसेना नेता आनंद दिघे की हत्या के लिए बालासाहेब ठाकरे ज़िम्मेदार थे.

इसके बाद, शिवसेना सांसद विनायक राउत ने राणे के लगाए सभी आरोपों का खंडन किया था. लेकिन इस पूरे मामले से आनंद दिघे, शिवसेना और राणे के बीच घमासान शुरू हो गया था.

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आनंद दिघे

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जब शिवसैनिकों ने लगाई सिंघानिया अस्पताल में आग

अगस्त 2001 में शिवसैनिकों ने ठाणे के सिंघानिया अस्पताल में आग लगा दी थी.

इसके बाद अस्पताल के मालिक विजयपत सिंघानिया का बयान था, “हम पाकिस्तान को एक आतंकवादी राष्ट्र कहते हैं. लेकिन क्या ठाणे इससे अलग है? शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे को हमसे माफ़ी मांगनी चाहिए.”

दरअसल, अगस्त 2001 में एक शिवसेना कार्यकर्ता का सिंघानिया के अस्पताल में इलाज हुआ था. इलाज के दौरान शिवसैनिक की मौत हो गई और यह ख़बर ठाणे में जंगल की आग की तरह फैल गई.

उसके बाद करीब 1,500 शिवसैनिकों ने सिंघानिया अस्पताल में आग लगा दी. इसके बाद सिंघानिया ने हताशा में शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे से माफ़ी की मांग की थी.

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आनंद दिघे का तिलक करते शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे

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वह शिवसैनिक थे कौन?

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जिस शिव सैनिक की मृत्यु के बाद यह हंगामा हुआ था, उनका नाम आनंद चिंतामणि दिघे था.

आनंद दिघे का जन्म 27 जनवरी, 1952 को हुआ था. उनका घर ठाणे के टेंभी नाका इलाक़े में है. इस क्षेत्र में बाल ठाकरे की बैठकें होती थीं. युवा आनंद दिघे बालासाहेब की सभाओं में शामिल होते थे.

ठाणे वैभव समाचार पत्र के संपादक मिलिंद बल्लाल ने बताया, “आनंद बालासाहेब की वाक्पटुता और व्यक्तित्व पर मोहित था. बालासाहेब उन पर मोहित थे. इसलिए उन्होंने जीवन भर शिवसेना के लिए काम करने का फ़ैसला किया और 70 के दशक में शिवसेना के एक सामान्य कार्यकर्ता के रूप में काम करना शुरू कर दिया. वे शिवसेना के काम में इतना रम गए कि उन्होंने शादी भी नहीं की.”

ठाणे जैसे बड़े ज़िले में शिवसेना को आनंद दिघे के रूप में पूर्णकालिक कार्यकर्ता मिल गया था. दिघे की मेहनत को देखते हुए शिवसेना ने ठाणे ज़िलाध्यक्ष की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर डाल दी.

दिघे को जानने वाले ठाणे के पत्रकार सोपान बोंगाने कहते हैं, “दिघे के घर में मां, भाई और बहन सब थे. लेकिन जब वह ज़िलाध्यक्ष बने तो उन्होंने एक तरह से घर छोड़ दिया. वह वहीं रहते थे, जहां कार्यालय था. वहीं सो जाते थे. कार्यकर्ता उनके लिए खाना लाते थे.”

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ज़िला प्रमुख से धर्मवीर बननेका सफ़र

इस बीच, दिघे ने टेंभी नाका क्षेत्र में ‘आनंद आश्रम’ की स्थापना की. इस आश्रम में रोज़ सुबह जनता दरबार लगता था. क्षेत्र के लोग दिघे को अपनी समस्याओं से अवगत कराकर उसका तत्काल समाधान कराने लगे.

स्वतंत्र पत्रकार रवींद्र पोखरकर कहते हैं, “समस्या से घिरे लोग सुबह 6 बजे से आनंद आश्रम में इकट्ठा हो जाते थे. वे लोगों की शिक़ायतें सुनते थे और लोगों की मदद करते थे. प्रशासन के सभी लोगों में इस सभा को लेकर भय पैदा हो गया था.”

रवींद्र पोखरकर ये भी बताते हैं, “दिघे धार्मिक तौर पर बहुत ही सख़्त नीति का पालन करते थे. वे टेंभी नाका में नवरात्रि समारोह शुरू करने वाले पहले व्यक्ति थे. उन्होंने पहली दही-हांडी उत्सव शुरू किया. इन सभी धार्मिक गतिविधियों ने ‘धर्मवीर’ के रूप में उनकी प्रसिद्धि फैलाई. उन्होंने स्वयंसेवकों के लिए रोज़गार के मौक़े उत्पन्न कराए. इसलिए उन्होंने लोगों के दिलों पर राज करना शुरू कर दिया.”

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आनंद दिघे

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‘ठाणे के ठाकरे’

दिघे की लोकप्रियता के बारे में वरिष्ठ पत्रकार हेमंत देसाई कहते हैं, “आनंद दिघे की लोकप्रियता दिनोदिन बढ़ती जा रही थी. मातोश्री में भी उनकी लोकप्रियता की ख़बरें पहुंच रही थीं. दिघे ने शिवसेना में एक स्वतंत्र संप्रदाय की शुरुआत की थी. शिवसेना में भी राजा और प्रजा वाली नीति थी. उस समय ठाणे में चर्चा थी कि बालासाहेब उनकी लोकप्रियता से परेशान थे.”

हालांकि बालासाहेब ने उस दौर में कहा था, “आनंद के पक्षपात करने के बारे में कोई सवाल ही नहीं है. आनंद की हिंदू धर्म के प्रति वफ़ादारी के बारे में कोई संदेह नहीं है, लेकिन आनंद जिस तरह से मामलों को संभाल रहा है, उसके बारे में एक सवाल है.”

आनंद दिघे ने तब कहा था, “मैं शिवसेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे की सहमति से ही काम करता हूं.”

फ्रंटलाइन मैगजीन की रिपोर्ट के मुताबिक़, “अगर दिघे ने कोई चुनाव नहीं लड़ा होता या किसी पद के लिए इच्छुक नहीं होते तो वह ‘ठाणे के बाल ठाकरे’ बन सकते थे.”

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आनंद दिघे, मनोहर जोशी और गोपीनाथ मुंडे

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‘तेरा खोपकर करूं क्या?’

1989 के ठाणे के मेयर चुनाव के कारण आनंद दिघे की चर्चा पूरे राज्य में होने लगी थी.

प्रकाश परांजपे इस चुनाव में महापौर पद के लिए शिवसेना के उम्मीदवार थे और उनके शिवसेना के मेयर चुने जाने की उम्मीद थी. चूंकि आनंद दिघे शिवसेना के ठाणे ज़िला प्रमुख थे, इसलिए परांजपे को जिताने की ज़िम्मेदारी उन पर थी. लेकिन परांजपे केवल एक वोट से हार गए.

इस चुनाव में शिवसेना के कुछ वोट बंट गए. इस हार के बाद बाल ठाकरे नाराज़ हो गए थे और उन्होंने सार्वजनिक तौर पर पूछा, “गद्दार कौन-कौन है?”

हेमंत देसाई कहते हैं, ”बालासाहेब ने खुले तौर पर कहा था, ‘जिन्होंने धोखा दिया, हम उन्हें माफ़ नहीं करेंगे’.”

कुछ दिनों बाद यह चर्चा सामने आने लगी थी कि शिवसेना के पार्षद श्रीधर खोपकर ने अपनी ही पार्टी को धोखा देकर विपक्षी उम्मीदवार को वोट दे दिया और इसके चलते शिवसेना के उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा.

एक महीने बाद, दिनदहाड़े खोपकर की हत्या कर दी गई. दिघे को मामले में अभियुक्त बनाया गया और उन्हें टाडा क़ानून, 1987 के तहत गिरफ़्तार किया गया. बाद में उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया गया. उनकी मृत्यु तक यह मामला चलता रहा.

हेमंत देसाई कहते हैं, ”इस घटना के बाद अगर ठाणे में कोई विवाद होता तो लोग कहते, ‘तेरा खोपकर करूं क्या?”

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आनंद दिघे

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अपने पार्षदों पर लगाया था भ्रष्टाचार का आरोप

जब ठाणे नगर निगम में शिवसेना सत्ता में थी और आनंद दिघे शिवसेना के ज़िलाध्यक्ष थे, तो उन्होंने अपनी ही पार्टी के पार्षदों पर आरोप लगाए.

उन्होंने आरोप लगाया था, “ठाणे नगर निगम में 41 फ़ीसदी भ्रष्टाचार चल रहा है. ठाणे में नगर निगम ठेके देते समय पार्षद कमीशन खाते हैं.”

महाराष्ट्र सरकार के सचिव नंदलाल की अध्यक्षता में जांच कमेटी गठित की गई. पोखरकर कहते हैं, ”साल भर की जांच के बाद नंदलाल समिति की रिपोर्ट आई. लेकिन तब तक दिघे की मौत हो चुकी थी. दिघे की शिक़ायत में कई तथ्य पाए गए थे, लेकिन इसमें बाद में कुछ हुआ नहीं.”

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कैसे हुआ था आनंद दिघे का निधन

24 अगस्त, 2001 की सुबह गणेश उत्सव होने के कारण दिघे मज़दूरों से मिलने उनके घर जा रहे थे. इस दौरान कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई. हादसे में उनका पैर टूट गया और सिर में चोट लग गई.

हादसे के बाद उन्हें ठाणे के सिंघानिया अस्पताल में भर्ती कराया गया था. वहां उनका ऑपरेशन हुआ. 26 तारीख़ की दोपहर उनके पैर का ऑपरेशन किया गया. लेकिन शाम को उनकी तबीयत बिगड़ने लगी.

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घायल आनंद दिघे का हालचाल लेते शिवसेना नेता मनोहर जोशी

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शाम 7.15 बजे उन्हें दिल का पहला दौरा पड़ा. 10 मिनट बाद शाम 7.25 बजे उन्हें ज़्यादा बड़ा दिल का दूसरा दौरा पड़ा. अस्पताल में रात 10.30 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली. दिघे उस समय 50 वर्ष के थे.

किसी की यह कहने की हिम्मत नहीं हुई कि आनंद दिघे की मृत्यु हो गई. अंत में, उद्धव ठाकरे ने सार्वजनिक तौर पर घोषणा की, “आनंद दिघे का निधन हो गया है.”

उद्धव के एलान के बाद अस्पताल के बाहर करीब 1,500 दिघे प्रशंसकों ने पूरे अस्पताल में आग लगा दी. इसके बाद तत्कालीन उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल ने इस मामले की जांच के आदेश दिए और बाद में 34 लोगों को गिरफ़्तार किया गया. दिघे की मौत के बाद ठाणे को बंद कर दिया गया था. इसके बावजूद, उनके अंतिम संस्कार में हज़ारों शिवसैनिक शामिल हुए.

दिघे की मृत्यु के बाद ठाणे में 2001 में एक शोक सभा में बालासाहेब ठाकरे ने कहा था, “आनंद की दाढ़ी में हुक़ूमत थी. उसके ख़िलाफ़ जाने की किसी में भी हिम्मत नहीं थी.”

हालांकि तब बाल ठाकरे को अंदाज़ा भी नहीं रहा होगा कि आनंद दिघे के बढ़ाए एकनाथ शिंदे एक दिन उनके ही बेटे के ख़िलाफ़ चले जाएंगे.