वैश्विक कार्बन उत्सर्जन पूरी दुनिया के लिए समस्या बन चुका है. इस समस्या पर हर साल नामी देश मिलकर चर्चा करते हैं, कुछ निर्णय लिए जाते हैं, कुछ कोशिशों के वायदे होते हैं, और फिर एक साल बीत जाता है.
ये क्रम सालों से चल रहा है पर कार्बन उत्सर्जन में ना तो कमी देखी गई ना ही प्रयासों के रंग दिख रहे हैं. किन्तु, इस बार कुछ अलग हुआ है. दरअसल, ग्लोबल अलायंस फॉर इनसिनरेटर ऑल्टरनेटिव्स की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन कम करने में कचरे का निवारण बड़ी भूमिका निभा सकता है.
दूसरी तरफ दुनियाभर की सरकारों ने मीथेन उत्सर्जन कम करने पर जोर दिया है. असल में मीथेन को CO2 से भी ज्यादा खतरनाक माना जाता है. यह कम समय में कार्बन डाई ऑक्साइड से 80 गुना ज्यादा सौर रेडिएशन सोखती है. कचरा मीथेन का उत्पादक है. इसलिए मिलकर तय हुआ है कि कचरे का सही प्रबंधन जरूरी है.
वैश्विक कार्बन उत्सर्जन दुनिया के लिए बड़ी समस्या क्यों?
19वीं शताब्दी के अंत में तेल, गैस और कोयले को बड़ी मात्रा में जलाना शुरू किया था. जिसके बाद से कुछ ही सालों में कार्बन इस स्तर पर पहुंच गया, जहां वह धरती पर जीवन को प्रभावित करने लगा. साल 2022 में आई नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन की रिपोर्ट बताती है कि 40 लाख सालों की तुलना में अब वातावरण में सबसे ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड है. इसके साथ ही मीथेन भी अपने उच्च स्तर तक पहुंच गई है.
दुनिया भर में बिजली संयंत्रों, ऑटोमोबाइल और अन्य स्रोतों से बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड वायुमंडल में छोड़ा जा रहा है. इसी तरह कचरे का सही प्रबंधन नहीं होने से मीथेन गैस का उत्सर्जन बढ गया है. जो सीधे तौर पर ग्रीन हाउस को प्रभावित कर रहा है. हालांकि, मीथेन वातावरण में कार्बन डाइ ऑक्साइड की तुलना में बहुत कम देर तक रहती है पर इसका प्रभाव कार्बन डाइ ऑक्साइड से कहीं ज्यादा और गहरा है. वैज्ञानिक मान रहे हैं कि वर्तमान में कार्बन का जो अधिकतम प्रतिशत है उसमें 30 फीसदी हिस्सा मीथेन गैसों का है.
2021 में कार्बन उत्सर्जन 36.3 बिलियन टन था जो अब तक का सबसे ज्यादा था. NOA के प्रशासक रिक स्पिनराड ने कहा कि मनुष्य लगातार अर्थव्यवस्था के चलते हमारे जलवायु को बदल रहे हैं, जबकि इसे हमारे बुनियादी ढांचे के अनुकूल होना चाहिए. ग्लोबल मॉनिटरिंग लेबोरेटरी के वरिष्ठ वैज्ञानिक पीटर टैन्स ने कहा कि कोरोना वायरस महामारी के कारण आर्थिक मंदी के दौरान इसका स्तर 2020 में कम हो गया था लेकिन इसका लंबे समय तक कोई असर नहीं दिखा. इसी कारण बाढ़, जानलेवा गर्मी, सूखा और जंगलों में आग लगने के मामले दिख रहे हैं.
वैश्विक कार्बन उत्सर्जन कैसे कम किया जा सकता?
संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों के मुताबिक इन गतिविधियों से कुल उत्सर्जन का 30 प्रतिशत हिस्सा आता है. उसके बाद तेल और गैस उद्योगों का नंबर है जो 19 फीसदी ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित करते हैं. कचरे के ढेरों यानी लैंडफिल्स का योगदान 17% है. इन ढेरों के कारण मीथेन का उत्सर्जन बढा है. मीथेन से घबराने की जरूरत इसलिए है क्योंकि यह कम समय में CO2 से 80 गुना ज्यादा सौर रेडिएशन सोखती है.
GIA की एक रिपोर्ट कहती है कि अगर कचरे का सही तरीके से प्रबंधन किया जाए तो मीथेन उत्सर्जन के खतरे को बहुत हद तक कम किया जा सकता है. इस रिपोर्ट के लेखकों ने ‘जीरो वेस्ट’ जैसी रणनीतियों का अध्ययन किया. इनमें ऑर्गैनिक, रीसाइकलयोग्य और अन्य कचरे को अलग-अलग करने जैसे तरीके शामिल हैं. वैज्ञानिक कहते हैं कि कचरे का सही प्रबंधन हो तो उससे इतना कार्बन कम होगा जितना सालाना 30 करोड़ कारों द्वारा कार्बन उत्सर्जन होता है. ऑर्गैनिक, रीसाइकलयोग्य और अन्य कचरे को अलग-अलग करने जैसे छोटे छोटे प्रयास जरूरी हैं.
अगर आम आदमी कचरे का सही निपटारा करने में अपनी भूमिका निभाए तो 13 फीसदी तक मीथेन उत्सर्जन को रोका जा सकता है. चूंकि, कचरे के निपटारे के लिए महंगी तकनीक और मशीनों की जरूरत नहीं है इसलिए ऐसा करना खर्चीला काम नहीं होगा. इसके लिए केवल जागरूकता और मानवीय सहयोग जरूरी है.
रिपोर्ट कहती है कि कचरा कम करने ना सिर्फ मीथेन घटेगी बल्कि निर्माण, यातायात और चीजों के उपभोग से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में भी कमी आएगी. मीथेन का सही प्रबंधन इसलिए भी जरूरी माना जा रहा है क्योंकि इस वक्त वातावरण में जितनी मीथेन गैस मौजूद है वह आठ लाख साल का सर्वोच्च स्तर है.
दुनिया के प्रमुख देश इसे गंभीरता से क्यों नहीं ले रहे हैं?
अब सवाल यह है कि अगर कार्बन उत्सर्जन का मसला इतना महत्वपूर्ण हो चुका है तो दुनिया के प्रमुख देश इसे गंभीरता से क्यों नहीं ले रहे हैं? पिछले साल ग्लासगो में हुए जलवायु सम्मेलन में सौ से ज्यादा देशों ने ‘ग्लोबल मीथेन प्लेज’ के तहत इसके उत्सर्जन में कमी करने का प्रण लिया था.
इसके तहत 2020 तक मीथेन का उत्सर्जन 30 फीसदी कम किया जाना था. अगर यह प्रयास सभी ने मिलकर किए होते थे काफी हद तक इसका प्रभाव वातारण पर दिखाई देता. लेकिन मीथेन उत्सर्जन करने वाले कई बड़े देशों ने इस प्रतिज्ञा को नकार दिया. इनमें रूस, चीन और ईरान के साथ-साथ भारत भी शामिल है.
भारत में विशेषज्ञों का कहना है कि वन कटाई और मीथेन उत्सर्जन रोकने के लिए हुए समझौतों में भारत इसलिए शामिल नहीं हुआ क्योंकि इससे उसके कृषि और व्यापार क्षेत्र प्रभावित होंगे. भारत की 27 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था का 15 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा कृषि क्षेत्र से आता है.
देश की 130 करोड़ आबादी का आधे से ज्यादा इसी क्षेत्र पर निर्भर है. दो तिहाई से ज्यादा भारतीय गांवों में रहते हैं और पशु पालन वहां की मुख्य आर्थिक गतिविधियों में शामिल है. इस कारण मीथेन उत्सर्जन रोकना भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है. मवेशियों, खासकर गायों को मीथेन गैस के उत्सर्जन का बड़ा कारक कहा जाता है.
हालांकि, ऐसा नहीं है भारत अपनी तरफ से प्रयास नहीं कर रहा है. भारत में जोर शोर से शुरू हुए स्वच्छ भारत अभियान मिसाल है कि मीथेन और अन्य ग्रीन हाउस गैसों को बढने से रोकने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं. डोर टू डोर कचरा कलेक्ट करना, गीले और सूखे कचरे को अलग करना, उनके सही निपटारे के लिए जनता को जागरूक करना कारगर पहल है. इस वक्त तो भारत इतना ही सहयोग कर सकता है. लेकिन वे देश जो कृषि पर निर्भर नहीं है उनका कार्बन उत्सर्जन और मीथेन प्रबंधन के प्रति इतना बेरूखी भरा रवैया अपनाना कई सवाल पैदा कर रहा है.