क्यों स्वामी स्वरूपानंद को दी जाएगी भू समाधि, कैसे होता है साधु-संतों का अंतिम संस्कार

जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का शनिवार को मध्य प्रदेश में निधन हो गया. वह मप्र के नरसिंहपुर स्थित झोतेश्वर आश्रम में ही निवास करते थे. द्वारका और ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य का अंतिम संस्कार उनके इसी आश्रम में होगा. चूंकि वह शीर्ष साधु-संत थे, लिहाजा हिंदू परंपरा के अनुसार उन्हें भू समाधि दी जाएगी.

कैसे होता है हिंदू धर्म के साधू और संतों का अंतिम संस्कार. किस तरीके से उन्हें अंतिम विदाई दी जाएगी. आइए जानते हैं ये कैसे होता है. संत परम्परा में अंतिम संस्कार उनके सम्प्रदाय के अनुसार ही तय होता है. वैष्णव संतों को ज्यादातर अग्नि संस्कार दिया जाता है, लेकिन सन्यासी परंपरा के संतों के लिए तीन संस्कार बताए गए हैं.

कौन से हैं तीन तरीके
इन तीन अंतिम संस्कारों में वैदिक तरीके से दाह संस्कार तो है ही इसके अलावा जल समाधि और भू-समाधि भी है. कई बार संन्यासी की अंतिम इच्छा के अनुसार उनकी देह को जंगलों में छोड़ दिया जाता है.

अब क्यों नहीं दी जाती जल समाधि
वृंदावन के प्रमुख संत देवरहा बाबा को जल समाधि दी गयी थी जबकि दूसरे अन्य कई संतों का अंतिम संस्कार भी इसी तरह हुआ. बाबा जयगुरुदेव को अंतिम विदाई दाह संस्कार के जरिए दी गई थी. हालांकि इस पर विवाद भी हो गया था. तब जयगुरुदेव आश्रम के प्रमुख अनुयायियों ने कहा था कि बाबा की इच्छा के अनुरूप ही वैदिक तरीके से उनका दाह संस्कार किया जा रहा है. रामायण, महाभारत और अन्य हिंदू पौराणिक ग्रंथों में भारतीय संतों को जल समाधि देने का ही जिक्र आता है.

साधु संतों को पहले आमतौर पर जलसमाधि ही दी जाती थी लेकिन नदियों के जल में प्रदूषण के बाद अब भू समाधि दी जाने लगी है.

अब दी जाती है भू-समाधि
संन्यासी परंपरा में जरूर जल या भू-समाधि देने की परिपाटी रही है, लेकिन वैष्णव मत में पहले भी कई बड़े संतों का अग्नि संस्कार किया गया है.वैसे आमतौर पर साधुओं को पहले जल समाधि दी जाती थी, लेकिन नदियों का जल प्रदूषित होने के चलते अब आमतौर पर उन्हें जमीन पर समाधि दी जाती है.

भू समाधि में किस मुद्रा में बिठाया जाता है
भू समाधि में साधू को समाधि वाली स्थिति में बिठाकर ही उन्हें विदा दी जाती है. जिस मुद्रा में उन्हें बिठाया जाता है, उसे सिद्ध योग की मुद्रा कहा जाता है. आमतौर पर साधुओं को इसी मुद्रा में समाधि देते हैं.

साधुओं और संतों को ध्यान और समाधि की स्थिति में बिठाकर भू समाधि देने की वजह ये भी होती है कि साधु संतों का शरीर ध्यान आदि से खास ऊर्जा से युक्त रहता है. इसीलिए भू समाधि देने पर उनके शरीर को प्राकृतिक तौर पर प्रकृति में मिलने दिया जाता है.

अघोरी साधु जीवित रहते हुए ही अपना अंतिम संस्कार कर देते हैं. अघोरी को साधु बनने की प्रक्रिया में सबसे पहले अपना अंतिम संस्कार करना होता है

अघोरी साधुओं का अंतिम संस्कार कैसे होता है
अघोरी साधु जीवित रहते हुए ही अपना अंतिम संस्कार कर देते हैं. अघोरी को साधु बनने की प्रक्रिया में सबसे पहले अपना अंतिम संस्कार करना होता है. अघोरी पूरे तरीके से परिवार से दूर रहकर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और इस वक्त ये अपने परिवार को भी त्याग देने का प्रण लेते हैं. अंतिम संस्कार के बाद ये परिजनों और बाकी दुनिया के लिए भी ये मृत हो जाते हैं.

अन्य धर्मों में क्या होता है
मुस्लिम धर्म में उनके धार्मिक शख्सियत के शव को सीधा लिटाकर दफनाया जाता है. ईसाई तौरतरीकों में भी पादरी, बिशप और अन्य धार्मिक लोगों के शव का जुलूस निकालकर उन्हें दफनाया जाता है. पारसियों में धार्मिक गुरुओं को उनके धर्म की परिपाटी की तरह एक खास छत पर खुला छोड़ दिया जाता है, जहां गिद्ध और चील उन्हें खाते हैं.

शंकराचार्य का पद क्यों अहम
शंकराचार्य का पद हिंदू धर्म में बहुत महत्वपूर्ण है. हिंदुओं का मार्गदर्शन एवं भगवान को प्राप्त करने के साधन जैसे विषयों में हिंदुओं को आदेश देने के विशेष अधिकार शंकराचार्यों को ही मिले होते हैं. हिंदुओं को संगठित करने की भावना से आदिगुरु भगवान शंकराचार्य ने 1300 वर्ष पूर्व भारत के चारों दिशाओं में चार धार्मिक राजधानियां (गोवर्धन मठ, श्रृंगेरी मठ, द्वारका मठ एवं ज्योतिर्मठ) बनाईं. स्वामी स्वरूपानंद इनमें से दो पीठ के प्रमुख थे. इसलिए उनका दर्जा काफी अहम और खास भी था.

आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारी साधू भी बने
आजादी की लड़ाई में भी स्वामी स्वरूपानंद का खास योगदान था. 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा तो वह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. 19 साल की उम्र में वह ‘क्रांतिकारी साधु’ के रूप में प्रसिद्ध हुए. इस दौरान बनारस जेल में 09 महीने और फिर मध्य प्रदेश की जेल में 06 महीने की सजा काटी. जब स्वामी करपात्री महाराज ने अपना राजनीतिक दल बनाकर चुनाव लड़ा तो वह इस राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी थे. 1950 में वह दंडी संन्यासी बनाये गए. 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली.