Yo Yo Test: अगर फिटनेस ही इंडियन क्रिकेट टीम में खेलने का पैमाना होता तो शायद दुनिया कभी महान सुनील गावस्कर का नाम भी नहीं जान पाती। अब यो-यो टेस्ट का जिन्न एकबार फिर बाहर निकल आया है।
नई दिल्ली: फर्ज करें कि कोई प्लेयर लगातार सेंचुरी-डबल सेंचुरी बना रहा हो। या कोई बोलर फाइफर या अकेले पूरे 10 विकेट उखाड़ हो रहा। शानदार खेलने के बावजूद अगर वो फिट नहीं हैं तो उसकी इंडियन क्रिकेट टीम में कोई जगह नहीं बनेगी। उसे सलेक्ट ही नहीं किया जाएगा। अब टीम इंडिया में फिट बैठने के लिए फिट रहना जरूरी है। बीसीसीआई यो-यो टेस्ट वापस ला रहा है। क्या है ये यो-यो टेस्ट। क्यों इसे दोबारा इंट्रोड्यूस किया जा रहा है और क्या वाकई टैलेंट को दरकिनार कर चयन का पैमाना सिर्फ फिटनेस होना चाहिए। सबकुछ जानेंगे आज।
फुटबॉल से क्रिकेट पहुंचा यो-यो
यो-यो टेस्ट होता कैसे है, ये जानने से पहले ये है क्या, ये समझते हैं। क्रिकेट से पहले इसकी शुरुआत फुटबॉल फील्ड पर हुई। डेनमार्क के फुटबॉल फिजियोलॉजिस्ट जेन्स बैंग्सबो ने इस डेवलप किया। क्रिकेटिंग वर्ल्ड में सबसे पहले ऑस्ट्रेलिया ने इसे फॉलो किया। इसका एकमात्र मकसद खिलाड़ियों की फिटनेस लेवल को खेल बराबर लाना है। यो-यो टेस्ट सिलेक्शन के लिए बुरा है या अच्छा है… इस पर जाने से पहले ये जान लीजिए कि टेस्ट बड़ा टफ होता है। ये टेस्ट पूरी तरह से टेक्नोलॉजी बेस्ड है। सॉफ्टवेयर से नतीजे रिकॉर्ड किए जाते हैं। जिससे प्लेयर्स की फिटनेस और स्टामिना के बारे में पता चलता है। टेस्ट में 23 लेवल होते हैं, लेकिन प्लेयर्स 5वें लेवल से शुरुआत करते हैं।
बेहद टफ है यो-यो टेस्ट
इस टेस्ट में कोन की मदद ली जाती है। खिलाड़ी को एक कोन से दूसरे कोन तक दौड़ना होता है, जिसकी दूरी 20 मीटर होती है। यहां से फिर वापस जाना होता है। बीच में रिकवरी टाइम मिलता है। प्लेयर्स को ग्रेस टाइम भी दिया जाता है। जैसे-जैसे लेवल बढ़ता है। डिफिकल्टी बढ़ती जाती है। भारत में टेस्ट पास करने के लिए मिनिमम 16.5 स्कोर लाना होता है। इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में ये पासिंग मार्क 19 है।
टैलेंट या सिलेक्शन
इसे टटोलने से पहले एक चीज क्लियर कर लेते हैं कि क्रिकेट में फिटनेस दो टाइप की होती है। पहली ये कि कोई प्लेयर कैसे खुद को तैयार कर रहा है। ग्राउंड के कितने चक्कर लगा रहा है। कितनी अलग-अलग एक्सरसाइज कर रहा है। और दूसरी क्रिकेट फिटनेस, जो नेट्स पर घंटों बैटिंग या बोलिंग करना होता है। आज तो हर प्लेयर के पास सिक्स पैक एब्स हैं, लेकिन 70s-80s इनफैक्ट 90s में चीजें अलग थीं। तब नॉर्थ के दौड़ने-भागने में तेज थे तो मुंबई-चेन्नई-बैंगलोर वाले नेट्स पर वक्त गुजारते थे।
वरना गावस्कर नहीं बन पाते लिटिल मास्टर
महान सुनील गावस्कर ने अपना पुराना किस्सा शेयर करते हुए बताया है कि वह स्कूली दिनों से शीन स्पिलंट्स से परेशान हैं। यानी मैदान के चक्कर लगाने के दौरान पिंडली के आसपास मांसपेशियों में दर्द उठता है। वह ज्यादा देर तक नहीं दौड़ पाते। जब टीम मैनेजर ने उन्हें बाकियों की तरह दौड़ने कहा तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया कि अगर मैदान के चक्कर लगाना ही प्लेइंग इलेवन में खेलने का पैमाना है तो मुझे बाहर कर दो। अगर मैं मैदान पर थककर आउट हुआ तो मेरी फिटनेस पर सवाल उठने चाहिए, सवाल इस वजह से नहीं उठने चाहिए कि मैं मैदान के चक्कर नहीं लगा पाया।