अमेरिका को नाराज़ कर क्या ईरान से भी रूस की तरह तेल ख़रीदेगा भारत

ईरान

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इमेज कैप्शन,ईरानी विदेश मंत्री ने बुधवार को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाक़ात की

ईरान के विदेश मंत्री हुसैन आमिर अब्दुल्लाह बुधवार सुबह तीन दिवसीय दौरे पर भारत पहुंचे हैं.

यह दौरा ऐसे समय में हो रहा है, जब बीजेपी के दो प्रवक्ताओं की पैग़ंबर मोहम्मद पर विवादित टिप्पणी के कारण भारत सरकार मुस्लिम देशों की नाराज़गी झेल रही है. हालाँकि बीजेपी ने अपने दोनों प्रवक्ताओं को पार्टी से निकाल दिया है.

ईरान ने इस मामले में भारतीय राजदूत को तलब करके अपना विरोध दर्ज कराया था. ऐसे में ईरानी विदेश मंत्री के दिल्ली दौरे को काफ़ी अहमियत के साथ से देखा जा रहा है.

ईरानी विदेश मंत्रालय के मुताबिक़, इस यात्रा का उद्देश्य दोनों मुल्कों के बीच संबंधों को मज़बूत करने के साथ-साथ क्षेत्रीय मुद्दों एवं अंतरराष्ट्रीय घटनाओं पर आपसी सहयोग बढ़ाने के लिए रणनीतिक विचार-विमर्श करना है.

भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने ट्वीट करके कहा है कि “ये यात्रा हमारे ऐतिहासिक संबंधों और साझेदारी को और बढ़ावा देगी.”

अब तक ये स्पष्ट नहीं है कि इस यात्रा के दौरान ईरान से तेल ख़रीदने के मुद्दे पर कोई ठोस फ़ैसला लिया जाएगा या नहीं.

लेकिन साल 2019 से पहले तक ईरान भारत का तीसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता देश था. अमेरिकी प्रतिबंधों के बाद भारत ने ईरान से तेल ख़रीदना बंद कर दिया था.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या मौजूदा तनाव के बीच भारत आए ईरानी विदेश मंत्री के साथ तेल ख़रीद के मुद्दे पर कोई कारगर बातचीत हो सकती है.

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भारत और ईरान के बीच रिश्तों का इतिहास

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भारत और ईरान के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्तों का इतिहास सदियों पुराना है. साल 1947 से पहले तक दोनों मुल्क एक दूसरे के पड़ोसी हुआ करते थे.

इसका असर दोनों देशों की भाषा, बोली, और संस्कृति पर नज़र आता है.

जानकार मानते हैं कि इस्लाम का उदारवादी पहलू भी ईरान से ही भारत आया.

भारत और ईरान के बीच व्यापारिक, राजनयिक और सांस्कृतिक रिश्ते भी काफ़ी मजबूत रहे हैं.

एक लंबे समय तक भारत की शासकीय भाषा फारसी हुआ करती थी.

मौजूदा दौर में भी क़ानूनी दस्तावेज़ों में गिरफ़्तार, दरोगा, और दस्तख़त जैसे शब्द आमतौर पर इस्तेमाल किए जाते हैं.

आम बोलचाल में भी ऐसे कई शब्द हैं जो फारसी भाषा से निकले हैं. इनमें आराम, अफ़सोस और किनारा जैसे शब्द शामिल हैं.

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विवादित टिप्पणी का असर

बीजेपी की राष्ट्रीय प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने 26 मई को एक टीवी कार्यक्रम के दौरान पैग़ंबर मोहम्मद को लेकर एक विवादित टिप्पणी की थी.

इसके बाद दर्जन भर से ज़्यादा इस्लामिक देशों ने इस पर आपत्ति जताई थी. लेकिन ईरान ने भारतीय राजदूत को तलब करके अपना विरोध दर्ज कराया था.

ऐसे में आशंका जताई जा रही थी कि इस विवाद का ईरानी विदेश मंत्री के भारत दौरे पर असर पड़ सकता है.

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लेकिन इन आशंकाओं के विपरीत ईरानी विदेश मंत्री बुधवार सुबह दिल्ली पहुंचे और आगामी तीन दिनों में उनकी भारतीय अधिकारियों से मुलाक़ात होगी.

मध्य-पूर्व मामलों के जानकार क़मर आग़ा मानते हैं कि पैग़ंबर मोहम्मद को लेकर विवादित टिप्पणी के बाद उपजे हालात में ईरानी विदेश मंत्री का भारत दौरा काफ़ी अहम है.

वह कहते हैं, “मध्य-पूर्व में ये एक ज्वलंत मुद्दा है. वहाँ के अख़बारों से लेकर नेताओं के लिए ये मुद्दा अहम बना हुआ है. लेकिन ईरान एक मित्र देश है. मैं समझता हूँ कि ईरान को इस मुद्दे पर जो भी कुछ कहना-सुनना होगा, वो उनके विदेश मंत्री के ज़रिए होगा. वे इस यात्रा के दौरान सीधी बातचीत करेंगे.

ईरान के विदेश मंत्री अपनी बात रखेंगे और भारत सरकार अपना पक्ष रखेगी जिसके बाद बातचीत दूसरे मुद्दों पर आगे बढ़ जाएगी.”

भारत को तेल निर्यात करने वाले देश
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ईरान से सस्ता तेल मिलेगा?

ईरानी विदेश मंत्री की भारत यात्रा द्विपक्षीय संबंधों के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी काफ़ी अहम मानी जा रही है.

भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय एक बेहद चुनौतीपूर्ण दौर से गुज़र रही है.

रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध छिड़ने के बाद से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं.

इसकी वजह से भारत में पेट्रोल, डीज़ल और सीएनजी की क़ीमतों में भी बढ़ोतरी हो रही है. माल के आवागमन में लगने वाला ख़र्च बढ़ने की वजह से महंगाई का स्तर भी बढ़ता जा रहा है.

अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल के बढ़ते दाम भारत सरकार के लिए चिंता का विषय है

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इन तमाम समस्याओं का हल कम क़ीमतों पर तेल की ख़रीद से निकल सकता है. ईरान इस दिशा में भारत की मदद कर सकता है.

लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से भारत साल 2019 के बाद से ईरानी तेल आयात नहीं कर पा रहा है. हाल ही में रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत ने पश्चिमी देशों के दबाव के बावजूद रूस से तेल ख़रीदना जारी रखा था.

इसके बाद ये संभावनाएं जताई जा रही हैं कि भारत ईरान के मामले में भी अमेरिकी प्रतिबंधों को नज़रअंदाज़ कर सकता है.

इन संभावनाओं पर क़मर आग़ा कहते हैं, “यूक्रेन जंग ने स्थिति को पूरी तरह बदल दिया है. जिस तरह से खाने-पीने की चीज़ों के दाम बढ़ते चले जा रहे हैं, पूरी दुनिया की आर्थिक वृद्धि धीमी होती जा रही है.

भारत समेत पूरी दुनिया में बेरोज़गारी भी बढ़ रही है. हालात बेहद ख़राब हैं. ऐसे हालात में भारत को अपनी अर्थव्यवस्था संभालने के लिए जहाँ से भी अवसर मिलेगा, वहाँ से उसे भुनाने की कोशिश करेगा. भारत ईरान से तेल ख़रीदने पर पुनर्विचार कर सकता है. ईरान का तेल भारत को सस्ते दाम पर भी मिलता है.

अगर भारत को अपनी आर्थिक वृद्धि दर छह से आठ फ़ीसद बनाए रखनी है तो उसे बग़ैर किसी रुकावट के सस्ती दरों पर तेल की आपूर्ति होनी चाहिए. अगर कच्चे तेल के दाम में प्रति बैरल के हिसाब से एक डॉलर की भी बढ़त होती है तो इससे भारत को प्रतिदिन करोड़ों रुपए का नुक़सान होता है.”

एस जयशंकर

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ईरान की भौगोलिक स्थिति को देखें तो पता चलता है कि भारत के लिए ईरान से तेल ख़रीदना कितना मुफ़ीद है.

क़मर आग़ा इसे समझाते हुए कहते हैं कि “ईरानी तेल सस्ती दरों पर उपलब्ध होने की कई वजहें हैं. पहली वजह ये है कि ईरान तेल निर्यातक देशों में भारत के सबसे क़रीब स्थित है. इस वजह से ईरान से भारत तेल लाने में ट्रांसपोर्ट का ख़र्च कम होता है. भारत में ईरानी तेल को ध्यान में रखते हुए बनी तीन रिफायनरी भी मौजूद हैं.”

भारत और ईरान के बीच वस्तु विनिमय प्रणाली (बार्टर मकैनिज़म) के तहत व्यापार हुआ करता था. इसके तहत भारतीय रिफायनरी कंपनियां ईरान को भारतीय मुद्रा में भुगतान करती थीं.

और ईरान उस भारतीय मुद्रा को भारत से सामान आयात करने में इस्तेमाल करता था. इस वजह से ईरान भारत के लिए तेल की ख़रीद के मामले में सबसे बड़ा निर्यातक बनकर उभरा था.

ऐसा माना जाता है कि अगर तेल ख़रीदने को लेकर सहमति बनती है तो एक बार फिर इस प्रणाली का इस्तेमाल किया जा सकता है.

अमेरिकी नाराज़गी

लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या भारत सरकार अमेरिकी नाराज़गी का जोखिम उठाकर इस दिशा में क़दम बढ़ा सकती है.

रूस के मामले में भारत ने अमेरिका के साथ-साथ पश्चिमी देशों के दबाव को नज़रअंदाज़ करते हुए रूसी तेल ख़रीदना जारी रखा था.

तेल मामलों के जानकार नरेंद्र तनेजा मानते हैं कि भारत ईरान के मामले में इस विकल्प का चुनाव नहीं करेगा.

वह कहते हैं, “मुझे नहीं लगता है कि भारत इस दिशा में क़दम उठाएगा क्योंकि अमेरिका और पश्चिमी देश पहले ही रूस से तेल ख़रीदने की वजह से भारत से नाराज़ हैं. ऐसे में भारत इस बात का इंतज़ार करेगा कि अमेरिका ईरान पर लगे प्रतिबंधों में ढील दे.”

लेकिन सवाल ये उठता है कि भारत ईरान से तेल ख़रीदने के मामले में अमेरिकी प्रतिबंधों को नज़रअंदाज़ क्यों नहीं कर सकता जबकि भारत ने रूस और यूक्रेन युद्ध के दौरान पश्चिमी दबाव को बर्दाश्त कर लिया था.

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जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में मध्य-एशिया और रूस विभाग के प्रोफ़ेसर राजन कुमार इस सवाल का जवाब देते हैं.

वह कहते हैं, “अभी तक मुझे जानकारी नहीं है कि भारत सरकार ने इस बारे में क्या फ़ैसला लिया है. आने वाले दिनों में हमें सरकार के रुख़ की जानकारी मिल जाएगी. लेकिन हमें ये समझने की ज़रूरत है कि भारत के लिए रूस और ईरान की स्थिति एक जैसी नहीं है.

ईरान भारत के लिए एक ख़ास देश है लेकिन रूस भारत के लिए एक भू-राजनीतिक और सामरिक दृष्टि से एक बेहद अहम देश है. भारत रक्षा क्षेत्र से जुड़े आपूर्ति को लेकर रूस पर निर्भर है. रक्षा क्षेत्र के आपूर्तिकर्ताओं के विकल्प तलाशने और उनमें विविधता लाने की प्रक्रिया काफ़ी जटिल होती है. अब भी रूस पर भारत की निर्भरता 60-70 फीसद तक है. ऐसे में रूस हमारे लिए सामरिक दृष्टिकोण से एक अहम देश हो जाता है.

इसके साथ ही भू-राजनीतिक स्तर पर भी मध्य एशिया में रूस का एक विशेष प्रभाव है. चीन पर भी रूस का एक प्रभाव है. रूस भारत और चीन के बीच तनाव के दौरान अनाधिकारिक रूप से मध्यस्थता करने की कोशिश करता है. ऐसे में रूस के साथ ईरान की तुलना नहीं की जा सकती है.

क्योंकि भारत अगर ईरान के मामले में भी अमेरिकी प्रतिबंधों को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश करता है तो अमेरिका कह सकता है कि पहले रूस के मामले में प्रतिबंधों को नहीं माना गया और अब ईरान के मामले में भी अमेरिकी प्रतिबंधों की अवहेलना की जा रही है.”